रामरक्षा ३० | निर्गुण भगवान की सगुण आराधना : रामप्रिय भरतजी की प्रेमोपासना अर्थात् वंदनभक्ति

रामरक्षा ३० | निर्गुण भगवान की सगुण आराधना : रामप्रिय भरतजी की प्रेमोपासना अर्थात् वंदनभक्ति

 

रामरक्षा-कवच की - ‘कण्ठं भरतवन्दित:’ अर्थात् ‘भरतजी जिन्हें निरंतर वंदन करते हैं, ऐसे श्रीराम मेरे कण्ठ की रक्षा करें’ इस पंक्ति के, अर्थात् भरतजी की स्वभावविशेषता के कुछ और पहलुओं को, सद्गुरु अनिरुद्ध बापू, दि. १६ जून २००६ को किये रामरक्षा पर आधारित प्रवचन में उजागर कर रहे हैं।

 

‘मायामनुष्यं हरि’ श्रीराम पर प्राणों से भी अधिक प्रेम रहनेवाले भरतजी का भक्तजीवन में होनेवाला यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान विशद करते समय सद्गुरु अनिरुद्ध बताते हैं कि कण्ठ अर्थात् गर्दन यह जिस प्रकार सिर एवं बाक़ी का शरीर इन्हें जोड़नेवाली कड़ी है, वही काम भक्त और भगवान के मामले में भरतजी का है। वह कैसे है, यह सद्गुरु बापू यहाँ विभिन्न उदाहरणों के आधार पर समझाकर बताते हैं।

 

हम सीधेसादे भक्तों को ‘निर्गुण निराकार परमेश्वर’ वगैरा कुछ समझता नहीं है; फिर जो ‘दिखते’ नहीं, जो ‘समझते’ नहीं, ऐसे परमेश्वर की भक्ति हम करें भी, तो कैसे? उनसे अनुसंधान स्थापित करें भी, तो कैसे? सद्गुरु अनिरुद्धजी बताते हैं कि ऐसी स्थिति में, ‘भक्ति में रत’ होनेवाले भरतजी हमारे काम आते हैं। वे कैसे, यह स्पष्ट करते समय ही वे दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित करते हैं कि प्रतिकोपासना का मार्ग भक्तों के लिए खुला कर देनेवाले भरतजी का अनुसरण, यही सर्वसामान्य भक्त के लिए परमात्मप्राप्ति का सबसे श्रेयस्कर मार्ग है।

 

वंदनभक्ति का महत्त्व अंकित करते समय सद्गुरु अनिरुद्ध बापू हमें, रावण तथा बिभीषणजी के बीच का फ़र्क़ समझाकर बताते हैं। वंदनभक्ति से, अन्यथा असंभव प्रतीत होनेवालीं चीज़ें भी कैसे संभव हो सकती हैं, वह सद्गुरु बापू इन दोनों के उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं और अन्त में वे यह भी बताते हैं कि भरतजी ही ‘वंदनभक्ति के आचार्य’ हैं।