रामरक्षा प्रवचन - ९ | हमारे जीवन में ‘खरगोश-कछुए की दौड़’ कौनसी है?
‘नवकमलदल स्पर्धिनेत्रं प्रसन्नं’ - परमेश्वर के किसी भी रूप की प्रार्थना करते समय हमारे मन में ज़्यादातर एक ही भाव होता है - ‘संकटी रक्षी, शरण तुला मी’ यानी ‘मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ, तुम मेरी संकट से, घोर कष्टों से, अर्थात् आपत्तियों से रक्षा करो’। यह हमारा भाव रामरक्षा कैसे फलित करती है, यह सद्गुरु अनिरुद्ध बापू ६ जनवरी २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित प्रवचन में, ‘नवकमलदल स्पर्धिनेत्रं प्रसन्नं’ यह रामरक्षा के ध्यानमंत्र की अगली पंक्ति समझाते समय स्पष्ट करते हैं।
‘नवकमलदल’ - खिल रहे कमल की पँखुड़ी। प्रभु श्रीराम को ‘राजीवलोचन’ यानी ‘कमल की पँखुडी की भाँति सुंदर आँखे रहनेवाले’ ऐसे भी संबोधित किया जाता है। इस शब्द के अनुषंग से बापूजी हमें, हम आम इन्सानों की आँखें और प्रभु श्रीराम की आँखें इनमें मूलभूत फ़र्क़ क्या है, यह स्पष्ट करते हैं।
‘स्पर्धिनेत्रं’ इस शब्द में ही किसी प्रतिस्पर्धा का संकेत है। यह ‘प्रतिस्पर्धा’ (दौड़) कौनसी है और हम उसे कैसे जीत सकते हैं, यह सद्गुरु बापूजी हमें धीरे से समझाकर बताते हैं। इसके लिए, हमें बचपन से कई बार सुनाई जानेवाली ‘ख़रगोश और कछुए की दौड़’ की कहानी का रूपकात्मक उपयोग कर बापूजी इस प्रतिस्पर्धा को हमारे लिए अधिक उजागर करते हैं।
हमारे जीवन में भी ऐसी ही एक ‘ख़रगोश और कछुए की दौड़’ चालू ही रहती है, यह बताकर, उस दौड़ में ‘ख़रगोश’ कौन है और ‘कछुआ’ कौन है, वह भी बापूजी स्पष्ट करते हैं। साथ ही, दरअसल ख़रगोश की दौड़ने की क्षमता कछुए के मुक़ाबले बहुत ही ज़्यादा होने के बावजूद भी, इस कहानी का ख़रगोश कैसे प्रतियोगिता हार जाता है, इसकी याद दिलाते हैं और अन्त में यह भी रेखांकित करते हैं कि इस दौड़ के नतीजे पर ही तय होता है कि हमें प्रसन्नता मिलेगी या नहीं। उसीके साथ, इस दौड़ में हमारी सहायता कौन करता है और कैसे, यह भी बापूजी हमें बताते हैं।