सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ७

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संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३९२ और १३९३।
सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३९२ इस अग्रलेख में लिखते हैं,
मणिद्वीप-सिंहासनारूढ़ आदिमाता के मुख से मधुराभक्ति की महिमा और उसकी वृद्धि के लिए त्रेतायुग और द्वापारयुग में होने वाले परशुराम, श्रीराम और श्रीकृष्ण ये तीन अवतार इनका रहस्य सुनकर वहाँ के सभी उपस्थित प्रभावित हो गये थे।

ब्रह्मर्षि कत और ब्रह्मवादिनी कान्ति ये साक्षात् आदिमाता को ही जन्म देने वाले हैं और ब्रह्मर्षि कात्यायन और ब्रह्मवादिनी कृति ये श्रीराम और श्रीकृष्ण को जन्म देने वाले हैं, यह सुनते ही वहाँ के सभी ने इन चारों के इर्दगिर्द इकट्ठा होकर अपना आनन्द प्रकट करना शुरू किया।
संपूर्ण कैलाश पर आनन्द और उत्साह का ज्वार आया था। हमें क्या क्या प्राप्त हो रहा है, क्या क्या देखने और अनुभव करने मिल रहा है, यह जानकर सारे ऋषिवर और शिवगण भी ‘अंबज्ञ अंबज्ञ' एवं ‘धन्य धन्य' ऐसे उद्गार निकालने लगे
और शिवगणों के मन की अंबज्ञता तो इतनी तीव्र होने लगी और बढ़ती ही चली गयी कि उस अंबज्ञ भावना ने एक शुभ्रधवल इष्टिका (ईंट) का रूप धारण कर लिया।
सारे शिवगणों के, प्रत्येक के हाथ में एक एक शुभ्रधवल इष्टिका थी। उनमें से किसी की भी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वे अचंभित होकर शिव-ऋषि तुम्बरु की तरफ देखने लगे।
शिव-ऋषि तुम्बरु ने आदिमाता से अनुज्ञा लेकर बहुत ही प्रेमलता से सारे शिवगणों को बताया, “हे शिवगणों! तुम्हारे मन की अंबज्ञता स्थूल रूप में इस इष्टिका के रूप में प्रकट हुई है। इस इष्टिका को तुम्हारे माथे पर बड़े प्यार से धारण करो।”

परन्तु शिव-ऋषि तुम्बरु की भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि इस इष्टिका का क्या करें और यह जानकर छठी नवदुर्गा भगवती कात्यायनी आगे बढ़ी और आदिमाता को प्रणाम करके उन सारे शिवगणों को संबोधित करते हुए उसने कहा, “हे प्रिय वत्सों! तुम्हारे हाथ की यह इष्टिका यह मधुराभक्ति की प्राप्ति के कारण निर्माण हुई अंबज्ञता का रूप है और इस मधुराभक्ति का मूल स्रोत यह आदिमाता चण्डिका ही है और हम सबकी अंबज्ञता यह आदिमाता के मन की दत्तगुरु के प्रति रहने वाली दत्तज्ञता में से ही (संदर्भ- मातृवात्सल्य उपनिषद्) प्रकट हुई है।
अत एव हे श्रद्धावानों! तुम सब अपने अपने हाथ की इस शुभ्रधवल इष्टिका को, आदिमाता ने अपना जो दाहिना चरण नीचे पसारा है, उसके नीचे के जल पर उसके चरणपीठ के रूप में अर्पण कर दो।”
भगवती कात्यायनी के इन शब्दों को सुनते ही सारे शिवगण अपनी अपनी इष्टिका को माथे पर उठाकर दौड़ते हुए आदिमाता के चरणों के पास आकर उन इष्टिकाओं को अर्पण करने लगे।
वे सारी इष्टिकाएँ एकत्रित होकर अपने आप एक ही इष्टिका आदिमाता के दाहिने चरण के नीचे तैरते हुए दिखायी देने लगी - परन्तु अब उस एकमात्र अंबज्ञता इष्टिका का वर्ण (रंग) सिन्दूरी रंग का था।
अब शृंगीप्रसाद और भृंगीप्रसाद अपने अपने माथे पर की इष्टिका लेकर आदिमाता के चरणों के पास पहुँच गये थे और वे दोनों अपने माथे पर की इष्टिका को आदिमाता के चरणों में अर्पण करने के लिए उठाने लगे। परन्तु उन दोनों के माथे पर की इष्टिकाएँ यकायक एकदम से इतनी भारी होने लगीं कि उन्हें रत्ती भर भी उठाना उन दोनों के लिए संभव नहीं हो रहा था।
शृंगीप्रसाद और भृंगीप्रसाद इन दोनों ने भी बड़ी ही व्याकुलता से अपने अष्टवर्षीय आराध्यदैवत से अर्थात् त्रिविक्रम से पूछा, “हे भगवान त्रिविक्रम! हमारे हाथों से ऐसी क्या गलती हुई है कि जिसके कारण इस इष्टिका का स्वीकार करने के लिए आदिमाता तैयार नहीं है?”
उन दोनों के इस भक्तिपूर्ण प्रश्न के साथ आदिमाता ने पुत्र त्रिविक्रम को उनके पास जाने का इशारा किया और माता की गोद में से नीचे उतर चुका वह एकमुखी भगवान त्रिविक्रम अपना बालरूप त्यागकर उन दोनों के कंधों पर हाथ रखकर खड़ा हो गया।

त्रिविक्रम का स्पर्श हो जाते ही उन दोनों के भी माथे पर की इष्टिकाएँ हलकी होने लगीं; परन्तु त्रिविक्रम ने उन दोनों को केवल नज़र के इशारे से इष्टिका अर्पण करने से मना कर दिया
और इसके साथ ही छठी नवदुर्गा कात्यायनी में से ही अन्य आठों नवदुर्गाएँ वहाँ पर प्रकट हो गयीं।
उन नौ नवदुर्गाओं ने अपने अपने सारे हाथ उन दोनों इष्टिकाओं को लगाये और इसके साथ ही उन दोनों इष्टिकाओं की मिलकर एक ही इष्टिका बन गयी
और इसके साथ ही भगवान त्रिविक्रम ने उन दोनों को उस इष्टिका को अपनी माता (आदिमाता) के चरणपीठ पर रख देने की आज्ञा दी।
अब इष्टिका हलकी हो गयी थी।
आदिमाता के चरणपीठ पर उस इष्टिका के रखे जाते ही स्वयं भगवान त्रिविक्रम ने उसे सिंदूर का चर्चन किया और फिर जब वह इष्टिका चरणपीठ पर थी तभी भगवान त्रिविक्रम ने उन नौ नवदुर्गाओं से उनके नयनों का काजल माँग लिया और उस काजल से उस इष्टिका पर आदिमाता का चेहरा रेखांकित किया
और उन नौं नवदुर्गाओं ने क्रम से अपने अपने पल्लू का एक एक हिस्सा निकालकर उस आदिमाता के मुखौटे को क्रमश: चुनरी के रूप में अर्पण कर दिया।
अब भगवान त्रिविक्रम दोनों हाथ जोड़कर अपनी माता के सामने खड़ा हो गया और उसने आँखों से ही आदिमाता की प्रार्थना की
और इसके साथ ही आदिमाता ने मुस्कुराकर बोलना शुरू किया, “आश्विन नवरात्रि में अथवा अन्य किसी भी मंगल अथवा शुभदिन में इस प्रकार से इष्टिका बनाकर उसका श्रद्धावान के द्वारा किया गया पूजन यह पुत्र त्रिविक्रम के द्वारा ठेंठ मुझ तक पहुँच जायेगा।
क्योंकि महर्षि शृंगी और महर्षि भृंगी से शृंगीप्रसाद और भृंगीप्रसाद तक का इन दोनों के द्वारा किया गया सारा कठिनतम प्रवास और उसका पुण्य इनका भार ये दोनों भी बिलकुल भी नहीं चाहते थे और वह पुण्य का भार इनकी अंबज्ञता के कारण ही इनके माथे से निकलकर इस इष्टिका में प्रविष्ट हो गया और इसी कारण ये इष्टिकाएँ इनके अपरंपार पुण्य के कारण भारी हो गयीं
और वह अपरंपार पुण्य मेरे चरणों में अर्पण हो जाते ही मेरे पुत्र के द्वारा किये गये आग्रह के अनुसार मैंने उस इष्टिका का मेरे पूजनीय स्वरूप के रूप में, पूजनप्रतीक के रूप में और साथ ही नवदुर्गा-प्रतीक के रूप में स्वीकार किया है। तथास्तु।”
यह सुनते ही त्रिविक्रम ने आदिमाता के चरणों के नीचे की उस इष्टिका को अर्थात् चण्डिकापाषाण को अपने हाथ में लेकर उसका स्वयं पूजन करना शुरू किया।

बापू आगे तुलसीपत्र - १३९३ इस अग्रलेख में लिखते हैं,
भगवान त्रिविक्रम उस भगवती-इष्टिका को अर्थात् मातृपाषाण को अपने सामने रखकर बहुत ही शान्त मन के साथ पूजन कर रहा था।
उसने क्रम से नवदुर्गाओं के मन्त्रों का जप करना शुरू किया। ‘ॐ शैलपुत्र्यै नम:' से लेकर ‘ॐ सिद्धिदात्र्यै नम:' यह कहना पूरा हो जाते ही आदिमाता ने कहा, “नवरात्रि प्रतिपदा”। फिर इसी क्रम से त्रिविक्रम के द्वारा इस तरह उच्चारण किये जाते ही आदिमाता ने “नवरात्रि द्वितीया ....... नवरात्रि नवमी' इस प्रकार से तिथियों का उच्चारण किया।
इस तरह नवरात्रि-पूजन संपन्न हो जाते ही भगवान त्रिविक्रम ने वह चण्डिका-पाषाण, नवदुर्गाओं का मूल रूप रहने वाली भक्तमाता पार्वती को बहाल कर दिया और पार्वती के हाथों में जाते ही उस मातृपाषाण का रूपान्तरण पार्वती के हाथों के कंकणों में और गले की मोहनमाला में हो गया। इस मोहनमाला में नौ तार थे।
संपूर्ण ऋषिसमुदाय और शिवगण इन्हें पता चल चुका था कि नवरात्रिपूजन वास्तविक रूप में कैसे होना चाहिए।
अब वे सारी नवदुर्गाएँ फिर एक बार छठी नवदुर्गा कात्यायनी में विलीन हो गयीं।
अब भगवान त्रिविक्रम भी शिव-ऋषि तुम्बरु के माथे पर हाथ रखकर पुन: अपने अढ़ल स्थान पर जाकर बैठ गया, अष्टवर्षीय बालक के रूप में;
और इसके साथ ही शिव-ऋषि तुम्बरु ने छठी नवदुर्गा कात्यायनी को प्रणाम करके बोलना शुरू किया, “हे आप्तजनों! इस छठी नवदुर्गा कात्यायनी के अर्थात् शाम्भवी विद्या की ग्यारहवीं और बारहवीं पायदान (कक्षाओं) की अधिष्ठात्री के यहाँ पर प्रकट हो जाने के बाद बहुत ही विलक्षण एवं अद्भुत बातें हमारे सामने आ गयीं। इसका कारण इसके (कात्यायनी के) कार्य में ही है।
भगवती नवदुर्गा कात्यायनी के प्रमुख छह कार्य माने जाते हैं।
१) यह नवदुर्गा कात्यायनी श्रद्धावानों के मन में नीति, दया, करुणा इस प्रकार की सात्त्विक भावनाओं का उदय करके, उनके शौर्य को क्रौर्य और अधर्म का रूप न आने देते हुए बलवान बनाती रहती है।
और इसी कारण चण्डिकाकुल का श्रद्धावान कितना भी शूर, पराक्रमी और विजयी बनने के बावजूद भी असुर कभी भी नहीं बनता।
२) गृहस्थीवान श्रद्धावान माता-पिता को अपने अपत्यों की सुरक्षा करने के लिए कात्यायनी उचित बुद्धि और उचित कृति की सहायता करती है।
३) नवदुर्गा कात्यायनी श्रद्धावान के मन के ‘अंबज्ञ'भाव को बढ़ाती रहती है और उसके द्वारा उसका सद्गुरु त्रिविक्रम के साथ रहने वाला रिश्ता अधिक से अधिक दृढ़ होता रहता है।
४) नवदुर्गा कात्यायनी श्रद्धावानों के घर में शान्ति और सौख्य रहे, ऐसी कृपा करती है।
५) नवदुर्गा कात्यायनी श्रद्धावानों को उनके हितशत्रुओं से परिचित कराती है
और
६) यही नवदुर्गा कात्यायनी चण्डिकाकुल के भक्तों के शत्रु प्रबल होने लगते ही निर्विकल्प समाधि में स्वयं स्थिर होकर,
सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि का आवाहन करती है।”
इतना कहकर शिव-ऋषि तुम्बरु ने भगवती कात्यायनी के चरणों में मस्तक रखकर ‘मुझे सदैव अंबज्ञ रखना' इस प्रकार से कृपायाचना की
और
इसी के साथ भगवती कात्यायनी अदृश्य हो गयी और यकायक सर्वत्र घनघोर अँधेरा छा गया।
स्वयं आदिमाता ने भी उस अँधेरे के पीछे स्वयं के तेज को छिपा दिया था
और उपस्थित सभी ऋषिवर तथा शिवगण अत्यधिक उत्सुकता से - आगे क्या होनेवाला है, हमें क्या देखने मिलनेवाला है और हम कितने भाग्यशाली हैं, इन विचारों से आनंद में खो गये थे
और अचानक इस आसपास फैले अँधेरे में लाखों विद्युत्-शलाकाएँ चमकने लगीं और धीरे धीरे कडकड़ाने लगीं
और एक पल उन विद्युत्-लताओं के प्रकाश में सातवी नवदुर्गा ‘कालरात्रि' सुस्पष्ट रूप से दिखायी देने लगी।
नवदुर्गा कालरात्रि अँधेरे से भी हजारों गुना अधिक काली होने के कारण, वह अँधेरे में भी स्पष्ट रूप से दिखायी दे रही थी।
इसके तीन नेत्र थे और ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के आकार के थे।
भगवती कालरात्रि की इन तीनों आँखों से विलक्षण दाहक तेज बाहर फेंका जा रहा था। परन्तु वहाँ पर के किसी भी उपस्थित को उस तेज का स्पर्श तक नहीं हो रहा था।
भगवती कालरात्रि के दोनों नासापुटों में से प्रखर अग्नि की लपटें सर्वत्र तीर के समान फेंकी जा रही थी। परन्तु उसमें से एक का भी स्पर्श श्रद्धावानों को नहीं हो रहा था।
भगवती कालरात्रि की गले में बिजली की मालाएँ थीं।
भगवती कालरात्रि चतुर्हस्ता (चार हाथों वाली) थीं। उसके दाहिने दो हाथ ‘अभय' और ‘वरद' मुद्रा में थे। उसकी बाँयीं तरफ़ वाले ऊपर के हाथ में लोहे का ‘कंटकास्त्र' था और नीचे के हाथ में खड्ग और कट्यार का समन्वय रहनेवाली ‘चांद्रतलवार' थी।
भगवती कालरात्रि एक प्रचंड और ख़ूँख़ार गर्दभ (गधा) पर बैठी हुई थी।
इस प्रकार से अत्यधिक भयकारी स्वरूप रहनेवाली इस सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि के प्रकट हो जाते ही सभी ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनियाँ अत्यधिक आनंद से नाचने-गाने लगे
और एकस्वर में ‘जय जय शुभंकरी कालरात्रि' इस प्रकार से उसका गुणगान करने लगे।
एक भी श्रद्धावान को उसके (कालरात्रि के) रूप से थोड़ा सा भी डर नहीं लग रहा था।
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(सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध द्वारा प्रतिपादित नवरात्रिपूजन का विधिविधान अर्थात् नवरात्रि में किया जानेवाला अंबज्ञ इष्टिका पूजन मेरे ब्लॉग पर गुरुवार दि. १४ सितंबर २०१७ को प्रसारित किया गया है। उसकी लिंक यहाँ पर दे रहा हूँ - https://sadguruaniruddhabapu.com/post/navaratri-poojan-ashwin-marathi &
https://sadguruaniruddhabapu.com/post/navaratri-pujan-ashwin-hindi )