सद्‌गुरु अनिरुद्ध बापू के दृष्टिकोण से गणेशभक्ति

 हम किसी भी शुभकार्य की शुरुआत करते हैं, तब वह निर्विघ्नता से संपन्न हो, इसलिए अपने विघ्नहर्ता श्रीगणेशजी का स्मरण करते हैं, पूजन करते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं। बचपन में अक्षर लिखना सीखते समय भी हम सबसे पहले ‘श्रीगणेशाय नम:’ यही लिखना सीखते हैं। मंदिर चाहे किसी भी देवता का हो, परन्तु श्रीगणेशजी प्रत्येक मन्दिर के गर्भगृह के प्रवेशद्वार पर विराजमान होते ही हैं। ‘मंगलमूर्ति श्रीगणपति’ ये सच में सभी शुभकार्यों के अग्रस्थान में रहने वाले, हमारे भारत भर के छोटे-बड़े सभी के अत्यंत प्रिय देवता हैं।  


ऐसे ‘गणपतिजी’ के संदर्भ में, दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ के कार्यकारी संपादक डॉ. श्री. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी (सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू) ने अपने अध्ययन एवं चिन्तन से प्रकट हुए विचार विभिन्न अग्रलेखों में से प्रस्तुत किये हैं। ये अग्रलेख केवल जानकारी देने तक सीमित न होकर, श्रद्धावानों के मन के प्रश्नों के उत्तर देने वाले, भक्ति को अधिक अर्थपूर्ण बनाने वाले और गणपतिजी के विभिन्न रूपों से गहराई से परिचित कराने वाले हैं।  


उन अग्रलेखों में बापू ने वेद, पुराण, संतवाङ्मय में रहने वाला गणपति का स्वरूप और उसके पीछे का तत्त्वज्ञान बहुत ही सहज एवं सरल भाषा में समझाया है। ब्रह्मणस्पति-गणपति संकल्पना, विश्व के घनप्राण गणपति, गणपति की जन्मकथा के पीछे का सिद्धान्त, सार्वजनिक गणेशोत्सव की पार्श्वभूमिका, मूलाधारचक्र के अधिष्ठाता गणपति, गणपति के प्रमुख नाम, उनके वाहन मूषकराज, व्रतबंध कथा, मोदक कथा और इन कथाओं का भावार्थ ..... इन सभी बातों को बापू ने ऐसी रचना में प्रस्तुत किया है कि मानो वे हमारे मन के प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं।   
गणपति इन देवता से संबंधित यह विवेचन श्रद्धावान भक्तों के लिए केवल जानकारी नहीं है, बल्कि भावनिक दृष्टिकोण से अपनी भक्ति और श्रद्धा को अधिक दृढ बनाने वाला है।  


दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में विभिन्न अवधियों में प्रकाशित हो चुके ये अग्रलेख अब ब्लॉगपोस्ट (blogpost) के रूप में हम सभी के लिए उपलब्ध हो रहे हैं - बापू ने दिये हुए उन अमूल्य विचारों की सुगंध हमारे मन में फैलती, महकती रहे, इस एक ही उद्देश्य से।  

 

मंगलमूर्ति

(संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू का दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित अग्रलेख (२७-०८-२००६))

 

मंगलमूर्ती मोरया! बिलकुल हर किसी के भी होठों पर आसानी से आने वाले ये दो मधुर एवं महन्मंगल (अत्यंत मंगलकारी) शब्द हैं। श्रीगणपति की मूर्ति को दुकान में से लेकर सिर पर धारण करते समय, ये मंगलमूर्ति जब घर की दहलीज़ पर पधारते हैं उस समय, उस मूर्ति को सुशोभित आसन पर (इस आसन के चारों ओर बहुत ही सुंदर सजावट करने की परिपाटी है, जिसे मराठी में ‘मखर' कहा जाता है) स्थापित करते समय, हर आरती के पश्चात्‌‍, गणपति की मूर्ति का विसर्जन करने निकलते समय और विसर्जन करते समय भी हर एक भक्त के मुख से और मन में सहज ही ‘मंगलमूर्ति मोरया' इस बिरुद (प्रशंसासूचक उपाधि) का स्मरण हो ही जाता है। इसे नाम कहा जाये या बिरुदावलि (उपाधियों की माला) कहा जाये? अनेक सामान्य जनों के द्वारा उनकी हज़ारों वर्षों की परिपाटी और भक्तिभाव से भरे हुए अंत:करण से सिद्ध किया हुआ यह मंत्र है।

जो कुछ भी सर्वथा अत्यधिक मंगलकारक है, शुभ और पवित्र है, उसकी एकरस, एकरूप, अक्षय्य सगुण साकार मूर्ति ही श्रीमहागणपति है। पूरे भारतवर्ष में और जहाँ कहीं पर भारतीय लोग है, दुनिया के उस कोने में भी गणेश चतुर्थी के दिन गणपति की स्थापना की जाती ही है। जिस घर में गणपति की स्थापना की जाती है, उस घर में तो दिवाली से भी बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है।

परमात्मा के शुद्धतम (सबसे शुद्ध), मंत्रमय रूप का अधिष्ठान ऐसा यह प्रणवाकृति गजमुख (प्रणव यानी ॐ कार की आकृति और गज यानी हाथी का मुख जिसका है, ऐसा) हर एक शुभ कार्य के आरंभ में सबसे पहले पूजन किये जाने का सम्मान निरपवाद रूप से जिन्हें प्राप्त हैं, ऐसे प्रसन्न देवता हैं। इनका स्मरण और पूजन करके किये गये सत्‌‍-कार्य - अच्छे कार्य ही बिना किसी रुकावट के पूरे होते हैं, यह भारतीय जनमानस की सुदृढ श्रद्धा है और यह मात्र कल्पना अथवा मनगंढ़त शब्दभ्रम की बात नहीं है। परमात्मा अपने भक्तों के लिए उन भक्तों की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न रूप धारण करते रहते हैं। वे अनंत हैं और उनके भक्त भी अनगिनत हैं, इसी कारण उनके रूप भी विभिन्न होते हैं। शैव (केवल शिव की उपासना करने वाला संप्रदाय), शाक्त (देवी को मात्र शक्ति मानकर उसकी उपासना करने वाला संप्रदाय), वैष्णव (केवल विष्णु की उपासना करने वाला संप्रदाय) इस तरह के विभिन्न आध्यात्मिक प्रवाहों में जिन्हें बिना किसी परिश्रम एवं खुशी से स्वीकृति मिल गयी, ऐसे श्रीगणेशजी ये एकमात्र देवता हैं। जिस समय वैष्णव और शैव इन संप्रदायों की आपस में बिलकुल भी नहीं बनती थी, उस समय भी ये दोनों (वैष्णव और शैव) इस गौरीनंदन विनायक को मानते थे और उसका पूजन भी करते थे, यह उस देवता की प्रमुख विशेषता है। वेदों में जिनका वर्णन मिलता है, उन विघ्न उत्पन्न करने वाले गणों को नियन्त्रण में रखकर देवताओं के मार्ग को सदैव निर्विघ्न (विघ्नों से रहित) करने वाले और दिव्य प्रकाशमय देवगणों को काम करने का चातुर्य एवं कार्यकौशल्य प्रदान करने वाले इन ब्रह्मणस्पति ने अपने ही रूप में सर्वसमावेशकता धारण की।

विशाल, स्थूलतनु (स्थूल शरीर) और लंबोदर (लंब-उदर-बड़ा पेट रहने वाले) ऐसे गणपति, परन्तु उनका प्रिय वाहन मात्र एक एक छोटे से आकार का, प्राणिमात्रों में निम्न स्तर में स्थित मूषक है। (मूषक इस नाम का एक अर्थ चूहा यह भी है।) इससे इन परमात्मा ने भक्तमानस को यह समझाया है कि उनका भार चाहे कितना भी प्रचंड हो, इसके बावजूद भी उस भार का वहन करने के लिए एक छोटा और क्षुद्र (मामूली) सा चूहा भी समर्थ हो सकता है, लेकिन कब? तो जब तक उनकी (परमात्मा की) कृपा है, तब तक ही। इसी का अर्थ यह है कि इतने विशाल गणपति का वहन करने के कारण चूहा श्रेष्ठ नहीं है; बल्कि क्षुद्र और उपेक्षित चूहे द्वारा स्वयं का वहन करवाना, यह सामर्थ्य उन परमात्मा गणपति का है। जो महागणपति एक क्षुद्र चूहे से भी यह प्रचंड कार्य करवाते हैं, फिर सच्चे मन से उन्हीं का भक्त रहने वाले मानव से भला वे क्या नहीं करवा सकते? विरुद्ध छोरों पर रहने वाली इन दो बातों (भार एवं वाहन) के अस्तित्व को एकसाथ लाकर श्रीमहागणेश ने सभी भक्तगणों को सुस्पष्ट रूप से इस बात का विश्वास दिलाया है कि हे मानव, तुम कितने भी असमर्थ और दुर्बल क्यों न हो, परन्तु यदि तुम मेरे ही हो, तो किसी भी प्रचंड भार को उठाने की ताकद तुम्हें देने के लिए मैं तैयार हूँ। लेकिन यदि तुम कहोगे कि तुमने मेरा भार उठाया है, तो तुम्हारा भार तुम्हें ही उठाना होगा।

चूहा यह बिल में रहनेवाला प्राणि है यानी श्वास-उच्छ्वास का प्रतीक है और गणपति ये विश्व के घनप्राण हैं। चूहा यह किसी भी अभेद्य कवच को कुतरने वाला प्राणि है अर्थात्‌‍ मानवी बुद्धि, सुमति पर रहने वाले षड्रिपुओं के आवरण को कुतरने वाला विवेक है और ये महागणपति बुद्धिदाता (बुद्धि देनेवाले) हैं यानी विवेक का मूल स्थान हैं। यह चूहा बहुत ही फुर्तीला होता है, लेकिन उसका आकार छोटा होता है। मनुष्य का विवेक भी ऐसा ही होता है, आकार से छोटा लेकिन बहुत ही फुर्तीला। जिस पल भक्त भक्तिपूर्ण अंत:करण से भगवान का नामस्मरण करता है, तभी इस विवेक पर ये घनप्राण, बुद्धिदाता महागणपति धीरे से आकर आरूढ़ हो जाते हैं और वही पर सभी विघ्नों का नाश होना आरंभ हो जाता है।