सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ६

सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ६

Previoust  Article 

मराठी

संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३९० और १३९१।

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३९० इस अग्रलेख में लिखते हैं

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा जब बोल रही थी, तभी ब्रह्मर्षि कात्यायन की पत्नी महामति ‘कृति' (जिस तरह ‘राजर्षि' को समांतर ‘राजयोगिनी', उसी तरह ‘महर्षि' को समांतर ‘महामति') वहाँ पर दौड़ते हुए आ गयी। वह अपनी तपस्या में से उठकर आयी थी।

वह सिर्फ अपनी लाड़ली बेटी को देखना चाहती थी; क्योंकि प्रतिदिन उसे देखना कृति के लिए संभव नहीं था - क्योंकि वह ‘ब्रह्मवादिनी' नहीं थी।

कृति की उत्सुकता देखकर ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने मुस्कुराकर कहा, “देखो! कैलाश पर अब तक इतनी सारी घटनाएँ घटित हुईं, नवदुर्गा के पाँच रूप भी प्रकट हुए; परन्तु इससे भी इस महामति कृति ने अपनी तपस्या नहीं त्यागी।

परन्तु उसकी इकलौती लाड़ली बेटी नवदुर्गा कात्यायनी यहाँ पर आयी है, इस घटना ने महामति कृति को तपश्चर्या में से जागृत किया।

हे महर्षिजनों! मैं तुम से एक प्रश्न पूछती हूँ - इस प्रकार से अपनी गृहस्थी के लिए तपस्या भंग कर यहाँ पर आयी यह महामति कृति क्या अब ‘ब्रह्मवादिनी' बन सकेगी?

क्योंकि इस तपस्या के कारण ही वह ब्रह्मवादिनी बन सकने वाली थी और यह तो साक्षात्‌‍ आदिमाता और त्रिविक्रम की ही योजना थी।”

 मणिद्वीपनिवासिनी आदिमाता जगदंबा और स्वयंभगवान श्रीत्रिविक्रम 

वहाँ पर उपस्थित सभी यह प्रश्न सुनकर उलझन में पड़ गये। किसी को भी इस प्रश्न का उचित उत्तर नहीं सूझ रहा था

और यह देखकर ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने कहा, “हे वत्सों! इसका उत्तर हमें जल्द ही मिलेगा। हम थोड़ी प्रतीक्षा करते हैं।”

वहीं, महामति कृति को लोपामुद्रा का प्रश्न सुनायी भी नहीं दिया था। कृति बस अनिमिष नेत्रों से भगवती कात्यायनी को देख रही थी।

कृति ने हाथ भी नहीं जोड़े थे।

कृति बेटी को गले लगाने के लिए आगे बढ़ भी नहीं रही थी।

कृति अपनी बेटी से कुछ बोल भी नहीं रही थी।

वहीं, कृति के चेहरे पर अत्यधिक सन्तोष झलक रहा था

और ठीक उसी समय भगवती कात्यायनी ने बालरूप धारण किया और वह सिंह से छलाँग लगाकर उतर गयी और दौड़ते हुए जाकर उसने अपनी मानवी माता को - कृति को बाहों में भर लिया।

अब कृति ने बालकात्यायनी को कसकर गले लगाया और वह कन्या के गालों को बार बार चूमने लगी और उसके केशकलाप में से अपना हाथ फेरने लगी।

बालकात्यायनी भी ‘अंब! अंब!' (मेरी माँ, मेरी माँ) ऐसा बार बार कहते हुए माता की बाहों में अत्यधिक तृप्ति के साथ विश्रान्त हुई थी।

परन्तु एक पल महामति कृति की आँखों से केवल दो ही आँसू टपक गये और उन्हें तुरंत बालकात्यायनी ने अपने माथे पर ले लिया।

उसके बाद अगले ही पल में राजर्षि शशिभूषण के जीवन में कुछ देर पहले जिस तरह घटित हुआ था और वह ब्रह्मर्षि बन गया था, लगभग उसी तरह से घटित हो रहा था।

उपस्थित ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनियों ने तालियों की कड़कड़ाहट करके इस अतुलनीय माता-कन्या की जोड़ी पर पुष्पवर्षाव करना आरंभ किया

और भगवान त्रिविक्रम ने घोषित किया, “हे कृति! तुम जो तपस्या कर रही थी, वह तुम्हारे इस पल के आचरण के सामने बहुत ही क्षुद्र है

और इसी लिए तुम स्व-अधिकार से और आदिमाता की कृपा से ब्रह्मवादिनी बन गयी हो।”

उसी पल नवब्रह्मवादिनी कृति के मस्तक को कन्या कात्यायनी ने चूम लिया।

उसी पल बालरूप में रहनेवाली कात्यायनी अर्थात्‌‍ कन्या कात्यायनी अपने भगवती रूप में सिंहारूढ़ (सिंह पर विराजमान) दिखायी देने लगी

और नवब्रह्मवादिनी कृति सभान होकर दोनों हाथ जोड़कर छठी नवदुर्गा कात्यायनी का स्तोत्र गाने लगी।

इस सर्वांगसुंदर उत्सव को देखनेवाले सभी उपस्थितों को ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने सभान किया और उसने बोलना आरंभ किया, “शांभवी विद्या की ग्यारहवीं और बारहवीं पायदान (कक्षाओं) पर, नौवीं और दसवीं पायदान पर असुरमुक्त कर चुके अपने मन में रहनेवाले वत्सलता, प्रेम, अनुकंपा, सहानुभूति, दया, करुणा और बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की सहायता करने की कृति इन गुणों को चालना देनी होती है, उनका वर्धन करना होता है और ये सारे तत्त्व अपने जीवन का सहज-अंग बन जाये, इसलिए तपस्या का आचरण करना होता है।

दूसरों के मन को बिना वजह दुखाना, दूसरेों के प्रति सहानुभूति न होना, दया और करुणा से युक्त कृति करना संभव होते हुए भी उस प्रकार का आचरण न करना इन बातों का हमेशा के लिए संपूर्णत: त्याग करना पडता है

और यह सब करवानेवाली आदिमाता की शक्ति है छठी नवदुर्गा कात्यायनी

और इसी लिए उसने एक पवित्र, परन्तु सर्वसामान्य स्त्री की कोख से जन्म लिया - जिसका नाम ही कृति है।

यह छठी नवदुर्गा कात्यायनी यह ब्रह्मवादिनी कृति की कन्या है।

हाँ! कात्यायनी के जन्म के समय भी कृति ब्रह्मवादिनी ही थी।

ब्रह्मर्षि कात्यायन की तपस्या में पूरक बनने के लिए - अर्थात्‌‍ ‘उसकी कोख से कन्या के रूप में भगवती जन्म लें' इसलिए उसने अपना ब्रह्मवादिनी यह पद विसर्जित किया था।

हे समस्त जनों! पवित्र, श्रेष्ठ और उचित मातृत्व यह सबसे बड़ी तपस्या है।”

श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम् येथे नवरात्रीदरम्यान आदिमाता अनसूयेचे पूजन करताना सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू

बापू आगे तुलसीपत्र - १३९१ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा जब मातृवात्सल्य का गुणगान कर रही थी, तभी अगस्त्यपुत्र ब्रह्मर्षि कत अपनी स्नुषा (बहू) के पास अर्थात्‌‍ कृति के पास आकर खड़ा हो गया और दूसरी तरफ से कत की पत्नी ब्रह्मवादिनी कान्ति भी वहीं पर आ गयी।

ब्रह्मर्षि कत और ब्रह्मवादिनी कान्ति इन दोनों ने भी भावविभोर स्थिति में अपनी स्नुषा (बहू) को बड़े ही प्यार से समीप ले लिया। ब्रह्मवादिनी कान्ति यह ब्रह्मर्षि कश्यप की कन्या (बेटी) थी

कृति का हाथ अपने हाथ में लेकर कान्ति ने उससे कहा, “हे कन्या! मेरे केवल आठ पुत्र हुए; परन्तु एक भी कन्या नहीं हुई। इस कारण कन्यासुख की अभिलाषा मेरे मन में सदैव जागृत रही और इस लालसा के कारण ही मैं ‘महामति' से ‘ब्रह्मवादिनी' नहीं बन सकती थी और यह बात मुझे तात कश्यप और अगस्त्य इन दोनों के द्वारा बताये जाने के बाद भी, मेरा मन कन्यासुख का त्याग करने के लिए बिलकुल भी नहीं मान रहा था।

परन्तु जिस पल तुम्हारा विवाह मेरे ज्येष्ठ पुत्र कात्यायन के साथ हुआ और तुम हमारे आश्रम में विचरण करने लगी, तब से तुमने मुझे तुम्हारे प्रेमभाव से अत्यधिक कन्यासुख प्रदान किया और इस प्रकार से कन्यासुख से तृप्त हुई मैं फिर ब्रह्मवादिनी बन गयी।”

अब ब्रह्मर्षि कत बोलने लगे, “हे स्नुषा कृति! तुम सच में धन्य हो और तुमने हमारे कुल को भी धन्य कर दिया है।

हे पुत्र कात्यायन! तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की वात्सल्यभक्ति अपरंपार है। सच कहूँ तो एकमात्र अद्वितीय है। जो तुम्हारा आराध्यदैवत है, उसे ही तुमने कन्यारूप में प्राप्त कराया और उसका अपत्य के समान पालनपोषण करते समय तुम दोनों उसी की उपासना भी दृढ़ता के साथ कर रहे थे और अब भी कर रहे हो।

हे पिता अगस्त्य और कश्यप! आप सर्वश्रेष्ठ हैं, आप ज्येष्ठ हैं। आप दोनों भी यह अच्छे से जानते हैं कि वात्सल्यभक्ति ही वास्तविक मधुराभक्ति है और ऐसी इस वास्तविक मधुराभक्ति का ही प्रसार सर्वत्र होना यह तो द्वापारयुग और कलियुग की अनिवार्य आवश्यकता होती है।

इसके लिए मैं और मेरी पत्नी कुछ करना चाहते हैं। हमें कुछ उपदेश एवं आज्ञा प्रदान कीजिए।”

अब ब्रह्मर्षि अगस्त्य और ब्रह्मर्षि कश्यप अपनी अपनी धर्मपत्नियों के साथ अपने अपने अपत्यों के बाजू में आकर खड़े हो गये और उन चारों ने आदिमाता श्रीविद्या और त्रिविक्रम से यही प्रश्न पूछा।

भगवान त्रिविक्रम ने अब एकमुखी रूप धारण करके उन चारों से बड़ी ही विनम्रता एवं प्रेम से कहा,

तुम चारों का भी ज्ञान अपरंपार है और भक्ति भी।

तुम मुझसे यह प्रश्न क्यों पूछ रहे हो?”

उन चारों ने एक सुर में, एकमुख से उत्तर दिया, “क्योंकि तुम ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ मातृभक्त हो इसलिए।”

त्रिविक्रम: हाँ, हो भी सकता है! परन्तु इसका अर्थ एक ही है।

मुझमें मातृभक्ति कहाँ से और किस कारण से आयी?

क्योंकि वास्तविक सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोच्च वात्सल्यभक्ति मेरी माता में ही है।

मेरे प्रति उसे जितना अकृत्रिम प्रेम है, उतना ही प्रेम उसे हर एक सच्चे श्रद्धावान के प्रति भी है और इसी लिए मेरी आदिमाता चण्डिका ही वात्सल्यभक्ति का यानी वास्तविक मधुराभक्ति का एकमात्र और मूल स्रोत है और जब शिवपत्नी पार्वती ने ‘स्कन्दमाता' रूप में उस स्रोत को संपूर्णत: प्राशन कर लिया, उसी समय स्कन्दमाता से ‘कात्यायनी' इस छठी नवदुर्गा का प्रकटन हुआ।

हे आदिमाता! हे महिषासुरमर्दिनी! हे महादुर्गा! हे श्रीविद्या! हे अनसूया! अब तुम ही इन चारों के प्रश्न का उत्तर दो, यह मेरी तुम्हारे चरणों में विनम्र प्रार्थना है।

भगवान त्रिविक्रम के इन उद्गारों के साथ, आदिमाता के ‘अनसूया' और ‘श्रीविद्या' ये दोनों रूप एकत्रित होकर पहले सभी आयुधों से सुसज्जित होकर अष्टादशभुजा महिषासुरमर्दिनी अपने तेज से विलसित होने लगी और जिस पल भगवान त्रिविक्रम ने बालभाव से दौड़ते हुए जाकर उसका आँचल पकड़ लिया, उसी पल ‘मणिद्वीप-स्थित सिंहासन-आरूढ़ (सिंहासन पर विराजमान) अष्टादशभुजा चण्डिका प्रसन्नता एवं शांति से मुस्कुराते हुए बैठी हैं और वात्सल्यप्रेम उसकी आँखों से स्रवित हो रहा है' इस प्रकार का दृश्य दिखायी देने लगा।

 

अब भगवान एकमुख त्रिविक्रम के माथे को हाथ से उसके द्वारा स्पर्श किये जाते ही वह आठ वर्ष के बालरूप में दिखायी देने लगा और दौड़ते हुए जाकर वह उसकी गोद में बैठ गया

और उसे सहलाते हुए यह चिदग्निकुण्डसंभूता आदिमाता बोलने लगी, “हाँ! मेरे लाड़ले पुत्रों और कन्याओं!

आदिमाता ‘अष्टभुजा’

त्रेतायुग में अब जल्द ही परशुराम और श्रीराम का जन्म होगा और इन दोनों के बालरूप की उपासना अर्थात्‌‍ वास्तविक मधुराभक्ति श्रद्धावानों को आकर्षित करेगी।

परशुराम और श्रीराम के जन्मदिवस पर उन दोनों की बालमूर्ति को वत्सल उपचार अर्पण करके अर्थात्‌‍ उनका नामकरण करना, उन्हें पालने में रखना, गोदी में खिलाना, स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर पालना गीत गाना और उनकी बालमूर्तियों का अभिषेक आदि उपचारों से पूजन करना यह श्रद्धावानों को अनेक पापों से मुक्त करेगा।

उसी प्रकार से जब दुष्टबुद्धिजन परशुराम की की जानेवाली बालभक्ति को धीरे धीरे नष्ट करने की कोशिशें करेंगे; तब उस समय उस द्वापारयुग में श्रीकृष्ण जन्म लेगा और बालरूप में अनगिनत लीलाएँ, क्रीड़ाएँ और मधुर कर्म करेगा और स्वयं ही प्रेमरस बनकर रहेगा।

ऐसे इस मधुराधिपति, गोकुलनिवासी बालकृष्ण के जन्मदिवस की महिमा को मैं स्वयं उसकी भगिनी बनकर और विन्ध्यवासिनी बनकर बढाऊँगी।

कलियुग में श्रीराम का जन्मोत्सव भक्ति दृढ करने के लिए श्रद्धावानों की सहायता करेगा और हर एक श्रद्धावान, श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव को अत्यधिक प्यार और उत्साह के साथ मनाकर ‘पवित्रता ही प्रमाण है' इसका राज बतालानेवाली श्रीकृष्ण की रासलीला, उसके जन्मदिन पर ही मनाकर वास्तविक मधुराभक्ति को ठेंठ मुझसे ही प्राप्त करेगा।

हे अगस्त्य और कश्यप! ब्रह्मर्षि कात्यायन और ब्रह्मवादिनी कृति ये दोनों ही दशरथ और कौसल्या बनकर श्रीराम के माता-पिता बन जायेंगे और ये ही दोनों वसुदेव, देवकी बनकर श्रीकृष्ण के माता-पिता बन जायेंगे तथा ब्रह्मर्षि कत और ब्रह्मवादिनी कांति नंद-यशोदा बनकर मुझे ही जन्म देंगे और श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का आनंद से उपभोग लेंगे।”