रामरक्षा प्रवचन -२७ | लक्ष्मणजी के प्रेम से खिलनेवाला रामधर्म का सौम्य प्रकाश

रामरक्षा-कवच की ‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ इस पंक्ति के विभिन्न पहलुओं को हमारे सामने उजागर करते समय, सद्गुरु अनिरुद्ध बापू एक और सुंदर पहलू के बारे में बात कर रहे हैं। हमारे जैसे सामान्यजनों के लिए किसी भी देवता के दर्शन उस देवता के चेहरे से ही संबंधित रहते हैं। दिनांक २६ मई २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित इस प्रवचन में, सद्गुरु बापू ‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ इस पंक्ति के संदर्भ में ‘चेहरा’ इस एक महत्त्वपूर्ण पहलू पर बात कर रहे हैं।
हम कइयों से, ‘धर्म यानी क्या’ इस विषय में बड़ी-बड़ी बातें सुनते हैं। वे मोटे-मोटे शब्द कई बार हमारी समझ से परे होते हैं। और वह सब सुनने के बाद हमारे मन में प्रश्न शेष रह ही जाता है, ‘धर्म यानी निश्चित रूप से क्या?’ यहाँ इस पहलू के अनुषंग से सद्गुरु बापू हमें बिलकुल आसान शब्दों में समझाकर बताते हैं कि ‘धर्म यानी वास्तविक रूप से क्या है? और हमारा मूल धर्म कौनसा है?’ उसीके साथ वे हमें यह भी विशद करते हैं कि ‘धर्म और भगवान के बीच निश्चित रूप से क्या नाता है?’
हम कई बार भक्तिमार्ग में दूसरों का अनुकरण करते हुए, औरों ने इस्तेमाल की हुई राह पर ही चलने की कोशिश करते हैं, क्योंकि ऐसा करने से हमें सुरक्षितता महसूस होती है, नया कुछ आज़माने से हमें डर लगता है। इससे हमारा विकास कुंठित हो जाता है। हमारे स्वभाव में रहनेवाला दृढ़भाव धीरे-धीरे कम होता जाता है। ‘जो मेरे राम का नहीं, वह मेरा नहीं’ यह दृढ़भाव विचारों में रहनेवाले ‘सौमित्र’ लक्ष्मणजी का अनुसरण करके ही हम हमारा सर्वांगीण, यानी प्रापंचिक एवं पारमार्थिक विकास कैसे प्राप्त कर सकते हैं, यह सद्गुरु अनिरुद्धजी हमें विभिन्न उदाहरणों के द्वारा समझाकर बताते हैं। उस अनुषंग से ‘वृक्ष और उसकी जड़ें’ इसका उदाहरण बताकर, और उसमें भी वटवृक्ष (बरगद का पेड़) का विशेष उल्लेख कर, हमारी भक्ति का वृक्ष किससे मज़बूत होगा और फूलेगा-फलेगा, वह विशद करते हैं।
‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ का सुंदर प्रवास अगले भाग में भी ऐसे ही जारी रहनेवाला है...
