रामरक्षा प्रवचन-१५ | अध्यात्म में ‘१ से ९९’ से भी ‘९९ से १००’ के बीच अधिक दूरी

‘ध्यात्वा नीलोत्पल: श्यामं। रामं राजीवलोचनम्॥
जानकी लक्ष्मणोपेतं। जटामुकुटमंडितम्॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्।
स्वलीलया जगत्रातुं आविर्भूतं अजं विभुम्॥’
दिनांक २४ फ़रवरी २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित प्रवचन में, ‘रामरक्षां पठेत् प्राज्ञा: पापघ्निं सर्वकामदाम्’ इस पंक्ति पर विवेचन शुरू करते समय सर्वप्रथम, श्रीराम ये एक ही समय पर ‘राजा’ और ‘योगी’ दोनों भी कैसे हैं, यह सद्गुरु अनिरुद्ध बापूजी समझाकर बताते हैं।
‘सभी उचित कामनाएँ पूरी करनेवाली और सभी पापों को जलानेवाली ऐसी इस रामरक्षा का पठन ‘प्राज्ञ’ लोग करते हैं’ ऐसा इस पंक्ति का सरलार्थ है। लेकिन ‘प्राज्ञ’ यानी निश्चित रूप से कौन? यह प्रश्न उठता है। इस प्रश्न का भी उत्तर सद्गुरु बापूजी यहाँ देते हैं और यह उत्तर देते समय ही, मनुष्य जीवन में हमेशा सबसे बड़ी ग़लती कौनसी करता है, जिससे मनुष्य की अधोगति शुरू होती है, यह भी वे स्पष्ट रूप से बताते हैं।
‘किसी भी स्तोत्र का पठन करते समय उसका भावार्थ समझकर पठन कीजिए, शब्दार्थ नहीं; क्योंकि भावार्थ हमेशा प्रगति करवाता है, शब्दार्थ नहीं’ यह दृढ़ रूप से प्रतिपादित करते समय ही, ‘भावार्थ यानी निश्चित रूप से क्या’ यह भी वे, हमारे जीवन के रोज़मर्रा के सीधे-सरल उदाहरणों की सहायता से समझाते हैं।
उसीके साथ, अध्यात्म में ‘१ से ९९ के बीच जितना फ़ासला है, उससे बहुत ज़्यादा फ़ासला ९९ से १०० के बीच है’ इस महत्त्वपूर्ण सत्य का एहसास करा देते समय सद्गुरु अनिरुद्धजी - विश्वामित्र ऋषि, दुर्वास मुनि और शतानिक मुनि (अश्वत्थामा) इन बहुत ही उच्चपद को प्राप्त हुए ऋषियों के उदाहरण देते हैं।
अन्त में, सांसारिक एवं आध्यात्मिक ऐसे दोनों प्रकार के हित की बातें जो दे सकती है, ऐसी कौनसी माँग भगवान के पास करनी चाहिए, इसका भी मार्गदर्शन सद्गुरु अनिरुद्ध बापूजी करते हैं।