सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ८

सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ८

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संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३९४ और १३९५। 

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३९४ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि के चरणों में माथा रखकर और उसे विनम्रतापूर्वक अभिवादन करके बोलने लगी, “आप्तजनों! यह सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि शांभवीविद्या की तेरहवीं और चौदहवीं पायदानों (कक्षाओं) की अधिष्ठात्री है और आश्विन शुद्ध सप्तमी के दिन और रात की नायिका है।

यह भगवती कालरात्रि भक्तों के शत्रुओं का पूर्ण रूप से विनाश करने वाली है। इसके पूजन के कारण भूत, प्रेत, राक्षस, दैत्य, दानव, तमाचारी मान्त्रिक और पापी शत्रु इस प्रकार के सबके सब एक वर्ष तक उस पूजकभक्त के आसपास भटक तक नहीं सकते।”

सभी शिवगण उलझन में पड़कर एक-दूसरे की ओर देखने लगे, “हम तो पिशाचमय ही हैं। परन्तु हमें इससे डर प्रतीत होने के बजाय इसके प्रति अत्यधिक प्रेम ही प्रतीत हो रहा है।”

लोपामुद्रा ने मुस्कुराकर कहा, “यह है ही ऐसी और तुम भी ‘शिवगण' हो, केवल पिशाच नहीं हो और अब तो तुम्हारा रूप भी बदल गया है।”

सारा ऋषिसमुदाय खड़ा रहकर लोपामुद्रा से विनति करने लगा, “हमें वन-काननों में से, जंगलों में से, घने अरण्यों में से, अनेक श्मशानघाटों पर से, प्रचंड नरसंहार हुई प्राचीन युद्धभूमियों पर से एकाकी प्रवास करना पड़ता है और इसका गुणवर्णन सुनकर हमें इस नवदुर्गा कालरात्रि के चरणों पर माथा रखने की इच्छा हो रही है। क्या हमें वैसी अनुज्ञा मिलेगी?”

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने प्रश्नार्थक नज़र से भगवान त्रिविक्रम की ओर देखा और इसके साथ ही अपनी माता से अनुज्ञा लेकर भगवान त्रिविक्रम फिर एक बार अपने एकमुखी रूप में उन सबमें आ गया और उसने ब्रह्मवादिनी अरुन्धती से लोपामुद्रा के हाथों को अपने हाथों में लेकर सबको दिखाने के लिए कहा और लोपामुद्रा के मस्तक पर का वस्त्र दूर करके उसके माथे का प्रदेश दिखाने के लिए कहा।

अरुन्धती के द्वारा वैसा किया जाते ही सारे महर्षि, ऋषिवर और ऋषिकुमार अत्यधिक अचंभित एवं थोड़े से भयभीत भी हो गये।

क्योंकि ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के माथे को एवं हाथों को जहाँ जहाँ भगवती कालरात्रि के चरणों का स्पर्श हुआ था, वहाँ से अनेक विद्युत्‌‍-शलाकाएँ लोपामुद्रा के सहस्रारचक्र में प्रविष्ट होकर खेल खेल रही थीं और उसके हाथों में से अग्नि की बड़ी बड़ी लपटें उसके शरीर की सबकी सब ७२,००० नाड़ियों में प्रविष्ट होकर आनन्द-नृत्य कर रही थीं।

यह देखते ही महर्षि भी भयभीत हो गये और वह देखकर भगवान त्रिविक्रम ने कहा, “यह कालरात्रि है ही वैसी। ये ज्वालाएँ और विद्युत्‌‍-शलाकाएँ ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा को किसी भी प्रकार की रुजा अथवा पीड़ा नहीं दे रही हैं; बल्कि इन विद्युल्लताओं और ज्वालाओं के कारण ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के सहस्रार की सभी सिद्धियाँ जागृत हो रही हैं और उसके देह के सबके सब अर्थात्‌‍ १०८ शक्तिकेन्द्र मानो पवित्र यज्ञकुंड ही बन गये हैं

और ऐसे इस तेज को धारण करना सामान्य मानव के लिए तो क्या, बल्कि महर्षियों के लिए भी संभव नहीं है।

आठवीं नवदुर्गा महागौरी का रूप चाहे कितना भी शांत और प्रसन्न क्यों न हो, परन्तु फिर भी उसके चरणों के प्रत्यक्ष स्पर्श से मानवी देह के सभी के सभी १०८ शक्तिकेंद्र अत्यंत शीत एवं शांत हो जाते हैं और ७२,००० नाड़ियों में से चांद्रतेज जलप्रवाह के समान बहने लगता है और उस अत्यधिक शीतता को भी सामान्य श्रद्धावान और महर्षि भी सह नहीं सकते।

नौंवीं नवदुर्गा सिद्धिदात्री का वदन अत्यंत प्रसन्न वदन है। परन्तु उसका मणिद्वीपमाता के साथ एकरूपत्व है।

इन सभी बातों के कारण इन तीनों की प्रतिमा का पूजन करना भले ही आसान हो, परन्तु उनके प्रत्यक्ष रूपों का ध्यान करना महर्षियों के लिए भी संभव नहीं होता।

परन्तु इन तीनों के प्रत्यक्ष पूजन और प्रत्यक्ष ध्यान के सारे के सारे लाभ आश्विन शुद्ध नवरात्रि की पंचमी के दिन माता ‘ललिताम्बिका' का पूजन करने से आसानी से प्राप्त होते हैं।

क्योंकि पंचमी की नायिका स्कन्दमाता है और ललिताम्बिका सभी श्रद्धावानों की प्रत्यक्ष पितामही ही है।

ये आदिमाता ‘ललिताम्बिका' स्वरूप में सदा ललितापंचमी के दिन ही प्रकट होती है और उस समय कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री ये उनकी प्रमुख सेनापति होती हैैं।

ललितापंचमी के पूजन का वर्णन करने के लिए मुझे भी कई दिनों का समय लग जायेगा।”

इतना कहकर भगवान त्रिविक्रम ने कालरात्रि और आदिमाता को प्रणाम किया

श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम् में श्रीआदिमाता महिषासुरमर्दिनी के दर्शन करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू

और उसी के साथ सभी की सभी नौ नवदुर्गा, दशमहाविद्या, सप्तमातृका, ६४ करोड़ चामुण्डा वहाँ पर उपस्थित हो गयीं

और फिर वे सभी एक के बाद एक करके आदिमाता महिषासुरमर्दिनी के रोम रोम में प्रविष्ट हो गयीं

और इसी के साथ मणिद्वीपनिवासिनी आदिमाता की तीसरी आँख से एक ही समय पर प्रखर एवं सौम्य रहनेवाला ऐसा अपूर्व तेज सर्वत्र फैलने लगा

और उसी के साथ आदिमाता के मूल रूप के स्थान पर उसका ललिताम्बिका स्वरूप दिखायी देने लगा।

ललिताम्बिका ने प्रकट हो जाते ही सभी को अभयवचन दिया, “जो नवरात्रि के अन्य दिनों में नवरात्रिपूजन कर सकता है और जो नवरात्रि के अन्य दिनों में नवरात्रिपूजन नहीं कर सकता, ऐसे सभी के लिए ललितापंचमी के दिन मेरे महिषासुरमर्दिनी स्वरूप का मेरे लाडले बेटे के साथ किया गया पूजन यह नवरात्रि-पूजन का संपूर्ण फल उस उस व्यक्ति के भाव के अनुसार दे सकता है

और कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री इन तीनों के चरणों में माथा रखने से प्राप्त होनेवाले लाभ, अत्यंत सौम्य रूप में ललितापंचमी के दिन केवल मुझे और त्रिविक्रम को बिल्वदल (बेल के पत्तेे) अर्पण करने से प्राप्त होते हैं।

क्योंकि तुमने अभी अभी देखा है कि सभी नवदुर्गा, सभी सप्तमातृका, मेरे सभी अवतार और ६४ करोड़ चामुण्डा मुझमें ही निवास करती हैं।”

सप्तमातृका, जिनके पूजन के संदर्भ में सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू ने गुरुवार दि. २४ अक्तूबर २०१३ के प्रवचन में जानकारी दी ।  

बापू आगे तुलसीपत्र - १३९५ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों ने बड़े ही प्यार एवं सम्मान के साथ ललिताम्बिका का ‘ललिताष्टक स्तोत्र' सामवेदीय पद्धति से गाना शुरू किया और इसके साथ ही ललिताम्बिका स्वरूप मणिद्वीपवासिनी रूप में पुन: विलीन हो गया

और इसके साथ ही वह मणिद्वीपवासिनी आदिमाता भी अदृश्य होकर अष्टादशभुजा अनसूया और श्रीविद्या इन दो रूपों में ही पहले की तरह दिखायी देने लगी।

अब ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने आगे बढ़कर ‘कालरात्रिं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्‌‍' इस मन्त्र का जाप करना शुरू किया और उसके साथ ही सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि अपने सदा के स्वरूप में, परन्तु सौम्य तेज से युक्त इस प्रकार से साकार हो गयी।

लोपामुद्रा ने उसे प्रणाम करके बोलना शुरू किया, ‘'हे आप्तजनों! शांभवीविद्या की तेरहवीं और चौदहवीं पायदान (कक्षा) पर अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति के आड़े आने वाले सभी शत्रुओं का विनाश करना प्रत्येक साधक के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है। क्योंकि ऐसा न करने से पवित्रता का ही विरोध रहने वाले असुर और आसुरी प्रवृत्ति वाले मानव उस साधक के अगले प्रवास को कठिन बना देते हैं

और इसी लिए सभी षड्रिपुओं को त्याग चुके साधक को, तपस्वी को अब पराक्रमी एवं शूर इस प्रकार के वीर व्यक्ति के रूप में कार्य करना पड़ता है

और इसी लिए यह सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि बहुत ही दक्ष रहती है।

क्योंकि पार्वती ने भी अपनी जीवनरूपी तपश्चर्या में स्कन्दमाता और कात्यायनी इन दो कक्षाओं को पार करने के बाद कभी परमशिव के कंधे से कंधा मिलाकर और अनेक बार स्वयं अकेले भी अक्षरश: सहस्रों असुरों के विरुद्ध युद्ध किया है और उस प्रत्येक असुर को उसने निश्चित रूप से ही मार डाला है

और उस समय उसका युद्धभूमि पर प्रकट होने वाला स्वरूप है सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि - जो अपने अपत्यों की सुरक्षा करने के लिए सदैव युद्ध करने को तैयार रहती है।

हे प्रिय आप्तजनों! ध्यान से देखो। इसकी चान्द्रतलवार की भी हर एक बाजू में एक एक आँख है

जब जब इसका सच्चा श्रद्धावान भक्त अपनी भक्तिसाधना में प्रगति करता है, तब उसकी गृहस्थी अथवा अध्यात्म पर हमला करने के लिए आने वाले हर एक पर भगवती कालरात्रि की आँखें ताकी हुई रहती हैं और उचित समय पर यह कालरात्रि अपनी चान्द्रतलवार उस दुष्ट व्यक्ति पर अथवा असुर पर फेंकती है - अपने स्थान से बिलकुल भी न हिलते हुए

क्योंकि उसकी चान्द्रतलवार की दोनों आँखें इस तलवार को उचित मार्गदर्शन करती हैं और वह असुर चाहे कहीं पर भी छिपकर क्यों न बैठा हो, परन्तु तब भी उसके चारों ओर की सभी संरक्षक दीवारों और रुकावटों को छेदकर यह चान्द्रतलवार उस श्रद्धावान के शत्रु का विनाश कराती है।

अब इसके हाथ में रहनेवाले कंटकास्त्र की ओर देखो। इसे सात कंटक (काँटें) हैं। इनमें से छह कंटक छहों लोकों में से, पवित्रता के सूक्ष्म से अति सूक्ष्म शत्रुओं अर्थात्‌‍ असुरों और दैत्यों का प्रभाव नष्ट करते हैं।

दर असल आज तक कभी भी छठे कंटक का इस्तेमाल ही नहीं किया गया है। क्योंकि छठे लोक में असुर कभी भी प्रवेश नहीं कर पाये हैं

और साँतवे लोक में आसुरी वृत्तियों को प्रवेश प्राप्त हो, यह तो संभव ही नहीं है।

फिर इस साँतवे कंटक का कार्य क्या है?

यह साँतवा कंटक यह, तेरहवीं और चौदहवीं पायदान (कक्षा) पर स्थित शांभवीविद्या का साधक, जो भी कुछ अपने अंत:करण पर अंकित करना चाहता है - भाव, शब्द, ध्यान, चित्र, प्रसंग, अनुभव, स्तोत्र, मंत्र, नाम - उन सभी को अंकित करने के लिए, भगवती कालरात्रि से प्राप्त होनेवाला सर्वोच्च लेखन-साधन है

आदिमाता महिषासुरमर्दिनी और श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम् में
स्थित धर्मासन पर विराजमान सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू 

और जब यह सातवाँ कंटक श्रद्धावान को प्राप्त होता है, तब स्वयं भगवान त्रिविक्रम, साधक के द्वारा उसकी इच्छानुसार वह जो कुछ लिखना चाहता है, उसके बाद उस साधक को शांभवीविद्या का मंत्र स्वयं प्रदान करता है

और यहाँ पर, माता कालरात्रि महागौरी रूप धारण कर उस श्रद्धावान साधक का शांभवीछात्र के रूप में स्वीकार करती है।

हे गौतम और अहल्या, आओ! तुम्हारा स्वागत है। तुम यहाँ तक सब कुछ सीख कर ही आये हो।”

सभी ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनियों ने अन्य सभी उपस्थितों के साथ खड़े होकर गौतम-अहल्या का प्रेमपूर्वक स्वागत किया

और लोपामुद्रा ने आगे बोलना आरंभ किया, “कालरात्रि के उग्र होते हुए भी अत्यधिक सात्त्विक प्रेम से भरे हुए रूप से आठवी नवदुर्गा महागौरी की ओर जाना यह अत्यधिक उग्र और दाहक तेज से अत्यधिक सौम्य, शीत तेज तक का प्रवास है

अर्थात्‌‍ विश्व के दो ध्रुवों का ज्ञान।”

अब सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि ही धीरे धीरे आठवीं नवदुर्गा महागौरी बनने लगी।

गौतम और अहल्या भगवती कालरात्रि का स्तवन करके अत्यधिक प्यार से उससे बिदा ले रहे थे।

परन्तु भगवती कालरात्रि ने अपने अंगुष्ठमात्र स्वरूप को ब्रह्मर्षि गौतम के हृदय में स्थापित किया