मंगलमूर्ती मोरया!

मंगलमूर्ती मोरया!

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सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू का दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित अग्रलेख (१५-०९-२००७)

 ‘मेरे बचपन से मैं यह देख रहा था कि हमारे घर का वातावरण पूरी तरह से शुद्ध वैदिक संस्कारों का होनेपर भी उसमें अनावश्यक नियम, जाति-पाति, कर्मठ कर्मकाण्ड इन सब बातों को क़तई स्थान नहीं था। माई (परनानी) और नानी इनकी संस्कृत वाङ्मय में निपुणता और सभी संहिताएँ उन्हें कण्ठस्थ होने के कारण वेदमन्त्रों के शुद्ध एवं लयबद्ध उच्चारों को मैंने बचपन से सुना है। आज भी उन दोनों की आवाज में वैदिक मन्त्र एवं सूक्तों के गायन के मधुर स्वर मेरे अन्तःकरण में प्रतिध्वनित होते हैं। गणपतिजी की आरति के पश्चात्‌‍ कही जानेवाली मन्त्रपुष्पाञ्जलि, यह आज के ‘शॉर्टकट' के अनुसार ‘ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त....' से शुरू न होते हुए ‘ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे....' से शुरू होती थी और लगभग आधे-पौने घण्टे तक चलती थी। उसमें स्थित आरोह, अवरोह, आघात, उद्धार आदि सभी नियमों का पालन करते हुए भी उस मन्त्रपुष्पाञ्जलि की मधुरता, कोमलता और सहजता ज्यों के त्यों बनी रहती थी; क्योंकि उस मन्त्रोच्चारण में अपने श्रेष्ठत्व के प्रदर्शन की इच्छा नहीं थी, बल्कि पूरी तरह भक्तिरस से खिले हुए प्रफुल्लित अन्तःकरण से वह उच्चारण किया जाता था।

मैं जब पाँच साल का था, तब मेरे ननिहाल में अर्थात्‌‍ पण्डित घराने के गणपतिजी के समक्ष मुझे उन दोनों ने मन्त्रपुष्पाञ्जलि के गायन की शास्त्रीय पद्धति सिखाई। उस समय मेरी माँ की तीन चाचियाँ, माई और नानी इन पाँचों ने मेरा औक्षण करके मुझे बहुत मोदक खिलायें। तब तक मेरे ननिहाल में मैं अकेला ही पोता था और इसीलिए पूरे पाध्ये और पण्डित वंशों का मेरे प्रति बहुत ही स्नेह था। उसी दिन माई ने पाध्ये वंश की परम्परा के अनुसार बालगणेशजी की प्रतिष्ठापना करने की पद्धति भी मुझे समझायी और इसीलिए आज भी हमारे घर में गणेशचतुर्थी को प्रतिष्ठापित होनेवाली मूर्ति बालगणेशजी की ही रहती है।

mangalmoorti morya

एक बार मैंने माई से पूछा कि ‘माई, हर वर्ष बालगणेशजी ही क्यों?' माई ने मेरे गाल में प्यार से चुटकी भरके जवाब दिया, “अरे बापुराया, कोई बालक जब हमारे घर पधारता है और हम उसे दुलारते हैं, तब उस बालक के पीछे-पीछे उसके माता-पिता भी आते ही हैं और इस प्यार-दुलार को देखकर खुश हो जाते हैं। बालगणेशजी को जब भक्त प्यार से दुलारते हैं, तब पार्वतीमाता और परमशिव इनका भी अपने आप ही स्वागत एवं पूजन हो जाता है। एक बात यह भी है कि जब हम किसी अनजान साधारण मनुष्य के प्यारेसे छोटे बालक के साथ बातें करते हैं, खेलते हैं, तब अपने आप ही हमारे मन में निष्काम प्रेम प्रकट होते रहता है; फिर बहुत ही सुन्दर ऐसे मंगलमूर्तिजी के बालरूप के सान्निध्य में भक्तों के मन में क्या इसी तरह का निष्काम एवं पवित्र भक्तिप्रेम प्रवाहित नहीं होगा?”

माई की यह भावना एक अत्यन्त शुद्ध एवं पवित्र भक्तिमय अन्तःकरण की रसपूर्ण सहजवृत्ति थी। हम सब, लगभग करोड़ों लोग हमारे घर में गणपतिजी की प्रतिष्ठापना करते हैं, कहीं डेढ़ दिन तक, तो कहीं दस दिनों तक। गणेशजी की मूर्तियों में भले विविधता रहती हो, लेकिन विघ्नान्तक गणेशजी से क्या हम इस तरह के आत्मीयता के गहरे रिश्ते के साथ जुड़ जाते हैं?

केवल घर की परम्परा का भंग न हों, क्योंकि उसके भंग हो जानेपर विघ्न आ जायेंगे, इसी भावना से कुछ घरों में गणपतिजी को ले आते हैं। कहीं उन्हें मन्नत उतारने के तौर पर लाया जाता है, तो कहीं स़िर्फ उत्सव और मौजमस्ती के लिए। इस प्रकार की गणपति-प्रतिष्ठापना में मन्त्र भी होते हैं, मन्त्रपुष्पाञ्ञ्जलि भी होती है, आरती होती है, महानैवेद्य होता है और रीतिरिवाज एवं शास्त्र इनका पूरी तरह से पालन करने के भय से प्रेरित क्रियाकलाप भी होते हैं। लेकिन इस गड़बड़ी में खो जाता है, वह इस आराधना का मूल तत्त्व अर्थात्‌‍ प्रेमपूर्ण भक्तिभाव।

गणपतिजी के मंगलमूर्ति मोरया और सुखकर्ता दुखहर्ता इन दो बिरदों के बारे में सभी जानते ही हैं। दरअसल गणपतिजी के ‘सुखकर्ता दुखहर्ता' इस बिरदावलि के कारण ही हम उन्हें घर ले आते हैं। लेकिन ‘मंगलमूर्ति' इस बिरद के बारे में क्या हम कभी सोचते हैं? वे सिद्धिविनायकजी सबकुछ मंगल करनेवाले ही हैं, लेकिन उन्हें घर ले आने के बाद क्या हम उन्हें मंगलमय वातावरण में रखते है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है।

स़िर्फ दूर्वाओं के बड़े-बड़े हार चढ़ाकर, एक्कीस मोदकों को सुबह-शाम उनके सामने रखकर, लाल रंग के पुष्प अर्पण कर और आरती के समय जोर-जोर से झाँझ बजाकर, क्या हम इस तरह से हमारी पूरी क्षमता का उपयोग करके मंगलता का निर्माण करते हैं? जवाब अधिकतर ‘नहीं' यही रहेगा।

फिर वे मंगलमूर्ति हमसे जिस ‘मंगलता' को चाहते हैं, उसे हम किस तरह से उन्हें अर्पण कर सकते हैं? जवाब बिल्कुल आसान है। मंगलमूर्ति का स्वागत करते हुए ‘एक साल के बाद मेरा प्रियतम आप्त घर लौट रहा है' यह भावना होनी चाहिए। एक्कीस मोदकों से भरी हुई नैवेद्य की थाली को उनके सामने रखकर उन्हें प्यार से आग्रह कीजिए। आनेवाले मेहमानों के आगतस्वागत के दिखावे से गणपतिजी की आराधना की ओर अधिक ध्यान दीजिए। आरती गाते हुए किसी से प्रतियोगिता की भावना मत रखिए और मुख्य बात यह है कि जब ये महाविनायकजी पुनः उनके स्थान की ओर प्रस्थान करने निकलेंगे, तब गदगद होकर आत्मीयता से प्यारभरी प्रार्थना उनसे कीजिए, “मंगलमूर्ति मोरया, पुढच्या वर्षी लवकर या।” (मंगलमूर्ति बाप्पा, अगले वर्ष आप जल्दी आ जाइएँ।)'

अग्रलेख के अन्त में सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू लिखते हैं -

‘मेरे श्रद्धावान मित्रों, ‘अगले वर्ष आप जल्दी आ जाइएँ' इस वाक्य के अर्थ को ठीक से समझ लीजिए। उनके आने की तिथि तो पूर्वनियोजित ही है, फिर केवल मुख से ‘जल्दी आ जाइएँ' कहने में क्या अभिप्रेत है? इसका अर्थ यही है कि अगले वर्ष तक राह मत देखिए, देवा मोरया, आप हररोज ही आते रहिएँ और वह भी जल्द से जल्द।'