सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ११

संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १४०० और १४०१।
सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १४०० इस अग्रलेख में लिखते हैं,
ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों के साथ आदिमाता के श्रीविद्यारूप को प्रणाम किया और वे सभी लोपामुद्रा के नेतृत्व में आदिमाता श्रीविद्या के सामने ‘ध्यान करने' बैठ गये।
उन सब की तरफ अन्य सभी उपस्थित ध्यान से देख रहे थे।
उन सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों के चेहरों पर धीरे धीरे एक अत्यन्त आह्लाददायक, शान्तिरसपूर्ण एवं प्रसन्न भाव विलसित होने लगा और यह भाव बढ़ता ही चला जा रहा था।

सिर्फ अकेली लोपामुद्रा का चेहरा पूरी तरह स्तब्ध एवं शान्त ही था। उसके चेहरे पर इस तरह का प्रसन्न भाव भी नहीं था और अप्रसन्नता भी नहीं थी और यह देखकर सभी उपस्थित अधिक जिज्ञासु बनते जा रहे थे।
भगवान त्रिविक्रम ने अब ‘ॐ नमश्चण्डिकायै' इस मन्त्र का जाप करना शुरू किया और ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के मस्तक पर अपना वरदहस्त रख दिया।
इसके साथ ही लोपामुद्रा के चेहरे पर भी उसी तरह का आह्लाददायक, शान्तिरसपूर्ण एवं प्रसन्न भाव खिलने लगा
और ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के होंठ एक-दूसरे से अलग हो गये और वह स्वयं भी ‘ॐ नमश्चण्डिकायै' यह जाप करने लगी
और इसके साथ ही अन्य सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों ने अपनी अपनी आँखें खोल दीं।
परन्तु ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा की आँखें अब भी बंद ही थीं और उसके द्वारा ऊँची आवाज़ में मन्त्रोच्चारण किये जाने के बावजूद भी, वह अब भी ‘ध्यान में ही' है, यह बात हर एक की साफ साफ समझ में आ रही थी।
लोपामुद्रा के मस्तक पर का भगवान त्रिविक्रम का वरदहस्त उसके बालों से अब अलग हो जाते ही ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा पद्मासन में से उठकर खड़ी हो गयी और उसने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये, मग़र इसके बावजूद भी अब भी वह पूरी तरह ‘ध्यान में ही' थी।
इस समय का लोपामुद्रा का चेहरा सिर्फ आनन्द दर्शा रहा था, मानो आनन्द के विभिन्न रंग, विभिन्न स्रोत, विभिन्न प्रवाह, विभिन्न अर्णव उसके एक चेहरे पर आनन्द के साथ वास्तव्य कर रहे थे।
भगवान त्रिविक्रम के शब्द हर एक को सुनायी दिये, “यह है ब्रह्मानन्द स्थिति। यही है वास्तविक पूर्ण स्थिति एवं पूर्ण गति।
ऐसा यह ब्रह्मानन्द श्रीशाम्भवी विद्या की सतरहवीं और अठारहवीं कक्षा (पायदान) पार करने के बाद ही प्राप्त होता है।
इन अन्य सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों को भी यह ब्रह्मानन्द प्राप्त हुआ ही है। परन्तु ज्येष्ठ ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के पास अन्य एक अनोखी बात है -
- लोपामुद्रा के द्वारा किये गये आदिमाता की भक्ति के प्रसार के कारण अर्थात् अरबों गुणसंकीर्तनों के कारण और वह भी ‘मैं गुणसंकीर्तन करती हूँ' यह भाव बिलकुल भी न होने के कारण यह लोपामुद्रा सहजता से अपने ब्रह्मानन्द को भी आदिमाता के चरणों में एक पल अर्पण करने लगी
और लोपमुद्रा के द्वारा अर्पण किया गया वह ब्रह्मानन्द आदिमाता जहाँ से व्यक्त हुई उस मूल स्थान पर अर्थात् श्रीदत्तगुरु के चरणों में पहुँच गया।
और इस तरह लोपामुद्रा के पास के ब्रह्मानन्द को सच्चिदानन्द का साथ मिल गया और इस कारण वह ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा अपना हर एक कार्य करते समय भी सदैव ब्रह्मानन्द में ही निमग्न होती है।
श्रीशांभवीविद्या की सभी अठारह कक्षाएँ पार करने के बाद ही इस सच्चिदानन्द की प्राप्ति होती है
और इस तरह की प्राप्ति केवल लोपामुद्रा को ही हुई है और इसी कारण वह श्रीविद्यासंहिता की, श्रीशांभवीविद्या की, श्रीशांभवीमुद्रा की, श्रीशांभवीध्यान की और सच्चिदानन्द उपासना की सर्वोच्च मार्गदर्शक गुरु है।'
भगवान त्रिविक्रम ने ‘अवधूतचिन्तन....' यह कहते ही, ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा की आँखें खुल गयीं और वह भी ‘....श्रीगुरुदेवदत्त' इन शब्दों का उच्चारण करते हुए ही।

भगवान त्रिविक्रम ने लोपामुद्रा को बोलने की अनुज्ञा देते ही वह ज्येष्ठ ब्रह्मवादिनी बोलने लगी, “हे प्रिय आप्तगणों! श्रीशांभवीविद्या की सतरहवीं और अठारहवीं कक्षाओं (पायदानों) की अधिष्ठात्री है, वह नौंवीं नवदुर्गा सिद्धिदात्री।
यह सिद्धिदात्री ही नवरात्रि की नवमी तिथि की रात और दिन की नायिका है।
श्रीशांभवीविद्या की सतरहवीं कक्षा में आने वाले साधक को भगवान त्रिविक्रम स्वयं श्रीशांभवीध्यानम् सिखाता है और वह उसका अभ्यास भी करवाता है।
कुछ देर पहले हम सब जिस ध्यान में बैठने के कारण ब्रह्मानन्द से भर गये थे, वह ध्यान था - श्रीशांभवीध्यानम्।
इस सतरहवीं पायदान पर भगवान त्रिविक्रम उस साधक का हाथ नवदुर्गा सिद्धिदात्री के हाथ में दे देता है
और वह माता सिद्धिदात्री उस साधक को अपनी संतान की तरह मानवी १००८ वर्ष अपने पास सँभालती है और उसके बाद ही श्रीशांभवीध्यानम् पूर्णता को प्राप्त होता है।
वहीं, अठारहवीं पायदान पर यही सिद्धिदात्री, भगवान त्रिविक्रम की अनुमति से उस साधक का हाथ पुनः भगवान त्रिविक्रम के ही हाथ में देती है।
भगवान त्रिविक्रम बिलकुल भी विलंब न करते हुए, उस साधक को अपने दोनों हाथों में किसी बालक की तरह उठा लेता है
और उस साधक को आठ वर्षीय बालक बनाकर आदिमाता के मणिद्वीपनिवासिनी रूप की ओर अर्थात् सिंहासनस्थ अष्टादशभुजा महिषासुरमर्दिनी रूप की ओर अर्थात् ललिताम्बिका रूप की ओर अर्थात् मूल श्रीविद्या रूप की ओर ले जाता है।
मणिद्वीप में फिर वह बालक बालक्रीड़ा करते हुए सदैव रहता है - अर्थात ब्रह्मर्षि या ब्रह्मवादिनी बनकर ही।
मणिद्वीप में बालक के रूप में विचरण करते समय ही ये सभी साधक फिर वसुन्धरा पर अथवा मानवी बस्ती वाले अन्य किसी भी ग्रह पर अपने मूल रूप में भी विचरण करते हैं, कार्य भी करते हैं और कभी कभी तो जन्म भी लेते हैं और वहाँ की परिस्थिति के अनुसार मृत्यु को भी स्वीकार करते हैं; परन्तु उनके जन्म अथवा मृत्यु को कोई भी अर्थ नहीं है। वे सदैव ब्रह्मानन्दी ही होते हैं।'
ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा का इतना कहना पूरा हो जाते ही उसने आदिमाता श्रीविद्या के चरणों में विभिन्न रंग के सुगन्धित पुष्प अर्पण किये और इसके साथ ही आदिमाता का सिंहासनस्थ मणिद्वीप-स्वरूप वहाँ पर विलसित होने लगा
और आदिमाता की बायीं तरफ चार और दाहिनी तरफ चार इस प्रकार से प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक की नवदुर्गाएँ खड़ी थीं
और आदिमाता के मस्तक पर सुवर्णकमलछत्र धरे नौंवीं नवदुर्गा सिद्धिदात्री खड़ी थी।
इसके चेहरे में और आदिमाता के चेहरे में अंशमात्र भी फर्क नहीं था।
बापू आगे तुलसीपत्र - १४०१ इस अग्रलेख में लिखते हैं,
नौंवीं नवदुर्गा सिद्धिदात्री सभी उपस्थितों के सामने आकर कैलाश की भी भूमि को पदस्पर्श न करते हुए खड़ी रही।
माता सिद्धिदात्री का वर्ण ताज़े गुलाबपुष्प की पंखुड़ियों की तरह था।
उसकी आँखें बहुत ही विशाल एवं भेदक थीं, मानो उसकी नज़र किसी के भी आरपार जा सकती थी।
वह चतुर्हस्ता थी और उसके भालप्रदेश में तृतीय नेत्र के बजाय कुंकुमतिलक ही दिखायी दे रहा था।
उसके चार हाथों में मिलकर शंख, चक्र, गदा और पद्म ये आयुध थे।
उसके वस्त्र लाल रंग के और सुनहरी किनार वाले थे।
और मुख्य बात यह थी कि उसकी हर एक गतिविधि बहुत ही नाज़ुक, कोमल एवं धीमी थी।
माता सिद्धिदात्री के चेहरे पर एक ही भाव प्रसन्नता से विलसित हो रहा था और वह था ‘सन्तोष'
और वह सन्तोष माता के चेहरे से निकलकर प्रत्येक श्रद्धावान के पास अपने आप स्व-बल से पहुँच रहा था।
भगवान त्रिविक्रम के द्वारा इशारा किये जाते ही ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने नवदुर्गा सिद्धिदात्री के गले में सुगन्धित मोगरे के फूलों की माला अर्पण की और उसके चरणों में चंपा और गुलाब के पुष्प अर्पण किये।
इसके बाद की घटना देखकर प्रत्येक व्यक्ति बहुत ही अचंभित हो गया; क्योंकि सिद्धिदात्री के चरणों में अर्पण किया गया प्रत्येक पुष्प ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के गले में आकर उनकी एक सुन्दर पुष्पमाला बन गयी।
अपने पास के सारे पुष्प अर्पण करने के बाद लोपामुद्रा ने आदिमाता और सिद्धिदात्री से अनुमति लेकर सभी उपस्थितों से बात करना शुरू किया, “हे सौभाग्यशाली आप्तगणों! आप सब सच में बहुत ही सौभाग्यशाली हैं; क्योंकि आप सबको अचूक क्रम से नौं की नौं नवदुर्गाओं के दर्शन भी हुए और उनकी महिमा का श्रवण भी करने मिला।
इस विश्व में अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व एवं वशित्व, सर्वकामावसाहिता, सर्वज्ञत्व इस प्रकार की अनन्त सिद्धियाँ हैं।
इनमें से अणिमा, लघिमा, महिमा आदि आठ प्रमुख सिद्धियाँ मानी जाती हैं।
वसुन्धरा पर ही नहीं, बल्कि अन्य पृथ्वियों पर भी अनेक जन जो तपस्याएँ करते हैं, वे प्राय: किसी न किसी सिद्धि की प्राप्ति के लिए ही करते हैं।

जो जो तपस्वी जिस जिस चण्डिकाकुल-सदस्य को अपना आराध्यदैवत मानकर तपस्या करता है अथवा साधना करता है, उसे उस उस दैवत से वरदान मिलता है और ये वरदान यदि सिद्धियों के होते हैं, तो यह नौंवीं नवदुर्गा सिद्धिदात्री उस साधक को मिली सिद्धि पर भी अपनी नज़र रखे हुए होती है।
क्योंकि नवदुर्गा सिद्धिदात्री के प्रभामण्डल से ही सभी प्रकार की सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं और वहीं से इन सब सिद्धियों का वास्तविक कार्य संपूर्ण ब्रह्माण्ड में चलता रहता है।
वास्तव में सिद्धियों की अपेक्षा रखना यह गलत ही है; क्योंकि सिद्धि प्राप्त होने के कारण जो सत्ता प्राप्त होती है, उसका उपयोग करने वाली बुद्धि यदि न्यायी न हो, पवित्र न हो तो उस साधक के असुर बन जाने में देर नहीं लगती।
और मुख्य बात यह है कि सच्चे श्रद्धावान को किसी भी प्रकार की सिद्धि प्राप्त कर लेने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
क्योंकि जब सच्चा श्रद्धावान दोनों नवरात्रियों में आदिमाता का / नवदुर्गाओं का श्रद्धापूर्वक अंत:करण से नियमित पूजन करता है, आदिमाता के चरित्र का बार बार पठन करता रहता है और आदिमाता के गुणसंकीर्तन में तल्लीन हो जाता है, तब यह माता सिद्धिदात्री बिना प्रार्थना किये ही श्रद्धावान के जीवन में आवश्यक रहनेवाली सभी सिद्धियों के कार्य की आपूर्ति करती ही रहती है।

इतना ही नहीं, बल्कि आदिमाता के इस चण्डिकाकुल के सभी पुत्रों और कन्याओं की पूर्ण भक्ति करनेवाले को भी यह नवदुर्गा सिद्धिदात्री उचित समय पर उचित सिद्धियों के कार्य की निश्चित ही आपूर्ति करती रहती है।
उसके चेहरे पर निरंतर विलसित होनेवाला संतोष ही सभी श्रद्धावानों को दिलासा देता है कि तुम्हारे द्वारा श्रद्धापूर्वक की गयी हर एक बात का यह सन्तोषपूर्वक स्वीकार करती है और तुम्हारे द्वारा की गयी अल्प सेवा से भी यह प्रसन्न हो जाती है - परन्तु यदि तुम सिद्धियाँ पाना चाहते हो, तो फिर इसके चेहरे पर विलसित होनेवाला संतोष तुम्हें दिखायी नहीं दे सकता।
हर एक ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनी के पास विभिन्न प्रकार की सिद्धियाँ हैं और उनकी इच्छा के अनुसार वे जो चाहते हैं, वे सिद्धियाँ उन्हें कभी भी प्राप्त हो सकती हैं।”
इतना कहकर ज्येष्ठ ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा अचानक रुक गयी और भगवान त्रिविक्रम ने बोलना आरंभ किया, “हे मेरे बच्चों! इन सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों को श्रीशांभवीविद्या की अठारहवीं पायदान (कक्षा) पर ही प्रथम १०८ सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और उनकी इच्छा के अनुसार उनके लिए सब की सब सिद्धियाँ उपलब्ध भी होती हैं।
परन्तु वास्तविक रहस्य की बात तो यहीं पर है। इन प्राप्त हुई सभी सिद्धियों को जो कोई तत्काल आदिमाता के चरणों में अर्पण नहीं करता और उन सिद्धियों से मुक्त होने की इच्छा नहीं रखता, वह ब्रह्मर्षि ही नहीं बन सकता।
अठारहवीं पायदान पर प्राप्त हुईं सभी सिद्धियाँ जब आदिमाता के चरणों में अर्पण की जाती हैं, तब उनके इस निष्काम भाव को देखकर आदिमाता उस ब्रह्मर्षि अथवा ब्रह्मवादिनी की सभी सिद्धियों को इस सिद्धिदात्री को सौंप देती है
और यह सिद्धिदात्री हर एक की सिद्धियों को अपने प्रभामंडल में उस हर एक के नाम से ही सँभालकर रखती है
और इसके बाद ही आदिमाता, श्रीदत्तात्रेय और सिद्धिदात्री उस ब्रह्मर्षि अथवा ब्रह्मवादिनी के पास न होनेवाली सिद्धियों का उपयोग, केवल सिद्धिदात्री का स्मरण करने से करने का वरदान देती है।”
ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने भगवान त्रिविक्रम को मन ही मन में प्रणाम किया और कहा, “हे आप्तगणों! गृहस्थी करनेवालों के लिए यह नौंवीं नवदुर्गा सिद्धिदात्री उनका सभी प्रकार से अभ्युदय करने के लिए तत्पर होती है।
अन्यायपूर्वक दूसरे को दुख न पहुँचाते हुए, जितने सुख की श्रद्धावान इच्छा करता है, उतने सारे सुख की यह नवदुर्गा सिद्धिदात्री उस श्रद्धावान को आपूर्ति करती रहती है।
मुख्य रूप से यह नवदुर्गा सिद्धिदात्री और सभी विद्याओं पर साम्राज्य रहनेवाला आदिमाता का सिद्धेश्वरी स्वरूप एक-दूसरे के साथ अन्योन्य रिश्ते से बँधे हुए हैं।
अपने जीवन के इस नौंवें पडाव के बाद ही पार्वती अन्नपूर्णा, सदापूर्णा, भावपूर्णा, प्रेमपूर्णा और शक्तिपूर्णा इन पंचविध कार्यों से, ‘क्षमा' इस आदिमाता की सहजभावना की हर एक श्रद्धावान को प्राप्ति हो इसलिए निरंतर कार्यरत है
और वह सदा ही इसी प्रकार से सक्रिय रहेगी।”