सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ९

संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३९६ और १३९७।
सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३९६ इस अग्रलेख में लिखते हैं,
सभी उपस्थितों के सामने ही सातवीं नवदुर्गा कालरात्रि का रूपान्तरण आठवीं नवदुर्गा महागौरी में हो रहा था।
बिलकुल धीरे धीरे बहुत ही धीरे धीरे
अब तक किसी भी रूपान्तरण (Transformation) के लिए पल भर का भी समय नहीं लगा था।
कैलाश पर समय का ही अस्तित्व न होने के कारण, ‘कितने धीरे से' यह किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था; परन्तु वहाँ पर का हर एक व्यक्ति निरंतर कोई न कोई नित्यजप कर रहा होने के कारण, हर एक को पूर्ण रूप से यह एहसास हो रहा था कि उनके जप के कितने सारे आवर्तन हो रहे थे और उसके बावजूद भी वह रूपान्तरण चल ही रहा था।
सभी उपस्थितों में इसके प्रति रहने वाली उत्सुकता अब बेचैनी में परिवर्तित होने लगी
और धीरे धीरे वह बेचैनी मन को अस्थिर करने लगी - महर्षियों से लेकर शिवगणों तक हर एक का मन उत्कंठा की चरमसीमा तक पहुँचकर उसको लाँघने के कारण पूरी तरह अशान्त एवं अस्थिर हो गया था।
वहीं, सभी ब्रह्मर्षिगण धीरे धीरे चल रही इसी प्रक्रिया के कारण अधिक से अधिक शान्त, तन्मय, तल्लीन एवं आनन्दित हो रहे थे
और यह ध्यान में आ जाते ही अन्य सभी के मन की अशान्तता एवं अस्थिरता अधिक तेज़ी से बढ़ने लगी।
और अपने बालकों की यह स्थिति क्या आदिमाता से देखी जा सकती थी?
यक़ीनन ही नहीं।
आदिमाता श्रीविद्या ने उन सबकी तरफ कृपादृष्टि से देखकर बोलना शुरू किया, “हे वत्सों! तुम सबका मन अब पूर्ण रूप से ‘थर्व' स्थिति में पहुँच गया है।

सामान्यत: मानव ‘थर्व' इस स्थिति में जाता है, वह उसके षड्-रिपुओं की चरमसीमा तक जाने के कारण।
परन्तु तुम सब ‘थर्व' स्थिति में गये हो, वह केवल और केवल ‘असतो मा सद्गमय' इस एक ही कारण से अर्थात् पवित्र अस्तित्व का और पवित्र कृति का रहस्य एवं कारण जानने के लिए
और तब भी किसी भी प्रकार के स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि केवल और केवल आठवीं नवदुर्गा महागौरी को पूर्ण रूप से जानने के लिए - पूर्ण रूप से सात्त्विक उत्कंठा के कारण ही।
हे शिव-ऋषि तुम्बरु! यह रूपान्तरण पूरा हो जाने तक तुम इन सबको इस रूपान्तरण की कथा विस्तारपूर्वक सुनाओ।”
आदिमाता श्रीविद्या को साष्टांग प्रणिपात करके शिव-ऋषि तुम्बरु कथा सुनाने लगे, “हे आप्तजनों! इस पार्वती ने एक बार जब वसुन्धरा पर रहने वालीं और वसुन्धरा के अवकाश में उस समय विद्यमान रहने वालीं सारी की सारी आसुरी शक्तियों का, आसुरी रूपों का और आसुरी गुणों का पूर्ण रूप से विध्वंस कराने का तय कर लिया, तभी पहली बार उसका यह ‘कालरात्रि' स्वरूप प्रकट हुआ था।
पार्वती ने यह निर्धार केवल एक ही कारण से किया था - उस समय भगवान परमशिव घनप्राण गणपति का जन्म होने के लिए घोर तपश्चर्या करने बैठा था।
परमशिव की उस तपश्चर्या का जल्द से जल्द पूरा हो जाना आवश्यक था और आसुरी वृत्तियाँ इसी का विरोध कर रही थीं।
इस कारण इस विश्व के घनप्राण को जन्म देने की प्रक्रिया को केवल दस हजार वर्ष का समय बाकी होने के कारण, इस भक्तमाता ने ऐसा कठोर निश्चय करके युद्ध करना आरंभ किया और उसने अपना निश्चय मानवी सौं सालों में ही पूरा कर दिया
और उसी के साथ परमशिव की तपश्चर्या केवल मानवी आठ वर्षों में ही सफल एवं संपूर्ण हो गयी और इस कारण आदिमाता जिस पल चाहती थी, उस पल शिवगंगागौरीपुत्र विनायक ब्रह्मणस्पति यह ‘गणपति' इस नाम से जन्म ले ले, इसकी पूरी तैयारी हो गयी।

परमशिव ने तपश्चर्या पूरी करके जब आँखें खोल दीं, तब उसे पार्वती का यह भीषण रूप दिखायी दिया और केवल उसके लिए (परमशिव के लिए) उसकी प्रिय सहधर्मचारिणी ने स्वयं की सुंदरता को दूर फेंककर यह भयकारी रूप धारण किया है, यह जानकर परमशिव ने उसकी ओर अत्यधिक प्यार से स्नेह से भरी हुई नज़र से देखा
और उसी के साथ भर्गलोक में बहनेवाली गंगा (सातवीं गंगा) भगवान परमशिव की दोनों आँखों में से प्रवाहित हुई और परमशिव ने अपनी प्रिय पत्नी का उस सातवीं गंगा के जल से अभिषेक करना आरंभ किया।
स्वयं परमशिव उस सातवीं गंगा के जल से बूँद बूँद जल लेकर पार्वती के शरीर को लेपन कर रहा था
और ऐसा विलक्षण अभिषेकस्नान और लेपन मानवी १०८ वर्षों तक चला
और उसी क्षण पार्वती का यह आँठवाँ नवदुर्गा स्वरूप ‘महागौरी' विलसित होने लगा।”
शिव-ऋषि तुम्बरु की कथा समाप्त हो गयी और उसी पल आँठवीं नवदुर्गा ‘महागौरी' अपने संपूर्ण वैभव के साथ दृश्यमान हो गयी।
वह चतुर्हस्ता थी (उसके चार हाथ थे)। उसका दाहिनी तरफ वाला ऊपर का हाथ अभयमुद्रा में था। दाहिना नीचे का हाथ त्रिशूल धारण किये हुए था, उसके बाँयें ऊपर के हाथ में सौम्य एवं प्रशांत ध्वनि उत्पन्न करनेवाला डमरु था और उसका बाँयाँ नीचे का हाथ वरदमुद्रा में था।

यह महागौरी विलक्षण गौरवर्ण की थी।
इसके सभी वस्त्र भी चांद्रवर्ण के थे। इसके पूरे शरीर पर मोती के अलंकार थे और गले में श्वेत सुगन्धित फूलों की मालाएँ थीं।
इसकी नज़र पूर्ण वत्सलता से भरी हुई, सौम्य, प्रशांत एवं तृप्तिदायक थी।
यह वृषभारूढ़ (वृषभ पर बैठी हुई) थी।
यह वृषभ भी पूर्णत: गौरवर्ण का और अत्यंत शांत स्वभाव का था।
इसके माथे पर तृतीय नेत्र नहीं था।
महागौरी की पलकों के बालों की हलचल से अत्यंत सुगन्धित एवं शान्तिदायक ऊर्जाप्रवाह सर्वत्र फैल रहे थे
और उनका स्पर्श हो जाते ही वहाँ पर प्रत्येक उपस्थित का ‘थर्व' हो चुका मन पूरी तरह ‘अथर्व' बन रहा था।
बापू आगे तुलसीपत्र - १३९७ इस अग्रलेख में लिखते हैं,
आदिमाता श्रीविद्या ने ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा को महागौरी का पूजन करने की आज्ञा की और उसके अनुसार लोपामुद्रा ने अन्य सभी ब्रह्मवादिनीयों के साथ सुगंधित श्वेतपुष्पों (सफ़ेद फूलों) से महागौरी का पूजन किया।
महागौरी ने उसे अर्पण किये गये सभी सुगंधित श्वेतपुष्प अपनी स्वयं की अंजलि में लेकर सभी उपस्थितों पर उसका वर्षाव किया।
आश्चर्य की बात यह थी कि हर एक को केवल एक ही श्वेतपुष्प मिला और हर एक के हाथ में रहनेवाला वह श्वेतपुष्प आठ दलों वाला (पंखुड़ियों वाला) था।
उसके पश्चात् आँठवी नवदुर्गा महागौरी ने विभिन्न रंगों के सुगंधित पुष्पों से आदिमाता श्रीविद्या और अनसूया का पूजन किया
और महागौरी के द्वारा उसके हाथों में रहनेवाले पुष्प आदिमाता के चरणों में अर्पित किये जाते ही, हर एक उपस्थित के हाथ में रहनेवाला ‘वह' श्वेतपुष्प अब अधिक तेजस्वी और आह्लाददायी दिखायी देने लगा
और वह अष्टदलपुष्प हर एक के त्रिविध देहों में शांति, प्रसन्नता, स्थिरता, धैर्य और आह्लाद इन गुणों को प्रसारित कर रहा था।
हर एक उपस्थित को यह एहसास हो रहा था कि ‘वह' अष्टदलपुष्प उनके हाथों से हमेशा के लिए चिपक गया है और ‘वह' पुष्प उनके पूरे मन को ही अधिक से अधिक सुंदर और सबल बना रहा है।
ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने महागौरी की आज्ञा के अनुसार उपस्थितों के सामने मुड़कर बोलना आरंभ किया, “हे उपस्थित आप्तगणों! यह आठवीं नवदुर्गा महागौरी शांभवीविद्या की पंद्रहवीं और सोलहवीं पायदान (कक्षा) की अधिष्ठात्री है
और नवरात्रि की अष्टमी तिथि के दिन और रात की नायिका है।
भर्गलोक की सातवी गंगा के जल का लेप और अभिषेक करके परमशिव ने यह ‘महागौर' स्वरूप निर्माण किया, इस कथा को हम सुन ही चुके हैं।
परन्तु यदि सातवी गंगा है, तो शेष (बाकी की) छह गंगाएँ कहाँ है, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
परन्तु इस समय केवल इतना ही ध्यान में रखना कि भूलोक पर जो अवतरित हुई, वह प्रथम गंगा है और उसके बाद फिर एक एक लोक की एक एक गंगा है।
यह शेष गंगाज्ञान (गंगाओं के बारे में बाकी का ज्ञान) शांभवीविद्या की पंद्रहवीं और सोलहवीं कक्षा पार करने के बाद ही होता है।
यह सातवीं अर्थात् भर्गलोकीय गंगा क्षीरसागर के जल की ही बनी हुई है और यही ‘अमृतवाहिनी', ‘अमृतवर्षिणी' और ‘चंद्रमधुप्रसविणी' इन नामों से ज्ञात है।
महागौरी और भर्गलोकीय सातवीं गंगा ये दोनों एक-दूसरी की जुड़वा बहनें मानी जाती हैं - क्योंकि उन दोनों का कार्य ही एकसमान है।
शांभवीविद्या की पंद्रहवीं और सोलहवीं पायदान पर उपासकों को अपने गुरु के समक्ष (सामने) बैठकर, गुरु के मार्गदर्शन में ‘श्रीशांभवी मुद्रा' सीखनी होती है, हर रोज उसका त्रिकाल (दिन में तीन बार) अभ्यास करना होता है, उसका अध्ययन करना होता है और उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करना होता है
और यह सब जो कराती है, वह है आठवीं नवदुर्गा महागौरी।
देखिए! हम आरंभ से देख रहे हैं कि महागौरी के भालप्रदेश पर तृतीय नेत्र नहीं है। वहाँ पर कुंकुमतिलक है।
परन्तु यह सच नहीं है।
महागौरी का भी तृतीय नेत्र है ही।
परन्तु हम में से कोई भी उसे देख नहीं सकता है।
यहाँ तक कि ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनियाँ भी नहीं।
इसका कारण क्या है?
यही तो श्रीशांभवी मुद्रा का रहस्य है। इस मुद्रा को करते समय उपासक को उसकी गुरु की आज्ञा के अनुसार सुखासन में बैठना होता है। दोनों आँखे पूरी तरह बंद करके, बाद में उन बंद पलकों के पीछे रहनेवाली आँखों को अपने स्वयं के आज्ञाचक्र के स्थान पर अर्थात् तृतीय नेत्र के स्थान पर धीरे धीरे केंद्रित करना होता है।

इस क्रिया को कितने समय तक करना है, किस प्रकार से करना है, उस समय मंत्र कहने हैं, कौन से मंत्र कहने हैं, मन को कब शांत रखना है और मन को कब उस आज्ञाचक्र से बाँधे रखना है और कैसे, ये सभी बातें हर एक उपासक को सद्गुरु ब्राह्ममुहूर्त के समय पवित्र नदी के तीर पर सिखाते हैं।”
ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के द्वारा किया गया यह श्रीशांभवी मुद्रा का वर्णन सुनकर महर्षियों से लेकर शिवगणों तक सभी अत्यधिक आनंदित हो गये और ‘हमें भी यह (शांभवी मुद्रा) प्राप्त हो जाये' ऐसी इच्छा हर एक के मन में उत्पन्न हो गयी
और ऐसी इच्छा उनके मन में उठते ही ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने कहा, “बिना कारण के कोई भी साहस मत करना। मेरे द्वारा अथवा अन्य किसी के भी द्वारा किया गया वर्णन सुनकर एकदम से कोशिश मत करना।
क्योंकि यह श्रीशांभवी मुद्रा श्रीशांभवी विद्या की पंद्रहवीं और सोलहवीं पायदान पर ही प्राप्त होती है और इसे किया भी जा सकता है।
यह श्रीशांभवी मुद्रा यह शिव-शक्ति के एकत्व, एकरूपत्व एवं निरंतर साहचर्य को और ‘भेद होते हुए भी अभेद' ऐसे विलक्षण स्वरूप को तथा उसके पीछे रहनेवाले रहस्य को प्रकट करनेवाली है।
‘आदिमाता और उसी के ‘आदिपिता' रूप को जानना और उनका होकर रहना' यही एकमात्र उद्देश्य और यही एकमात्र ध्येय इन कक्षाओं पर होना आवश्यक है
और उपस्थित आप्तगणों! इतना विशाल ज्ञान प्रदान करनेवाली यह महागौरी भोले भाले श्रद्धावानों को उनके उनके स्तर पर अधिक मन:शांति, सबलता, चित्त की स्थिरता और आध्यात्मिक प्रगति देती रहती है।”