वैदिक गणपति

वैदिक गणपति

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सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू का दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित अग्रलेख (१५-१२-२००६)

‘ऋग्वेद में वर्णित ब्रह्मणस्पति-सूक्त और अथर्ववेद में वर्णित गणपति-अथर्वशीर्ष इस नाम से जाना जाने वाला एक उपनिषद्, इन दो समर्थ संदर्भों से श्री गणेश का वैदिक अस्तित्व सिद्ध होता है।

          ऋग्वेद में वर्णित यह मूल मंत्र निम्नलिखित है -

ॐ गणानां त्वां गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्‌‍ ।

ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्‌‍ ॥

 ऋग्वेद २/२३/१

भावार्थ - समुदाय का प्रभु होने के कारण तुम गणपति हो, सभी ज्ञानीजनों में तुम सर्वश्रेष्ठ हो, सभी कीर्तिमानों में तुम सर्वोच्च वरिष्ठ हो और तुम ही सभी सत्ताधारियों के सत्ताधारी हो, हम तुम्हें अत्यंत सम्मान के साथ निमंत्रित कर रहे हैं, तुम अपने संपूर्ण सामर्थ्य के साथ आ जाओ और इस आसन पर (मूलाधार चक्र में) विराजमान हो जाओ। (मूलाधार चक्र के आसन पर केवल तुम्हारा ही अधिकार चले।)

श्रीब्रह्मणस्पतिजी के पूजन के समय सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू

ब्रह्मणस्पति इस वैदिक देवता का ही एक नाम गणपति है अर्थात्‌‍ गणपति का ही एक नाम ब्रह्मणस्पति है। वैदिक काल में हर एक शुभकार्य का आरंभ ब्रह्मणस्पति को आवाहन करके ही किया जाता था और आज भी उसी मंत्र से गणपति को आवाहन करके पवित्र कार्य का आरंभ किया जाता है। ऋग्वेद में वर्णित ब्रह्मणस्पति ये ज्ञानदाता एवं श्रेष्ठ ज्ञानी हैं, जैसे कि गणपति भी ज्ञानदाता एवं बुद्धिदाता देवता हैं। ब्रह्मणस्पति के हाथों में रहने वाला स्वर्ण (सोने) का परशु आज भी गणपति के हाथों में है ही। भारत के प्राचीन इतिहास में ‘समन्वय' यह प्रधान तत्त्व होने के कारण अनेक देवताओं का आध्यात्मिक स्तर पर एकरूपत्व होता गया और वेदों में ही वर्णित सब कुछ ‘ब्रह्म' है, इस तत्त्व के कारण तथा ‘एकं सत्‌‍ विप्रा बहुधा वदन्ति।' (वह मूल अस्तित्व (परमेश्वर) एक ही है, ज्ञानी जन उसे कई नामों से जानते हैं अथवा आवाहन करते हैं।) इस संकल्पना के कारण कई मूर्तियाँ और कई रूप होने के बावजूद भी भारतीय संस्कृति में व्यावहारिक स्तर पर भी विभिन्न पंथों के उपास्य देवताओं का एकत्व सिद्ध होने में कभी भी कठिनाई नहीं आयी। 

श्रीब्रह्मणस्पतिजी की मूर्ति को अभिषेक

भारतीय संस्कृति के जनमानस में परमात्मा के विभिन्न रूपों के पीछे रहने वाला एकत्व यानी केशवत्व का एहसास इतनी प्रबलता से और गहराई तक जा पहुँचा होने के कारण सामान्य परन्तु सुशिक्षित अथवा अशिक्षित समाज के लिए भी गणपति यह आर्यों के देवता, वैदिकों के देवता, छोटी छोटी टोलियों के देवता अथवा वेदों में जिनका अस्तित्व नहीं है और पुराणों में से उत्पन्न हुए देवता इन जैसे विवादों का कोई भी अर्थ नहीं होता। ये विवाद इतिहास के कुछ ईमानदार अध्ययनकर्ता अथवा तथाकथित (सोकॉल्ड) नास्तिक बुद्धिवादियों के लिए ही होते हैं। सच्चे और ईमानदार इतिहास अनुसंधानकर्ता उनके द्वारा किये गये किसी भी देवता-विषयक अनुसंधान का उपयोग केवल संस्कृति के इतिहास के मार्गदर्शक स्तंभ के रूप में करते हैं, वहीं कुत्सित बुद्धि से इस तरह का अनुसंधान करने वाले समाज में फूट डालने के लिए ही इस तरह के अनुसंधानों का इस्तेमाल करवाते हैं; परन्तु किसी भी तरीके से तथा किसी के भी द्वारा देवता-विषयक अनुसंधान किया जाये अथवा अपनी राय के अनुसार देवता के विषय में विचार प्रस्तुत किये जायें, फिर भी उस देवता के आध्यात्मिक स्तर पर रहने वाले अस्तित्व को कभी भी खतरा नहीं हो सकता।

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू श्रीब्रह्मणस्पतिजी का दूर्वांकुरों से अर्चन करते हुए

गणपति को चाहे किसी का भी देवता माना जाये, तब भी ‘विश्व का घनप्राण' इस गणपति के मूल रूप में बदलाव नहीं होता अथवा (यह रूप) कभी भी नष्ट नहीं होगा, क्योंकि गणपति यह किसी अनुसंधानकर्ता के अनुसंधान से सिद्ध और प्रसिद्ध नहीं हुए हैं; बल्कि गणपति ये देवता अपने मूल रूप से भक्ति और ज्ञान का समन्वय साधने वाले ऋषियों के चिंतन द्वारा प्रकट हुए हैं, भक्तों के हृदय में प्रेम से सिद्ध हुए और उपास्य एवं उपासक इनके बीच एक-दूसरे के प्रति रहनेवाले प्रेम के कारण प्रसिद्ध हुए। इसी कारण ऋग्वेद में वर्णित ब्रह्मणस्पति ये कोई अलग ही देवता हैं और उन्हें केवल गणपति नाम से संबोधित किया गया था, इस तर्क  से भक्तहृदय का कोई संबंध नहीं होता। शिव और पार्वति के पुत्र होने वाले ये गणपति इसी कारण सभी उपासकों और पंथों के शुभकार्यों में पहले सम्मान के अधिकारी होते हैं। शैव, देवी-उपासक, वैष्णव, सूर्योपासक जैसे विभिन्न संप्रदायों में भी गणपति एक सुंदर सेतू का निर्माण करते हैं।

अथर्ववेद में वर्णित श्री गणपति-अथर्वशीर्ष अत्यंत सुस्पष्ट शब्दों में आज भी प्रचलित एवं सर्वमान्य रहने वाले गणपति के रूप का, आयुधों का और स्वभावविशेष का वर्णन करता है। इस अथर्वशीर्ष में भी इस गणपति के लिए सुस्पष्ट रूप से  ‘तुम रुद्र, विष्णु, अग्नि, इंद्र, चंद्र, सूर्य, वरुण सब कुछ हो' यह सुस्पष्ट रूप से उच्चारित किया गया है। फिर इन सभी रूपों के ऐतिहासिक संदर्भों की गणपति के ऐतिहासिक संदर्भों के साथ पडताल कर देखना भला क्या काम का साबित होगा? ऐसे अनुसंधान यानी जिनके पास बहुत खाली समय होता है, उनके द्वारा की गयी निरर्थक और खोखली बातें होती हैं और इनका संस्कृति के संवर्धन के लिए रत्ती भर भी उपयोग नहीं होता।

ज्ञानमार्ग में जिनकी श्रेष्ठता के बारे में कोई विवाद ही नहीं है, उन संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी (ग्रंथ) के आरंभ में ही -

‘ॐ नमो जी आद्या। वेद प्रतिपाद्या।

जय जय स्वसंवेद्या। आत्मरूपा॥

देवा तूचि गणेशु। सकलार्थमतिप्रकाशु।

म्हणे निवृत्तिदासु। अवधारिजो जी॥'

इस प्रकार से सुस्पष्ट रूप से श्री महागणपति के बारे में लिखा है। यदि गणपति और  ब्रह्मणस्पति एक ही नहीं होते और वेदों में गणपति का प्रतिपादन नहीं किया गया है, ऐसा माना जाये तो श्री ज्ञानेश्वर महाराज का यह वचन उसके विरोध में समर्थ रूप से खड़ा होता है। इतिहास का अध्ययन और अनुसंधान भले कोई कितने भी साधनों के द्वारा करें, लेकिन फिर भी समय के प्रचंड बलवान प्रवाह में उपलब्ध साधन और संदर्भ के हजारों गुना बातें नष्ट हुई होती हैं, अत एव विशेष रूप से सांस्कृतिक इतिहास का अनुसंधान करते हुए कोई भी स्वयं की राय एकमात्र सत्य के रूप में नहीं रख सकता। जीवित संस्कृति का एक प्रमुख लक्षण है, उसका प्रवाहित होते रहना यानी संस्कृति का प्रवास अर्थात्‌‍ अक्षरश: सैकड़ों कारणों से घटित हुए बदलाव। इन बदलावों से पूरी तरह और अविचल रूप में बाकी रहता है, वह केवल संपूर्ण सत्य ही और सत्य यह सच्ची वास्तविकता नहीं है, बल्कि सत्य यानी पवित्रता उत्पन्न करने वाली वास्तविकता और ऐसी पवित्र वास्तविकता से ही आनंद उत्पन्न होता रहता है और इसी कारण भक्तहृदय का रिश्ता ऐसे ‘सत्य' से होता है, मात्र कागज़ों और सबूतों के टुकडों से नहीं।

ब्रह्मणस्पति-सूक्त और अथर्वशीर्ष गणपति के वैदिक स्वरूप को सिद्ध करते हैं अथवा नहीं, इससे मेरा बिलकुल भी संबंध नहीं है, क्योंकि हजारों वर्षों से मानव समाज के भक्तमानस में दृढ हुआ और अधिष्ठित हुआ हर एक रूप उस ॐकार का यानी प्रणव का ही यानी केशव का ही रूप है, इस बारे में मुझे कभी भी संदेह नहीं था, नहीं है और ना ही होगा; क्योंकि केशव यानी शव अर्थात्‌‍ आकृति से परे रहने वाला चैतन्य का मूल स्रोत है। भले ही पूरा विश्व उसके अस्तित्व को नकारे, फिर भी उसका अस्तित्व नष्ट हो ही नहीं सकता।'

अग्रलेख का समापन करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू लिखते हैं -

‘मित्रों, इसी लिए अनावश्यक अत्यधिक चर्चा करने के बजाय पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ परमात्मा की उपासना कीजिए, कार्य को सिद्ध करने के लिए श्री समर्थ हैं ही।'