अत्रि ऋषि की दिव्य लीला और स्वयंभू मूलार्कगणेश की प्रकटन कथा| निरीक्षणशक्ति का महत्त्व

अत्रि ऋषि की दिव्य लीला और स्वयंभू मूलार्कगणेश की प्रकटन कथा| निरीक्षणशक्ति का महत्त्व

 सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध ने तुलसीपत्र ६९५ इस अग्रलेख में मानव के जीवन के १० कालों का संदर्भ दिया है। इनमें से ९वें काल का विवेचन तुलसीपत्र ७०२ अग्रलेख से शुरू होता है। इस संदर्भ के अग्रलेखों में किरातरुद्र - किरातकाल को स्पष्ट करते हुए सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध ने मूलार्कगणेश का और नवदुर्गाओं का महत्त्व बताया है।   


संदर्भ - सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू की दैनिक प्रत्यक्ष की, संतश्रेष्ठ श्री तुलसीदासजी विरचित श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड पर आधारित ‘तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमालिका के अग्रलेख - तुलसीपत्र - १३७७ से तुलसीपत्र - १३७९ तक  


सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र-१३७७ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

सत्ययुग के चार चरण होते हैं और वे चारों चरण समान कालावधि के होते हैं। 

सत्ययुग का पहला चरण समाप्त होते समय देवर्षि नारद ने सारे ब्रह्मर्षियों की परिषद बुलायी और अगले चरण के लिए क्या करना आवश्यक है, इस बारे में विस्तृत चर्चा की। उनकी सभा में कुछ निर्णय हो जाने के बाद उन सब को अपने साथ लेकर देवर्षि नारद ने अत्रि ऋषि से भेंट की। 

उस समय अत्रि ऋषि शान्ति से नैमिषारण्य की रचना करने में मग्न थे। देवर्षि नारद और सारे ब्रह्मर्षि दिखायी देते ही अत्रि ऋषि ने अपने सदा के शान्त, स्थिर एवं गंभीर स्वभाव के अनुसार उन सबसे प्रश्न पूछा, “हे आप्तजनों, तुम बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए आये हो, यह बात तुम्हारे चेहरे पर से ही स्पष्ट हो रही है और तुम सब मानव के कल्याण के लिए सर्वत्र संचार करते रहते हो, यह तो मैं जानता ही हूँ। तुम्हारे मन में स्वार्थ बिलकुल भी नहीं है, इस बात का मुझे पूरा विश्वास है और इसी कारण मानवकल्याण के विषय में तुम यदि कुछ प्रश्न पूछना चाहते हो तो मैं तुम्हें अनुमति देता हूँ।  

श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम्‌ में विराजमान श्रीमूलार्क गणेश की स्थापना के समय हुए याग के दर्शन करते हुए परमपूज्य सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू  


परन्तु वर्तमान समय में मैं इस पवित्र नैमिषारण्य की रचना करने में मग्न हूँ और इस स्थान का संबंध शंबला नगरी से जोड़ने में भी व्यग्र हूँ और इसके लिए मैं किसी के भी प्रश्नों के उत्तर मुख से अथवा लिखकर नहीं दूँगा, ऐसा संकल्प मैंने किया है।

अत एव हे आप्तजनों! तुम सबका मैं मन:पूर्वक स्वागत करता हूँ। तुम मुझसे कितने भी प्रश्न किसी भी समय पूछ सकते हो; परन्तु तुम्हें उनके उत्तर मैं अपनी कृति से ही दूँगा। 

अत्रि ऋषि के ये शब्द सुनते ही देवर्षि नारद के साथ साथ सारे ब्रह्मर्षियों को एहसास हुआ कि हमारे प्रश्नों का पता इस आदिपिता को अर्थात्‌‍ भगवान अत्रि को पहले ही चल चुका है। क्योंकि उन सबके मन में एक ही प्रश्न था - कि इस कल्प के सत्ययुग के प्रथम चरण के अन्त में ही मानव क्रियात्मक दृष्टि से इतना दुर्बल बन चुका है, तो फिर त्रेतायुग और द्वापारयुग में क्या होगा? और इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? 

वे सभी भगवान अत्रि के ही आश्रम में रहने लगे। परन्तु आदिमाता अनसूया वहाँ नहीं थी। वह अत्रि ऋषि के गुरुकुल की देखभाल करते हुए सभी ऋषिपत्नीयों को विभिन्न प्रकार के विषय (सब्जेक्ट्स्‌‍) और पद्धतियों के बारे में समझा रही थी और वह आश्रम नैमिषारण्य से बहुत ही दूर था। 

शाम तक अत्रि ऋषि केवल समिधाएँ इकट्ठा करते हुए घूम रहे थे। वे प्रत्येक समिधा को बड़ी ही बारिकी से परखकर ही चुन रहे थे। सारे ब्रह्मर्षियों ने बार बार अत्रि ऋषि से विनति की, “हे भगवन्‌‍! यह काम हम करेंगे।” परन्तु भगवान अत्रि ने गर्दन हिलाकर ही ‘ना' का इशारा किया था। 

सूर्यास्त हो जाने के बाद अत्रि ऋषि सबके साथ आश्रम में लौट आये और फिर भोजन के बाद अत्रि ऋषि स्वयं समिधाओं का भिन्न भिन्न प्रकार से विभाजन करने लगे - वृक्षों के अनुसार, लंबाई के अनुसार, गीलेपन के अनुसार और गंध के अनुसार। 

इस प्रकार से सभी समिधाओं का अच्छी तरह से वर्गीकरण करके उन्होंने विभिन्न समिधाओं के छोटे गुच्छे (गड्डियाँ) विभिन्न पात्रों में रख दिये।

अब उन सब को लगा कि अब तो अत्रि ऋषि विश्राम करेंगे। परन्तु तुरन्त ही अत्रि ऋषि  पलाश वृक्ष के पत्ते लेकर उनसे पत्तल (थाली के स्थान पर उपयोग में लाया जानेवाला पत्तों से बनाया गया थाली के समान रहनेवाला पात्र) और द्रोण बनाने लगे। 

इस समय भी उन सभी के द्वारा की गयी विनति को नकारकर अत्रि ऋषि स्वयं अकेले ही पत्तल और द्रोण बनाने लगे। अत्यधिक अचूकता से वे पत्तों का चयन कर रहे थे और अत्यंत सुंदर किनारे रहनेवाले पत्तल और द्रोण बना रहे थे। 

देवर्षि नारद ने सभी ब्रह्मर्षियों को आँखों से ही इशारा किया - देखो! एक भी पत्ते में एक छोटा सा भी छेद नहीं है अथवा एक भी पत्ता जरा सा भी खण्डित हुआ नहीं है।   

पत्तल और द्रोण बनाने का काम पूरा हो जाते ही, उन सभी को अत्रि ऋषि ने एक खाली आले में (कमरे की दीवार में बनाये गये खाली स्थान में) रख दिया और उन ब्रह्मर्षियों से कहा, “तुम्हारे मन में मेरी सहायता करने की इच्छा है ना! तो कल इन सभी ताज़े हरे पलाशपत्रों के पत्तलों और द्रोणों को धूप में सुखाने का काम करना।” इतना कहकर भगवान अत्रि ऋषि ध्यान करने के लिए ध्यानकुटी में चले गये।

अगले दिन सारे ब्रह्मर्षि हमेशा की तरह ब्राह्ममुहूर्त में उठ गये और अपनी अपनी साधनाएँ पूरी करके सूर्योदय के समय से अपने काम में जुट गये। अत्यधिक तल्लीनता के साथ हर एक ब्रह्मर्षि अपना काम कर रहा था। सूर्यास्त के समय तक वे सभी पत्तल और द्रोण सुव्यवस्थित रूप से सूख गये थे और उनमें पानी का अंश तक नहीं था।  


सूर्यास्त के समय जब अत्रि ऋषि आश्रम में लौट आये, उस समय सारे ब्रह्मर्षियों ने छोटे बच्चों की तरह खुशी से ‘वे सारे पत्तल और द्रोण किस तरह सुव्यवस्थित रूप से सूख गये हैं', यह अत्रि ऋषि को दिखाया। 

अत्रि ऋषि ने उनके श्रमों का कौतुक किया और फिर पूछा, “इनमें से मध्याह्न समय तक सूखे हुए पत्तल और द्रोण कौन से हैं? मध्याह्न से लेकर दोपहर तक सूखे हुए कौन से हैं? और जिन्हें सूखने में सूर्यास्त तक का समय लगा, वे कौन से हैं?”

अब सारे ब्रह्मर्षि असमंजसता में पड़ गये थे। उन्होंने यह निरीक्षण किया ही नहीं था और आध्यात्मिक अधिकारों का उपयोग करके इस बात को भगवान अत्रि के सामने जान लेना, यह अनुचित हो जाता। इसलिए सारे ब्रह्मर्षियों ने लज्जित होकर अपनी गलती मान ली। 

तब अत्रि ऋषि ने पूछा, “परन्तु यह कैसे हुआ? तुम तो इस प्रक्रिया के महत्त्व को अच्छी तरह जानते हो।”

 किसी के भी पास इसका उत्तर नहीं था।

बापू आगे तुलसीपत्र-१३७८ में लिखते हैं,

मन ही मन में शरमा गये उन सारे ब्रह्मर्षियों की ओर बड़े ही सौजन्य के साथ देखते हुए अत्रि ऋषि ने कहा, “पुत्रों! अपराधीपन की भावना त्याग दो। 

क्योंकि अपनी गलती के कारण अपराधीपन की भावना का निर्माण हो जाने पर धीरे धीरे खेद (अफसोस) लगने लगता है और इस खेद के निरंतर मन को चुभते रहने से उसी का रूपान्तरण विषाद में हो जाता है अथवा वह न्यूनभावना (इम्फिरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) में बदल जाता है और यह तो अधिक ही गलत है। 

आज तुम ही पलाशवृक्ष के पत्ते इकट्ठा करो, तुम ही पत्तल (थाली के स्थान पर उपयोग में लाया जानेवाला पत्तों से बनाया गया थाली के समान रहनेवाला पात्र) और द्रोण बनाओ और तुम ही कल उन्हें सुखाने के लिए रख दो और उस समय निरीक्षण करने से मत चूको। 

मैं ध्यान करने के लिए अन्त:कुटि में जा रहा हूँ और कल सूर्यास्त के समय ही मैं बाहर आऊँगा। उस समय सारा कार्य पूरा करके तैयार रहो।” 

सारे ब्रह्मर्षि अत्यन्त विचारपूर्वक एवं उत्साह के साथ अपने काम में जुट गये। उन्होंने बहुत ही अचूकता के साथ सारा कार्य अत्रि ऋषि की आज्ञा के अनुसार पूरा करके अगले दिन के सूर्यास्त तक उसे सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत कर रखा। 

अकेले देवर्षि नारद ने कोई भी काम नहीं किया था। वे केवल उस हर एक ब्रह्मर्षि के साथ घूम रहे थे। 

अत्रि ऋषि ठीक उनके द्वारा बताये गये समय पर अपनी ध्यानकुटि में से बाहर आ गये और उन्होंने उन सारे ब्रह्मर्षियों की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा और इसके साथ ही प्रत्येक ब्रह्मर्षि ने आगे बढ़कर अपना अपना काम दिखाया। 

श्री अनिरुद्धगुरुक्षेत्रम् में विराजमान श्रीमूलार्कगणपति के दर्शन ले रहे श्रद्धावान भक्त


हर एक का काम बिलकुल अचूक रूप में हुआ था और वे सूखने वाले पत्तों का वर्गीकरण भी सुव्यवस्थित रूप से करने में सफल हो गये। 

परन्तु तब भी अत्रि ऋषि के चेहरे पर बिलकुल भी सन्तोष दिखायी नहीं दे रहा था। अब उनसे प्रश्न पूछने की हिम्मत कोई भी ब्रह्मर्षि जुटा नहीं पा रहा था; क्योंकि अन्य सारे ब्रह्मर्षि ये निर्मिति (निर्माण किये गये) थे; वहीं, भगवान अत्रि स्वयंभू थे - आदिशक्ति का पुरुषरूप थे। 

अत्रि ऋषि :- हे मित्रजनों! देवर्षि नारद ने ही केवल सर्वोत्कृष्ट कार्य किया है। तुम सबका कार्य तो केवल सौ गुणों में से १०० गुणों का (मार्क्स का) हुआ है, १०८ गुणों का नहीं हुआ है। 

अब तो सारे ब्रह्मर्षि अधिक ही पसोपेश में पड़ गये। देवर्षि नारद ने तो एक भी पलाशपर्ण इकट्ठा नहीं किया था, एक भी द्रोण अथवा पत्तल नहीं बनाया था। फिर यह कैसे हुआ? यह विचार उनमें से हर एक के मन में आ रहा था। 
परन्तु उनमें से हर एक को एक बात का पूरा यक़ीन था कि भगवान अत्रि कभी भी असत्य भाषण नहीं करेंगे, पक्षपात नहीं करेंगे अथवा हमारी परीक्षा लेने के लिए वास्तव को बदलकर प्रस्तुत नहीं करेंगे। 

तभी उन सारे ब्रह्मर्षियों को एहसास हुआ कि आश्रम के बाहर उन सबके प्रमुख ऋषिशिष्य आ गये हैं - जिनमें कुछ महर्षि हैं, कुछ तपस्वी ऋषि हैं, कुछ नये ऋषि हैं और कुछ ऋषिकुमार भी हैं। 

अब अत्रि ऋषि ने उन सभी को फिर से दो दिनों तक वही कार्य उनके शिष्यों से करवाने की आज्ञा दी और कहा, “इस बार तुम अपने हर एक शिष्य को उसके काम के अनुसार गुण देनेवाले हो और मैं तुम्हें।” 
सभी ब्रह्मर्षियों ने अपने शिष्यों को अत्रि ऋषि की आज्ञा समझायी और वे स्वयं हर एक शिष्य के काम का बारिकी से निरीक्षण करने लगे।

दो दिनों बाद अत्रि ऋषि फिर उसी समय बाहर आ गये और उसी के साथ हर एक ब्रह्मर्षि ने अपने अपने शिष्य के द्वारा किया गया काम अत्रि ऋषि को दिखाया और साथ ही उस हर एक शिष्य को सौ मैं से प्राप्त हुए गुणों के बारे में भी बताया।

इसके बाद भगवान अत्रि ने ब्रह्मर्षियों के सभी शिष्यों को उनके निवासस्थान पर जाने के लिए कहा। 

उन सभी महर्षियों और ऋषियों के वहाँ से चले जाते ही, सभी ब्रह्मर्षियों ने अत्यधिक बालभाव से अत्रि ऋषि की ओर अत्यधिक उत्कंठता और जिज्ञासा से देखा। 

उन सभी को बहुत आशीर्वाद देकर अत्रि ऋषि ने बोलना आरंभ किया, “प्रिय आप्तजनों! तुम्हारे महर्षि शिष्यों को भी १०० में से १०० गुण प्राप्त नहीं हुए हैं। इसका कारण क्या है?”

सभी ब्रह्मर्षियों ने बहुत सोचा। लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिल रहा था और जवाब ढूँढने के लिए उनके पास रहनेवाली सिद्धि का उपयोग वे अत्रि-आश्रम में नहीं कर सकते थे। इसलिए उन सभी ने अत्यधिक विनयपूर्वक प्रणिपात करके भगवान अत्रि से कहा, “हमें इसके पीछे रहनेवाले कारण का पता नहीं चल रहा है। 

हमें स्वयं को भी १०० में से १०८ गुण नहीं प्राप्त हो सके हैं और हमारे शिष्यों को तो १०० गुण तक नहीं प्राप्त हुए हैं। हमारी मति कुंठित हो गयी है। 

हे देवर्षि नारद! तुम्हें ही १०० में से १०८ गुण प्राप्त हुए हैं। कम से कम तुम तो कृपा करके हमारे प्रश्नों के उत्तर दो।”

देवर्षि नारद ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “भगवान अत्रि के शब्दों का उल्लंघन करना मेरे लिए भी संभव नहीं है और मुझे भगवान अत्रि की अनुकंपा एवं अनुग्रह पर पूरा विश्वास है। इसलिए जो कुछ करना है, वह वे ही करेंगे।”
भगवान अत्रि ने तत्काल आदिमाता अनसूया का स्मरण किया और पल भर में अत्रि ऋषि के समीप आदिमाता अनसूया दिखायी देने लगी।

उस वत्सल आदिमाता को देखते ही वे सारे ब्रह्मर्षि रोने लगे। वह तो आदिमाता ही थी! उसका हृदय तड़प उठा और उसने तत्काल श्रीविद्यापुत्र त्रिविक्रम को वहाँ पर बुलाया।   

बापू आगे तुलसीपत्र- १३७९  में लिखते हैं,

आदिमाता अनसूया की आज्ञा के अनुसार भगवान त्रिविक्रम उस आश्रम में आकर उन सभी ब्रह्मर्षियों से संवाद करने लगा, “हे मित्रजनों! तुम सारे ब्रह्मर्षि मेरे बहुत ही निकटवर्ती आप्त हो और तुममें से हर एक की क्षमता, कार्यक्षमता और ज्ञान अपरंपार है। 

परन्तु इस पल तुम सब ‘हम कहाँ पर कम पड़ गये' इस भावना में अटक गये हो। 

श्री अनिरुद्धगुरुक्षेत्रम् में विराजमान श्रीमूलार्कगणपति

भगवान अत्रि से तुम जो प्रश्न पूछने के लिए यहाँ आये हो - इस कल्प में सत्ययुग के प्रथम चरण के बाद ही मानवसमाज अकार्यक्षम एवं दुर्बल होते चला जा रहा है तो आगे चलकर कैसे होगा? - इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए ही भगवान अत्रि ने यह सारी लीला करवायी। 

तुम ही नहीं बल्कि मैं एवं ज्येष्ठ भ्राता हनुमानजी और श्रीदत्तात्रेयजी भी अत्रि-अनसूया के सामने बालभाव में ही होते हैं

और ठीक इसी बात को तुम सब भूल रहे हो और इसी लिए तुम गुण (मार्क्स) कम मिलने के कारण लज्जित हो गये हो। इस तरह से करने का कोई भी कारण नहीं है; क्योंकि ब्रह्मर्षि अगस्त्य अलग है और अत्रि-अनसूया के सामने खड़ा बालभाव में स्थित अगस्त्य अलग है।   

देखो! यहाँ पर घटित हुईं सभी कृतियों की ओर ध्यान से देखो! तुमसे हुई पहली गलती है - तुमने अत्रि ऋषि की आज्ञा का पालन करके पत्तल (थाली के स्थान पर उपयोग में लाया जानेवाला पत्तों से बनाया गया थाली के समान रहनेवाला पात्र) और द्रोण तो बना लिये; परन्तु स्वयं भगवान अत्रि जब द्रोण बना रहे थे, तब तुमने उनकी कृति का ध्यान से निरीक्षण नहीं किया और इसी कारण अत्रि ऋषि के द्वारा स्वयं बनायी गयी वस्तुओं का वर्गीकरण किस प्रकार से किया गया, यह तुम्हारे ध्यान में नहीं आया। 

ठीक यही गलती इस कल्प के सत्ययुग के मानव से भी हो रही है। वह ज्ञानार्जन कर रहा है, कार्य भी कर रहा है, परन्तु इस कल्प का यह मानव निरीक्षणशक्ति का उपयोग करने में कम पड़ रहा है 
और ठीक यही भगवान अत्रि ने तुम्हें दिग्दर्शित किया है। 

तुम्हारे प्रश्न का आधा उत्तर तुम्हें मिल गया ना?” 

आनन्दित होकर सारे ब्रह्मर्षियों ने तत्काल ‘साधु साधु' कहते हुए भगवान त्रिविक्रम की बात को अनुमोदन दिया। 

अब भगवान त्रिविक्रम ने आगे बोलना शुरू किया, “प्रिय ब्रह्मर्षिगणों! अब प्रश्न के उत्तर के उत्तरार्ध के बारे में।

तुम्हारे द्वारा की गयी गलती इन सारे महर्षियों ने भी की। 

क्योंकि तुम सब महर्षियों एवं ऋषियों के अध्यापक-गुरु हो और तुम्हें प्राप्त हुए अनुभव को तुमने, अपने शिष्यों को आज्ञा देते समय उनके समक्ष प्रांजलतापूर्वक प्रस्तुत ही नहीं किया। 

अध्यापक स्वयं अपनी छात्र-दशा (छात्रावस्था) में की गयी गलतियों से ही धीरे धीरे विकसित होता जाता है और उसे चाहिए कि वह उन्हीं अनुभवों को अपने छात्रों को बताकर, उनका विकसित होना आसान बना दें। 

वह भी यहाँ पर नहीं हुआ और इसी कारण तुम्हारे इन अच्छे छात्रों को भी बहुत ही कम गुण मिले। 

इस वसुन्धरा पर के इस कल्प में वर्तमान समय में ठीक यही हो रहा है। तुम अपने शिष्यों को तैयार करने में अर्थात्‌‍ महर्षियों एवं ऋषियों को तैयार करने में कहीं पर भी चूके नहीं हो और वे भी विभिन्न अध्यापकों को सुव्यवस्थित रूप से तैयार कर रहे हैं। 

श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम्‌ में विराजमान श्रीमूलार्क गणेश की स्थापना के समय किया गया याग

परन्तु इन ऋषि न होने वाले अध्यापकों ने अपनी गलतियों से जो कुछ भी सीखा है, उसे वे अपने छात्रों के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं; और मुख्य रूप से निरीक्षण और निरीक्षण के बाद कृति यह क्रम छात्रों को नहीं मिल रहा है और इसी कारण इस कल्प में मानव की कार्यक्षमता बहुत ही जल्द घटती चली जा रही है।” 

प्रभावित हुए सभी ब्रह्मर्षियों ने पहले अत्रि-अनसूया के चरण पकड़ लिये और फिर त्रिविक्रम को भी अभिवन्दन किया। 

परन्तु ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य कुछ याद आकर विचार में मग्न से हो गये। यह जानकर त्रिविक्रम ने उनसे सीधे सीधे प्रश्न पूछा, “हे ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य! तुम तो सर्वश्रेष्ठ अध्यापक हो। तुम किस सोच में पड़ गये हो? क्या तुम्हारे मन में कोई प्रश्न है? तुम मुझसे कोई भी प्रश्न पूछ सकते हो।” 

ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा, “हे त्रिविक्रम! परन्तु हमारे प्रश्न के लिए एक अपवाद (एक्सेप्शन) था और है। ब्रह्मर्षि धौम्य के आश्रम में सब कुछ सुव्यवस्थित रूप से चल रहा है और उसका कारण भी समझ में नहीं आ रहा है। वहाँ पर सब जन सुव्यवस्थित रूप से निरीक्षण करते हुए बहुत ही सुन्दर कार्य करते रहते हैं। इसका कारण क्या है?” 

धौम्य ऋषि ने भी याज्ञवल्क्य को अनुमोदन दिया। “हाँ! परन्तु इसका कारण मेरी भी समझ में नहीं आ सका है।” 

भगवान त्रिविक्रम ने एक स्मितहास्य करके कहा, “आदिमाता ने किसी भी प्रश्न के निर्माण होने से पहले ही उसका उत्तर तैयार कर रखा होता है। 

ब्रह्मर्षि धौम्य जब १०० वर्ष देशभ्रमण करने गये थे, तब उनके आश्रम का कार्यभार उनका ज्येष्ठ पुत्र महर्षि मन्दार और उसकी पत्नी राजयोगिनी शमी ये सँभाल रहे थे। 

तुम्हारे मन में उठा प्रश्न उन दोनों के मन में ९९ वर्ष पूर्व ही उपस्थित हुआ था और इसके लिए उन्होंने अनेक अनुसन्धान किये। परन्तु कुछ भी करके उन्हें उत्तर नहीं मिल रहा था और उसी समय असुरों के गुरुकुल में उनका आसुरी काम अनुशासन के साथ ठीक से चल रहा है, इस बात का इन दोनों को पता चल गया

और इन दोनों ने आदिमाता के चरणों में अपनी तपस्या एवं पवित्रता सुरक्षित रख दी और देवर्षि नारद के साथ वे ताम्रतामस अरण्य में गये और उन्हें चंद कुछ ही दिनों में ज्ञान-अर्जन एवं कार्य में रहनेवाली निरीक्षणशक्ति का और अध्यापकों के द्वारा अपने गतजीवन की गलतियों को छात्रों के सामने कथारूप में प्रस्तुत करने का माहात्म्य ज्ञात हो गया और वे तुरंत ही अपने आश्रम में लौट आये। 

आदिमाता से उन्हें उनकी पवित्रता और तपस्या वापस मिल जाते ही उन्होंने निरीक्षणशक्ति  का और गलतियों को कथारूप में छात्रों के सामने प्रस्तुत करने का अध्ययन करना आरंभ किया। एक दिन इस प्रकार से चिंतन करते हुए वे ध्यानमग्न हो गये और उस ध्यान में उन्हें ताम्रतामस में स्थित विद्यालय दिखायी देने लगे और उनकी समझ में आ गया कि उन्होंने अनजाने में ही असुरों का अनुकरण किया है - भले ही वह अच्छी बात के लिए किया गया हो, लेकिन असुरों का अनुकरण करना यह बुरी बात ही है

और इसलिए उन दोनों ने प्रायश्चित्त के तौर पर उनकी सभी साधनाओं, उपासनाओं, तपस्याओं और पवित्रता को देवर्षि नारद को दान के रूप में दे दिया। 

उनके इस सात्त्विक आचरण से आदिमाता अत्यधिक प्रसन्न हो गयी और उसने उन्हें  वरदान माँगने के लिए कहा। वे दोनों मुझे ही आराध्य देवता मानते थे, इसलिए उन दोनों ने भी मुझ से ही मार्ग पूछा, मुझ से ही उन्होंने उनके लिए आदिमाता से वरदान माँगने के लिए कहा

और इस तरह मैं पसोपेश में पड़ गया। मेरे द्वारा उन्हें उचित वरदान माँगने की बुद्धि दी जाते ही उन दोनों ने आदिमाता से पूछा, “हे आदिमाता! असुरों के अनुकरण को छोड़कर उचित निरीक्षणशक्ति एवं उचित अध्यापनमार्ग का मूल स्रोत कहाँ से उत्पन्न होता है और उसे कैसे प्राप्त किया जाता है, यह क्या हमें बताओगी? हम यही वरदान चाहते हैं। 

इतना ही नहीं, बल्कि असुरों की भूमि पर भी पवित्र श्रद्धावान अच्छी तरह निरीक्षणपूर्वक कार्य कर सकें, इसका स्रोत भी हमें बताओ।”

इसी के साथ आदिमाता ने उन दोनों को ‘तथास्तु' कहकर वरदान दिया और मुझे उन दोनों को मार्गदर्शन करने के लिए कहा। मैं उन दोनों को लेकर इस नैमिषारण्य में ही आ गया  और उन्हें सर्वोच्च ध्यान सिखाया और उस ध्यान के माध्यम से मैंने उन्हें बुद्धि से परे रहनेवाले ज्ञान का, आसुरी शक्तियों से परे रहनेवाले सत्त्व का स्रोत दिखाया। 

वह स्रोत अर्थात्‌‍ हर एक के मूलाधार चक्र का स्वामी रहनेवाला भगवान श्रीमूलार्कगणपति है। 

मूलाधार चक्र के अधिष्ठाता श्रीमूलार्कगणेश


स्वयं के ही मूलाधार चक्र में और उसी के साथ वसुंधरा के मूलाधार चक्र में श्रीमूलार्क गणपति को देखते हुए, उन दोनों की भी पूर्ण रूप से समर्पित होने की इच्छा अत्यधिक प्रबल बनती गयी और वह इच्छा चरम सीमा पर पहुँच गयी
और उनकी यह सर्वोच्च, सर्वोत्कृष्ट इच्छा आदिमाता को अत्यधिक पसंद आ गयी और श्रीगणपति को अत्यंत प्रिय हो गयी। 

उसके बाद महर्षि मंदार से एक वृक्ष का निर्माण हो गया और राजयोगिनी शमी से एक नाज़ूक पौधा निर्माण हो गया। 

अर्थात्‌‍ मंदार वृक्ष और शमी वनस्पति का पहली ही बार निर्माण हो गया

और उसी के साथ आदिमाता ने वरदान दिया कि जो कोई श्रीगणपति की किसी भी प्रतिमा का पूजन, विशेष रूप से मूलार्क गणपति का पूजन मंदार वृक्ष के तले और शमीपत्रों से करेगा, उसे यह बुद्धि से परे रहनेवाली निरीक्षणशक्ति और आसुरी स्थितियों में भी संकटों से मुक्त रहने की शक्ति अर्थात्‌‍ दैवी प्रज्ञा (दैवी प्रतिभा) प्राप्त होगी।

इस तरह इस नैमिषारण्य में विश्व-स्थित प्रथम मंदार वृक्ष और प्रथम शमी वनस्पति का निर्माण हो गया। 

एक निमिष (पलक झपकने का समय) में ही मंदार वृक्ष के खिलखिलाने के कारण उसे ही ‘निमिष वृक्ष' यह नाम मैंने दिया और हाल ही में हुए त्रिपुरासुर युद्ध के समय शिवपुत्रों के बाणों को स्वयं मैंने ही, शमी के रस में डुबायी गयी मंदार वृक्ष की समिधाओं से बनवाया

और इसी कारण शिवपुत्रों के भाले और बाण ताम्रतामस अरण्य की भूमि में रोपित हो जाते ही, वहाँ जगह जगह मंदार वृक्ष और शमी का निर्माण हो गया - श्रद्धावानों की रक्षा करने के लिए।

इस कथा को सुनकर सभी ब्रह्मर्षि अत्यधिक खुशी से धौम्य ऋषि का अभिनंदन करने लगे

और उसी समय उन सभी को यह ज्ञात हो गया कि उनके सामने ही मंदार और शमी है। सारे ब्रह्मर्षियों ने अत्यंत प्यार से, वत्सलता से और आदरपूर्वक मंदार वृक्ष को गले लगाया 

और उसी के साथ त्रिविक्रम ने उन सभी ब्रह्मर्षियों के मन में सामान्य श्रद्धावानों के प्रति रहनेवाली करुणा को जल के रूप में उस मंदार वृक्ष की जड़ों में अर्पित किया और उस मंदार वृक्ष की जड़ों से इस विश्व की मूलार्कगणेश की आद्य स्वयंभू मूर्ति भगवान त्रिविक्रम के हाथों में आ गयी।

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा कैलाश पर स्थित सभी से आगे कहने लगी, “यह वही पल था, जिस पल स्वयंभू मूलार्कगणेश की मूर्ति को त्रिविक्रम ने नैमिषारण्य में अत्रि ऋषि के आश्रम के सामने स्थापित किया। 

किस लिए?

मूलार्कगणेश के मंत्रों का पठन करने से मानव की प्रज्ञा अर्थात्‌‍ भगवान द्वारा उसे दी गयी बुद्धि, मानव की मानवी बुद्धि पर और मानवी मन पर अधिकार स्थापित करती है और श्रद्धावानों को सभी संकटों और गलतियों से मुक्त करती है।”