रामरक्षा प्रवचन २९ | भक्ति, प्रेम तथा समर्पण का मनोहारी संगम यानी श्रीरामभक्त भरत

रामरक्षा-कवचा की ‘कण्ठं भरतवन्दित:’ यानी ‘भरतजी जिन्हें निरंतर नमस्कार करते हैं, ऐसे श्रीराम मेरे कण्ठ की रक्षा करें’ इस पंक्ति के विभिन्न पहलुओं को हमारे सामने उजागर करते हुए सद्गुरु अनिरुद्ध बापू, दि. ९ जून २००६ को किये रामरक्षा पर आधारित प्रवचन में, ‘कण्ठ’ इस शरीर के - मस्तक तथा बाकी का शरीर इन्हें जोड़नेवाले महत्त्वपूर्ण अंग पर विवेचन कर रहे हैं।
इस पंक्ति का महत्त्व बताते हुए सद्गुरु बापू कहते हैं कि ‘अध्यात्म का डर प्रतीत होनेवाले और इसीलिए अध्यात्म से डरकर दूर ही रहनेवाले सीधेसादे इन्सानों को पुन: भक्तिमार्ग पर ले आने की प्रतिज्ञा किये हुए बुधकौशिक ऋषि ने हमें दी हुई यह सुंदर पंक्ति है। शरीरक्रियाओं का संचालन करनेवाला मस्तिष्क जिसमें स्थित है वह मस्तक अर्थात् राजा और उस मस्तिष्क ने दिये हुए संदेश के अनुसार काम करनेवाला शरीर अर्थात् प्रजा, इन्हें जोड़नेवाली कड़ी यानी गर्दन, गला यानी कण्ठ; साथ ही, उस मस्तक को उचित कोन में मोड़नेवाला भाग यानी कण्ठ। इसी कारण कण्ठ को अनन्यसाधारण महत्त्व है।’
यहाँ कण्ठ की रक्षा करने की प्रार्थना - ‘भरतजी जिन्हें निरंतर नमस्कार करते हैं ऐसे’ श्रीराम को क्यों की है, यह समझने के लिए पहले भरतजी को ठीक से समझ लेना आवश्यक है, ऐसा सद्गुरु बापू बताते हैं।
उस अनुषंग से, भरतजी का श्रीराम के प्रति रहनेवाला भाव समझाते समय वे ‘क्षितिज’ इस संकल्पना की याद दिलाते हैं। हमारी दृष्टि जहाँ तक जाती है, वह सबसे दूर तक का भाग यानी ‘क्षितिज’। लेकिन ‘क्षितिज’ यह केवल कल्पना होकर वह आभासी होती है। इस कारण, अगर उसपर से अनुमान लगाये, तो वे ग़लत ही साबित होते हैं, यह हमें, वास्तविकता का भान कभी भी न छोड़नेवाले भरतजी कैसे सीखाते हैं, यह सद्गुरु अनिरुद्ध यहाँ विभिन्न उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट करते हैं। साथ ही, भरतजी ने किये हुए, इस विश्व के पहले पादुकापूजन के सर्वोच्च महत्त्व को भी वे विशद करते हैं। अन्त में, लक्ष्मणजी ये ‘महाशेष’ होने के कारण हमारी पहुँच के बाहर हैं, लेकिन भरतजी ये अनुकरण के हिसाब से हमारी ‘पहुँच में आ सकनेवाले’ हैं, यह भी वे अनुरोधपूर्वक बताते हैं।
