सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ५

सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ५

Previoust  Article  Next Article 

 

मराठी English  ગુજરાતી  বাংলা  తెలుగు   ಕನ್ನಡ   മലയാളം  தமிழ்

संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३८८ और १३८९।

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३८८ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

ॐ कल्पनारहितायै नमः।

यह जाप पूरा करके ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने ब्रह्मर्षि अगस्त्य के हाथों नवब्रह्मर्षि शशिभूषण के गले में ब्रह्मर्षिरुद्राक्षमाला पहनायी। इसके साथ ही ब्रह्मर्षि शशिभूषण ने दोनों हाथ जोड़कर आदिमाता के उपस्थित सभी रूपों को मन:पूर्वक प्रणाम किया और बड़ी ही विनम्रता के साथ लोपामुद्रा से प्रश्न पूछा, “ ‘ॐ कल्पनारहितायै नम:' यह श्रीललितासहस्रनाम का मन्त्र अब भी मेरे मन में विचरण कर रहा है। इस संदर्भ में कुछ स्पष्टीकरण क्या तुम मुझे दे सकती हो?”

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने एक छोटे से बालक की तरह शशिभूषण को अपने समीप ले लिया और कहा, “हे वत्स! इस नाम का अर्थ तुम ही अन्य सभी को बताओ, यह मेरी आज्ञा है।

क्योंकि दूसरों को सिखाते समय ही मानव अधिक बुद्धिमान बनता है।

क्योंकि दूसरों को उचित ज्ञान देने के लिए उस सच्चे सिखाने वाले को अपने सारे पूर्वज्ञान एवं पूर्वानुभव को शत प्रतिशत उपयोग में लाना पड़ता है और इस प्रक्रिया में ही वह वास्तविक विद्वान बनता है।

अब तो तुम ब्रह्मर्षि बन गये हो और ब्रह्मर्षि या ब्रह्मवादिनी का प्रमुख कर्तव्य ज्ञान अथवा विज्ञान में मिलावट न होने देना और सामान्य मानवों तक आवश्यक ज्ञान को सुलभता से पहुँचाना यही होता है।”

ब्रह्मर्षि शशिभूषण ने कुछ पल के लिए ध्यान लगाकर अपना इतमिनान कर लिया और वह सारे ऋषियों, ऋषिकुमारों तथा शिवगणों को संबोधित करने लगा, “हे सज्जनों! आदिमाता का यह नाम सच में उसके सामर्थ्य का, सत्ता का और उसकी क्षमा एवं प्रेम का वास्तविक परिचय कराता है। हम मानव अपना अधिकतर जीवन विभिन्न कल्पनाओं में ही अथवा उनकी सहायता से ही जीते हैं।

कल्पना का अर्थ क्या है? तो ‘भविष्य में क्या होगा, किससे क्या और कैसे घटित होगा, जो घटित हुआ है और जिसकी मुझे जानकारी नहीं है, वह कैसे घटित हुआ होगा', इस बारे में अपनी अपनी क्षमता के अनुसार किये गये विभिन्न प्रकार के विचार अथवा तर्क अथवा संदेह अथवा भय ही कल्पना है।

बहुत बार अपनी अपनी कर्मफल की अपेक्षा यही सारी कल्पनाओं की मूल जननी होती है

और इसी कारण फलाशा और कल्पना और तर्ककुतर्क, संशय और भय इनका एक-दूसरे के साथ घना रिश्ता होता है।

कल्पना करना बिलकुल भी बुरा नहीं है; परन्तु जिस कल्पना को अनुभव का, चिन्तन का, अध्ययन का और ज्ञान का साथ नहीं होता और नीति की मर्यादा नहीं होती, वह कल्पना सदा ही मानव को गलत दिशा में ले जाती है।

बहुत बार मानवों की एक दूसरे के बारे में होने वालीं अनुचित धारणाएँ (गलतफहमियाँ) ये इस प्रकार की अनुचित कल्पनाओं में से ही जन्म लेती हैं।

हर एक मानव के मन में फलाशा तो होगी ही। लेकिन उस फलाशा में कितना उलझना है, यह हर एक को स्वयं को तय करना ही पडता है। क्योंकि फलाशा के जाल में अर्थात्‌ कल्पना के राज्य में जब वह उलझ जाता है, तब उसकी उद्यमशीलता कमज़ोर होती जाती है और उसकी कार्यशक्ति का ऱ्हास होता जाता है।

इसी कारण सनातन भारतीय वैदिक धर्म ने हमेशा ही निष्काम कर्मयोग को प्राथमिकता दी है।

परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मानव जो कुछ करनेवाला है, उसके अच्छे अथवा बुरे परिणामों के बारे में उसे विचार ही नहीं करना चाहिए।

क्योंकि ऐसे इस प्रकार के विचार यह कल्पना नहीं है; बल्कि ऐसे विचार अर्थात्‌ विवेक और बुद्धि की स्थिरता।

लेकिन उन परिणामों के विचार से डर जाना अथवा खुशी से पागल हो जाना, ये दोनों बातें कल्पना की ही संताने हैं।

यह हम सबकी आदिमाता ही अकेली ऐसी है कि जिसके द्वारा की गयी कल्पना ही तरल, सूक्ष्म और स्थूल इस प्रकार से तीनों स्तरों पर प्रत्यक्ष में प्रकट होती है - यह सामर्थ्य अन्य किसी का भी नहीं है

श्रीअनिरुद्धगुरुक्षेत्रम् में नवरात्रि के दौरान आदिमाता महिषासुरमर्दिनी का दर्शन लेते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू

और मानव यदि इसकी कृपा प्राप्त करना चाहता है, उसका सामीप्य प्राप्त करना चाहता है, तो इसके बारे में कल्पना करना बिलकुल भी उचित नहीं होगा।

फिर उसे क्या करना चाहिए?

यह प्रश्न हमारे मन में उठता ही है और उसका उत्तर भी एकदम आसान है और वह है १) इसका जो रूप हमें अच्छा लगता है, उसका ध्यान करना। २) इसके गुणों का अर्थात्‌

चरित्र का पठन, मनन, चिंतन एवं गुणसंकीर्तन करना और ३) अपनी सभी फलाशाओं को इसके चरणों में समर्पित कर देना।

हे आप्तजनों! हमारा स्वयं का मन जिस पल पूर्णत: कल्पनाविरहित होता है, उस उस पल हमने इसका आँचल पकडा हुआ होता है।”

इतना कहकर ब्रह्मर्षि शशिभूषण अचानक तटस्थ हो गया। उसकी बँद आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। उसकी पलकें काँप रही थीं और उसका संपूर्ण शरीर रोमांचित हुआ था

और ठीक उसी पल सद्गुरु भगवान श्रीत्रिविक्रम वहाँ पर प्रकट हो गया और उसने शशिभूषण को गले लगाकर उसे अपने अंक (गोद) में बिठाया और उसके माथे को वात्सल्य प्रेम से चूमकर त्रिविक्रम ने उसे आँखें खोलने के लिए कहा।

आँखें खोलीं ब्रह्मर्षि शशिभूषण ने; परन्तु आश्चर्य से दंग रह गये, वहाँ पर उपस्थित सारे महर्षि, ऋषि, ऋषिकुमार और शिवगण।

बापू आगे तुलसीपत्र - १३८९ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

ऐसा क्या दिखायी दिया था? ऐसा क्या देखा था? और निश्चित रूप से क्या घटित हो रहा था? - कि जिससे ये सभी अचंभित हो गये थे और आँखें खोलनेवाला नवब्रह्मर्षि शशिभूषण शांत, स्थिर और अत्यधिक प्रसन्नचित्त था। क्या उसे यह सब कुछ दिखायी नहीं दे रहा था?

वास्तव में, बहुत ही अद्भुत घटित हो रहा था।

भगवान त्रिविक्रम के पीछे से नवदुर्गा स्कन्दमाता अपने सिंह पर आरूढ़ होकर और गोद में बाल-स्कन्द को लेकर बाहर आयी थी और सबके बीचों बीच आकर ठहर गयी थी

और उस समय अवकाशव्यापिनी स्कन्दमाता भी उसी प्रकार से स्थिर थी

और इतना ही नहीं, बल्कि भगवान त्रिविक्रम के ‘शिवनेत्रों' से (राम, शिव, हनुमानजी इन मुखों में से एक मुख रहनेवाले शिवमुख के नेत्रों से) बाहर प्रक्षेपित होनेवाले अत्यंत सुंदर स्वर्णवर्ण के प्रकाश के झोकें में भी स्कन्दमाता दिखायी दे रही थी।

परन्तु अवकाशव्यापिनी स्कन्दमाता का सिंह ज्येष्ठ-पुत्र ‘वीरभद्र' था,

सबके बीचोंबीच स्थिर हुई स्कन्दमाता का सिंह घनप्राण श्रीगणपति' था

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू के घर श्री गणेशजी की प्रतिष्ठापना 

और त्रिविक्रम के शिवनेत्रों से निकले हुए प्रकाश के झोंके में रहने वाली स्कन्दमाता का सिंह ‘स्कन्द-कार्तिकेय' था।

वे तीनों सिंह अत्यधिक प्रेम, श्रद्धा और सम्मान के साथ नवदुर्गाओं के नौ नामों का क्रमपूर्वक उच्चारण कर रहे थे।

इन त्रिविध रूपों को सभी ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों ने लोटांगण करके भावपूर्ण प्रणिपात किया और देवर्षि नारद एवं शिव-ऋषि तुम्बरु श्रीललिताम्बिका के अर्थात्‌ आदिमाता महादुर्गा के ललितासहस्रनामस्तोत्र का गायन करने लगे

और वह स्तोत्र पूरा हो जाते ही स्कन्दमाता के तीनों रूप एक पल में एकरूप होकर आदिमाता श्रीविद्या के स्वरूप में विलीन हो गये

और ठीक उसी पल एक तेजस्वी तलवार और एक श्वेतकमल आदिमाता श्रीविद्या के के अभयहस्त से बाहर आ गये

और उसी के साथ ब्रह्मर्षि ‘कात्यायन' उठकर ब्रह्मानंद से नृत्य करने लगे। अगस्त्य-पुत्र ‘कत' के पुत्र ब्रह्मर्षि ‘कात्य' थे और इन ब्रह्मर्षि कात्य के पुत्र थे, ‘कात्यायन'।

इन ब्रह्मर्षि कात्यायन ने आदिमाता का पराम्बा पूजन करते हुए १०८ वर्षों तक कठोर तपस्या की थी और भगवती पार्वती को पराम्बा उनकी पुत्री के रूप में जन्म दे, ऐसी इच्छा व्यक्त की थी और उसके अनुसार पराम्बा के वरदान के अनुसार कात्यायन की पत्नी ‘कृति' की कोख से छठी नवदुर्गा ‘कात्यायनी' का जन्म हुआ था।

इस कात्यायन की भक्ति हमेशा वात्सल्यभक्ति ही थी और इस समय भी वह ‘मेरी लाडली कन्या से मेरी मुलाकात होगी' इस आनंदभाव के साथ एक वत्सलपिता के रूप में नृत्य कर रहा था।

उसे उसका (कात्यायनी का) नवदुर्गा स्वरूप भी मंज़ूर था। छठी नवदुर्गा के रूप में वह उसके चरणों में माथा भी रखता था और उसके बाद अत्यंत वात्सल्यभाव से भगवती नवदुर्गा कात्यायनी के मस्तक को चूमता भी था।

ब्रह्मर्षि कात्यायन हर रोज़ ब्राह्ममहूरत के समय कात्यायनी के बालरूप का ध्यान करके पितृप्रेम का आनंद उठाता था,

जैसे जैसे मध्याह्न समय करीब आता था, उस समय ब्रह्मर्षि कात्यायन कात्यायनी की, अपनी माता के रूप में पुत्रकर्तव्य के अनुसार सेवा और पूजा करता था,

वहीं दोपहर के बाद सूर्यास्त तक कात्यायन उसे अपनी पितामही (दादी) मानकर उससे छोटे बच्चे की तरह अपना दुलार करवाता था, परन्तु सूर्यास्त के बाद वह उसका ही, साक्षात्‌ आदिमाता ललिताम्बिका के रूप में उसके विश्वातीत रूप का अवगाहन करता था।

इस प्रकार से वात्सल्यभक्ति के शिरोमणि रहनेवाले ब्रह्मर्षि कात्यायन के द्वारा उस तलवार और कमलपुष्प को सहलाये जाते ही, उस तलवार और उस कमलपुष्प को अपने बायें दोनों हाथों में धारण करनेवाली और दाहिने दोनों हाथ अभयमुद्रा और वरदमुद्रा में रहनेवाली छठी नवदुर्गा कात्यायनी अपने आप ही वहाँ पर प्रकट हुई।

मुख पर चंद्रमा का तेज रहनेवाली, परन्तु चन्द्रमा के समान दाग न रहनेवाली नवदुर्गा कात्यायनी यह भी सिंहवाहिनी (सिंह पर आरूढ़) ही थी।

परन्तु इसका सिंह एक ही समय पर पराक्रम और प्रसन्नता ये दोनों भाव धारण कर रहा था।

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा हाथ में रहनेवाले तबक (पूजा के लिए उपयोग में लायी जाने वाली एक प्रकार की थाली) में १०८ शुभ्रकमल लेकर आगे बढ़ गयी और ‘ॐ कात्यायन्यै नम:' इस मंत्र का उच्चारण करते हुए उसने उनमें से १०७ कमल नवदुर्गा कात्यायनी के चरणों पर अर्पित किये

और आख़िरी १०८ वाँ कमलपुष्प उसने उस सिंह के मस्तक पर अर्पित किया

और उसी के साथ उस सिंहदेह में ब्रह्मर्षियों से लेकर सामान्य श्रद्धावान तक आदिमाता का प्रत्येक भक्त दिखायी देने लगा।

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने अत्यंत वात्सल्यभाव से बोलना आरंभ किया, “यह छठी नवदुर्गा कात्यायनी यह नवरात्री की षष्ठी तिथि के दिन और रात की नायिका है

और यह शांभवीविद्या के ग्यारहवें और बारहवें पायदानों (कक्षाओं) की अधिष्ठात्री है।

यह कात्यायनी यह भक्तमाता पार्वती के वात्सल्यभाव का सहजसुंदर और सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है।”