'करुणात्रिपदी' के प्रथम पद का अर्थ

'करुणात्रिपदी' के प्रथम पद का अर्थ

मराठी 

 

शांत हो श्रीगुरुदत्ता मम चित्ता शमवी आता ॥धृ.

हे श्रीगुरुदत्त, आप सदैव शांत ही रहते हैं। आपको क्रोध आना संभव ही नहीं है। परन्तु भक्तों के हित के लिए आपने जो क्रोध धारण किया है, उससे मुझे भय लग रहा है। हे श्रीगुरुराज, मेरे मन का भय शांत कीजिए। मेरा चित्त, जो भय, डर, अस्थिरता और असुरक्षा से ग्रस्त हो गया है, उसे शांत कीजिए, इन सभी का शमन कीजिए। 

तू केवळ माताजनिता सर्वथा तू हितकर्ता

तू आप्तस्वजन भ्राता सर्वथा तूचि त्राता

भयकर्ता तू भयहर्ता दंडधर्ता तू परिपाता

तुजवाचुनि दुजी वार्ता तू आर्ता आश्रय दाता ॥१॥

हे श्रीगुरुराज, केवल आप ही मेरे माता-पिता हैं अर्थात् मुझे जन्म देने वाले और मेरा पालन-पोषण करने वाले भी आप ही हैं। आप ही मेरे हर प्रकार से हित करने वाले हैं। आप ही मेरे सच्चे आप्त हैं, आप ही मेरे सगे-रिश्तेदार, मेरे भाई भी हैं। आप ही मेरे सम्पूर्ण रूप से रक्षक हैं।

हमारे कल्याण के लिए, समय आने पर भय उत्पन्न करने वाले, हमें भय दिखाने वाले आप ही हैं और भय का हरण करने वाले भी आप ही हैं और इसी उद्देश्य से आपने हाथ में दंड धारण किया है और सज़ा से बचाने वाले, क्षमा करने वाले भी आप ही हैं। आपके सिवा और कोई भी मेरा नहीं है और आप के अलावा और कुछ भी मुझे ज्ञात नहीं है। मुझ जैसे दुखी, त्रस्त, पीड़ित, संकट में फँसे लोगों के आश्रयदाता आप ही हैं। हे श्रीगुरुदत्त, आप ही हम जैसे पीड़ितों के एकमात्र आश्रयकर्ता हैं। 

अपराधास्तव गुरुनाथा जरि दंडा धरिसी यथार्था

तरी आम्ही गाउनि गाथा तव चरणीं नमवू माथा

तू तथापि दंडिसी देवा कोणाचा मग करू धावा?

सोडविता दुसरा तेंव्हा कोण दत्ता आम्हा त्राता? ॥२॥

हे श्रीगुरुनाथ! हमारे अपराधों को, दुष्कर्मों को और पापों को दंडित करने के लिए अर्थात् हमारा कल्याण करने के उद्देश्य से आपने हाथ में दंड धारण किया है। यह यद्यपि उचित है, फिर भी हम अपराधी, आपका नामसंकीर्तन करके, आपके चरित्र और लीलाओं का गुणगान करके, आपके चरणों में नतमस्तक होकर आपकी शरण में आए हैं।

फिर भी हे प्रभु! यदि आपने हमें दंडित किया, तो हम, आपके बच्चे भला और किसे गुहार लगायेंगे? हे श्रीगुरुदत्त! आपके सिवा हमें अपराधों से, दुःखों से, कष्टों से और यातनाओं से मुक्त करने वाला, हमारी रक्षा करने वाला भला अन्य कोई है क्या? नहीं प्रभु, कोई भी नहीं है।

 

तू नटसा होउनि कोपी दंडितांहि आम्ही पापी

पुनरपिही चुकत तथापि आम्हांवरि नच संतापी

गच्छतः स्खलनं क्वापि असे मानुनि नच हो कोपी

निज कृपालेशा ओपी आम्हांवरि तू भगवंता ॥३॥

वास्तव में, आप कभी भी अपने बच्चों पर क्रोधित नहीं होते। किसी अभिनेता की तरह, हमारे कल्याण के लिए, आप क्रोधित होने का अभिनय कर रहे हैं। उस अभिनेता की तरह क्रोध का रूप धारण करके आप हम पापी जीवों को दंडित करते हैं। फिर भी हम सुधरे हुए अज्ञानी बार-बार वही गलतियाँ करते रहते हैं। इसलिए, हे श्रीगुरुदत्त, हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हम पर क्रोधित हों।

'गच्छतः स्खलनं क्वापि' अर्थात् जैसे रास्ते पर चल रहा मनुष्य चलते चलते कभी कभी फिसलकर गिर सकता है, उसी प्रकार कर्म करते समय हमसे गलतियाँ हो सकती हैं और होती भी हैं, यह जानकर आप कृपया हम पर क्रोधित हों। हे भगवन्! अपनी कृपा की वर्षा हम पर करें, क्योंकि आपकी कृपा का एक छोटी-सा अंश भी हमारा उद्धार करने के लिए समर्थ है। 

तव पदरी असता ताता आडमार्गी पाऊल पडतां

सांभाळुनि मार्गावरता आणिता दुजा त्राता ।।

निज बिरुदा आणुनि चित्ता तू पतीतपावन दत्ता

वळे आता आम्हांवरता करुणाघन तू गुरुदत्ता ॥४॥

हे भक्तपिता श्रीगुरु दत्तात्रेय! आपके चरणकमलों का आश्रय करने पर भी यदि हमारा पाँव गलत मार्ग पर पड़ जाये अर्थात् हम गलत आचरण करें, तब भी आप हमें सँभालकर सुरक्षित रूप से फिर से सही मार्ग पर ले आते हैं। ऐसा दूसरा कोई हमारा तारणहार नहीं है।

हे पतितों को पावन करने वाले श्रीगुरुदत्त, करुणाघन, आपके इस बिरद को चित्त में धारण करके हम पर अपनी कृपा सदैव बरसाते रहें। 

सहकुटुंब सहपरिवार दास आम्ही हे घरदार

तव पदीं अर्पू असार संसाराहित हा भार

परिहारिसी करुणासिंधो तू दीनानाथ सुबंधो

आम्हा अघलेश बाधो वासुदेवप्रार्थित दत्ता ॥५॥  

श्रीगुरु दत्तात्रेय! हम पूरे कुटुंब, पूरे परिवार सहित केवल आप ही के दास हैं। इस नश्वर और क्षणभंगुर संसार की, गृहस्थ-जीवन की आसक्ति, हमारे कर्म यही हमारे संपूर्ण विकास में बाधा बनने वाला बोझ हैं, जो हमारा अहित करता है। हमयहसारा बोझ आपके चरणों में अर्पण करते हैं।

हे गुरुराज! हे करुणा के सागर! आप हम दीन-दुखियों के स्वामी हैं, हमारे सच्चे हितैषी हैं। आप हमारे सभी दुखों का, क्लेशों का, दुष्प्रारब्ध का और अनुचित का समूल नाश करते हैं। हे दत्तात्रेय! आपकी सेवा में हमारे पापों की रत्ती भर भी बाधा आने दीजिए, ऐसी प्रार्थना मैं, वासुदेव (परमपूज्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीवासुदेवानंदसरस्वतीस्वामीजी) आपसे कर रहा हूँ।