सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ४

सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग ४

संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३८६ और १३८७।

 

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३८ इस अग्रलेख में लिखते हैं

 

भगवान हयग्रीव जब उस नवपरिणीत दंपति के साथ मार्कण्डेय के आश्रम की ओर चले गये, तब राजर्षि शशिभूषण ने अत्यधिक विनम्रता के साथ लोपामुद्रा से पूछा, “हे ज्येष्ठ ब्रह्मवादिनी! अब एक महिने तक, वास्तव में अधिक समय तक गौतम और अहल्या यहाँ पर नहीं होंगे। फिर इसके बाद तुम जो सिखाने वाली हो, क्या वे उस शिक्षा से वंचित रह जायेंगे? यह प्रश्न मुझे सता रहा है। तुम न्यायी हो, यह जानकर ही मैं तुमसे यह प्रश्न पूछ रहा हूँ।”

लोपामुद्रा ने अत्यंत कोमलता से उत्तर दिया, “अपनी कन्या को उसके पति के साथ बिदा कर चुके वधूपिता का भाव तुम्हारी आँखों में स्पष्ट रूप से दिखायी दे रहा है और तुम्हारे इस वत्सल भाव के प्रति सम्मान की भावना रखते हुए ही तुम्हें बताती हूँ - ) पहली बात तो यह है कि ये दोनों मार्कण्डेय से श्रीशांभवीविद्या की नौंवी और दसवी पायदानों के बारे में सविस्तार और विमर्शपूर्वक शिक्षा प्राप्त करने वाले ही हैं। साथ ही इससे आगे की सारी बातें उन्हें वहाँ पर प्राप्त होने वाली ही हैं और उचित समय पर वे यहाँ पर लौट कर भी आयेंगे। २) तुम सबसे महत्त्वपूर्ण बात भूल रहे हो और वह भी तुम्हारी वत्सलता के कारण ही और इसी लिए तुम्हें स्मरण दिलाती हूँ कि कैलाश पर नित्यसमय ही होता है। यहाँ पर काल का अस्तित्व नहीं होता।”

राजर्षि शशिभूषण ने आनन्दपूर्वक भावभीनी आवाज़ में लोपामुद्रा का धन्यवाद किया और अत्यंत शांत चित्त से वह फिर एक बार एकचित्त साधक बनकर अध्ययन करने बैठ गया।

लोपामुद्रा ने अब पुन: बोलना आरंभ किया, “नौंवी और दसवी पायदान पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने वाला ‘श्रीललितासहस्रनाम' तुम सब को भी सीखना है।

वह श्रीललितासहस्रनाम केवल कंठस्थ होना अथवा उसका एक के बाद एक पाठ करते रहना यह वास्तविक साधना नहीं है।

क्योंकि श्रीललितासहस्रनाम का हर एक नाम यह सहस्रार चक्र के एक अथवा अनेक पंखुड़ियों (दलों) को तेजस्वी बनाने वाली और रस प्रदान करनेवाली रसवाहिनी ही है।

यहाँ पर बैठा हुआ हर ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनी उस पद पर तभी पहुँचे, जब यह ललितासहस्रनाम और उनका सहस्रार चक्र इनके बीच अनन्य रिश्ता उत्पन्न हो गया। अर्थात्‌‍ जब मानव के सहस्रार चक्र का एक एक दल ललितासहस्रनाम के एक एक नाम से ओतप्रोत एवं पूर्ण रूप से भारित हो जाता है, तभी ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनी का जन्म होता है

तो फिर औरों के बारे में क्या? यह प्रश्न तुम्हारे मन में उठ सकता है; वास्तव में, यह प्रश्न तुम्हारे मन में उठना ही चाहिए। क्योंकि प्रश्न के बिना प्रयास नहीं, प्रयास के बिना उत्तर नहीं और उत्तर के बिना प्रगति नहीं

और हर एक का उसके भीतर रहनेवाले आसुरी वृत्ति के साथ होनेवाला युद्ध यही श्रीशांभवी विद्या की नौंवी और दसवी पायदान है

और कोई भी युद्ध ललितासहस्रनाम के बिना विजयी सिद्ध हो ही नहीं सकता।

ललितासहस्रनाम के समर्थन और आधार पर लड़नेवाला पक्ष देवयान पंथ का होता है और उसे विशुद्ध यश प्राप्त होता है

और यदि दोनों पक्ष ललितासहस्रनाम के आधार पर युद्ध करनेवाले होंगे तो स्वयं ललिताम्बिका ऐसे युद्ध में हस्तक्षेप करती है और उन दोनों पक्षों में सुलह करवाती है।

क्योंकि ‘ललिताम्बिका' यह स्वरूप ही मूलतः युद्धकर्ता भी है और शांतिकर्ता भी है

आदिमाता महिषासुरमर्दिनी पूजन

और इसी लिए ललिताम्बिका का धनुष्य किसी भी धातु से बना नहीं होता है; बल्कि नित्य नूतन ऐसे इक्षुदंड (गन्ना) का होता है और इसके बाण कमल के डंठल और कमलकलिका इन्हीं के बने हुए होते हैं।

नवदुर्गा स्कन्दमाता ही ललितासहस्रनाम के अध्ययन की दिग्दर्शिका है और भगवान हयग्रीव इस सहस्रनाम का सदैव गायन करते रहता है।

भगवान स्कंद के जन्म के ठीक एक साल बाद यह स्कन्दमाता पार्वती ललितासहस्रनाम का पठन करते हुए ध्यान में इतनी मग्न हो गयी कि उसे किसी भी बात का ध्यान नहीं रहा।

वह एक वर्ष का बालक स्कंद अर्थात्‌‍ कुमार खेलते खेलते हिमालय के मणिशिखर (एव्हरेस्ट - Everest) पर जा पहुँचा और वहाँ से नीचे छलाँग लगाने की कोशिश कर रहा था।

उस समय हमेशा जागृत रहनेवाली ललिताम्बिका उसी पल मणिशिखर पर आ पहुँची और उसने नीचे गिरनेवाले कुमार कार्तिकेय का दाहिना हाथ कसकर पकड़ लिया

और ठीक उसी समय आंतरिक वत्सलता से जागृत हो गयी स्कन्दमाता पार्वती भी, अपने स्थान से मणिशिखर तक दौड़ते हुए चढ़ गयी और उसने नीचे गिर रहे कुमार कार्तिकेय का बायाँ हाथ पकड़ लिया।

उन दोनों के भी मन में एक-दूसरे के प्रति अत्यधिक कृतज्ञता का भाव था और आगे चलकर देवसेनापति बननेवाले कुमार कार्तिकेय के प्रति अपरंपार वत्सलता थी।

स्कन्दमाता पार्वती का ललितासहस्रनाम का पठन उसके जागृत होने के बाद, वह जब दौड़ते-भागते हुए शिखर पर चढ़ रही थी तब भी और गिर रहे कार्तिकेय को सँभालने के बाद भी चल ही रहा था

और इससे वह ललिताम्बिका अत्यधिक प्रसन्न हो गयी।

अब स्कन्द के छहों मुखों को एक ही समय पर भूख लगी थी और यह जानकर उन दोनों के स्तनों में एक ही समय पर दूध की सहजधारा प्रवाहित हुई।

स्कन्द कार्तिकेय ने उन दोनों के भी हाथ कसकर पकड़ रखे थे और वह दोनों का भी स्तनपान कर रहा था

और पूर्ण रूप से स्तनपान करने के बाद उसके छहों मुखों से उद्गार उत्पन्न हो गया (उसे डकार आ गयी) - वह उद्गार (डकार) किसी आम उद्गार के समान नहीं था; बल्कि वह श्रीललितासहस्रनाम का प्राकृतिक एवं सहज उच्चारण था

और इसी कारण उस पल के लिए ललिताम्बिका और स्कन्दमाता पार्वती एकरूप हो गयीं

और फिर जिस प्रकार से ‘श्रीयंत्र' यह लक्ष्मी और महालक्ष्मी इन दोनों का एकत्रित स्थान है और ‘श्रीसूक्त' यह लक्ष्मी और महालक्ष्मी का एकत्रित स्तोत्र है,

उसी प्रकार से ‘श्रीललितासहस्रनाम' यह पार्वती और ललिताम्बिका का एकत्रित स्तोत्र बन गया और ‘शांभवीविद्या' यह दोनों का एकत्रित स्थान बन गयी।” 

श्रीयंत्र की आरती करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू 

बापू आगे तुलसीपत्र - १३८ इस अग्रलेख में लिखते हैं,

यह सारा कथानक सुनते हुए वहीं पर आसनस्थ रहने वाले भगवान स्कन्द के मन में ‘वे' पुरानी वत्सल यादें बड़ी तेज़ी से जागृत हो गयीं और उसने जननी माता पार्वती के चरणों में माथा टेककर ललितासहस्रनाम का पाठ करना आरंभ किया - अपने आप एवं सहज ही।

और ठीक उसी समय राजर्षि शशिभूषण की आँखों को पार्वती के हमेशा रहने वाले ‘चन्द्रघण्टा' स्वरूप के स्थान पर ‘स्कन्दमाता' यह स्वरूप दिखायी देने लगा।

इतना ही नहीं, बल्कि उस स्कन्दमाता की आकृति बड़ी ही धीमी गति के साथ विस्तृत एवं व्यापक बनती गयी और एक पल उसे संपूर्ण आकाश स्कन्दमाता के रूप से भरा महसूस होने लगा

और इसके साथ ही राजर्षि शशिभूषण उठकर खड़ा हो गया और सहजभाव के साथ उस आकाशव्यापी स्कन्दमाता के चरणों को छूने के लिए उन चरणों की दिशा में जाने लगा।

जैसे जैसे वह उन चरणों के पास जा रहा था, वैसे वैसे स्कन्दमाता के वे दोनों चरण पृथ्वी से ऊपर की दिशा में जाने लगे।

अब उस सिंहवाहिनी स्कन्दमाता का दाहिना चरण पृथ्वी की दिशा में सहजावस्था में था; वहीं उसने अपना बायाँ पैर मोड़कर उसपर बालस्कन्द को धारण किया था और इस कारण उसका बायाँ पैर आड़ा होने के बावजूद भी सीधा ही था।

राजर्षि शशिभूषण, स्कन्दमाता का वह दाहिना चरण उसके अधिक समीप होने के बावजूद भी, स्कन्दमाता के उस बायें चरण की ओर ही पूर्ण रूप से आकृष्ट हो गया था।

उसे सीधे रहने वाले उस बायें चरण के

तलवे में क्या

दिखायी दे रहा था?

 स्कन्दमाता और उनका बायां चरण

राजर्षि शशिभूषण पूर्ण रूप से अचंभित हो गया था, वह आनन्द की एक एक पायदान ऊपर चढ़ता जा रहा था और अब वह धीरे धीरे सुस्पष्ट आवाज़ में बोलने लगा, “हे स्कन्दमाता! हे नवदुर्गा! तुम्हारे इस बायें चरण के तलवे में मुझे सारे ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों की तपश्चर्याएँ दिखायी दे रही हैं

और वे तपश्चर्याएँ करने वाले ब्रह्मर्षियों की नज़र के सामने भी मुझे पुन: केवल तुम्हारा यह बायाँ चरण इसी प्रकार से दिखायी दे रहा है

और उस हर एक ब्रह्मर्षि को तुम्हारे पैर के तलवे में क्या दिखायी दे रहा है, यह मुझे ज्ञात नहीं हुआ है - परन्तु उनके दोनों नयन तुम्हारे उस तलवे की ओर देखते हुए विस्फारित हो रहे हैं, इतना मुझे अवश्य दिखायी दे रहा है।

आहाहा! तुम्हारे बायें और दाहिने हाथ के दोनों कमलपुष्प अब उन ब्रह्मर्षियों के माथे को स्पर्श कर रहे हैं।

आहाहा! तुम्हारे उन दोनों हाथों के कमलपुष्प ये वास्तव में तुम्हारे और शिव के सहस्रार चक्र हैं और उनका स्पर्श हो जाते ही.…”

इतना कहकर राजर्षि शशिभूषण मृत हो जाने के समान, श्वास-उच्छ्वास और हृदयक्रिया न होने वाला इस तरह का बनकर अवकाश में तैरने लगा।

उसकी धर्मपत्नी ब्रह्मवादिनी पूर्णाहुति बड़े ही प्रेम एवं अत्यानन्द के साथ अन्तरिक्ष में छलाँग लगाकर अपने पति के देह का दाहिना हाथ अपने हाथ में पकडकर उसे धीरे धीरे पुन: कैलाश पर उतारने लगी

और जिस पल राजर्षि शशिभूषण के कदमों ने कैलाशभूमि को स्पर्श किया, उसी पल वह पुन: पूर्ण प्राणवान बन गया

और उसकी उस पहली साँस के साथ उसका सहस्रार चक्र-कमल पूरी तरह खिलकर उसके मस्तक में से दसों दिशाओं में बाहर निकलता हुआ सभी को दिखायी दिया।

किसी को भी ब्रह्मर्षि होते हुए आज, ब्रह्मर्षि न होने वाले अनेक जन देख रहे थे

और ज्येष्ठ ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा कह रही थी, “अब शशिभूषण ‘ब्रह्मर्षि' बन गया है और कुछ देर पहले मैंने तुम्हें जिसके बारे में बताया था, वह ब्रह्मर्षि का जन्म होने की संपूर्ण प्रक्रिया तुम सबने अभी देखी ही है।”

ब्रह्मर्षि शशिभूषण

का जयजयकार हो'

ऐसीं घोषणाएँ देते हुए वहाँ के सभी उपस्थित आनन्द के साथ नृत्य करने लगे।

यहाँ तक कि शिव, महाविष्णु, प्रजापतिब्रह्मा, गणपति, वीरभद्र, देवर्षि नारद और शिव-ऋषि तुम्बरु भी इसमें सम्मिलित हो गये थे

और ब्रह्मर्षि शशिभूषण की दोनों आँखें खुल जाते ही वह आदिमाता श्रीविद्या के चरणों में लोट गया

आदिमाता श्रीविद्या

और ठीक उसी समय स्कन्द-कार्तिकेय के मुख से ललितासहस्रनाम के एक विलक्षण अद्भुत नाम का उच्चारण किया गया,

ॐ कल्पनारहितायै नम:'

और इस नाम के उच्चारण के साथ ही ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा और नवदुर्गा स्कन्दमाता ने स्कन्द की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर उसी नाम का १०८ बार उच्चारण किया।