विज्ञानमय कोश का मस्तक

मराठी English ગુજરાતી ಕನ್ನಡ বাংলা తెలుగు
संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू का दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित अग्रलेख (०२-०९-२००६)
श्रीमहागणपति की जन्मकथा से स्पष्ट होने वाला तीसरा सिद्धांत आज हमें देखना है। द्रव्यशक्ति और चैतन्य इनका इस अतिप्रचंड विश्व में हर एक स्थान पर अत्यंत महन्मंगल एवं सहजसिद्ध सहयोग दिखायी देता है। परन्तु मनुष्य के मानवीय विश्व में स्थित इस द्रव्यशक्ति के विभिन्न रूप और आविष्कार तथा उस मूल शुद्ध एवं परमपवित्र चैतन्य के विभिन्न आविष्कार इनका सहयोग तो दिखायी देता ही है; लेकिन मनुष्य को प्राप्त बुद्धि की स्वतंत्रता यानी कर्मस्वतंत्रता के कारण संघर्ष भी दिखायी देता है। परन्तु यह शिव और शक्ति के बीच रहने वाला संघर्ष नहीं है, बल्कि उनके अनुयायियों की मानसिकता में रहने वाला संघर्ष है, इसे समझना अत्यंत आवश्यक है।

द्रव्यशक्ति का एक रूप है, मानव के भौतिक विकास में सहायकारी होनेवाली विद्या की विज्ञानशाखा। विज्ञान, फिर चाहे वह भौतिकशास्त्र का हेो, रसायनशास्त्र का हो अथवा जीवशास्त्र का हो, हमेशा मनुष्य की सभी तरह से प्रगति ही करता रहता है और वही उस जगन्माता की मूलभूत प्रेरणा है। परन्तु जब जगन्माता की वत्सलता से इस विज्ञान में वृद्धि होने लगती है, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर इन षड्रिपुओं के संवर्धन (को बढाने) के लिए मनुष्य विज्ञान का इस्तेमाल जगन्माता को अर्थात् महाप्रज्ञा को जो मान्य नहीं है, वे बातें करने के लिए करता है। ये जगन्माता अपनी आत्यंतिक वत्सलता के कारण अपनी संतानों के दुर्गुणों की ओर अनदेखा करके उन्हें अधिक से अधिक विकास करने का अवसर देती ही रहती हैं। परन्तु जब सभी भौतिक विद्याओं का इस्तेमाल उन परमात्मा की सत्य, प्रेम और आनंद इस त्रिसूत्री को त्यागकर होने लगता है, तब ये ही जगन्माता अपनी संतानों को उचित राह पर ले आने के लिए कार्य करने उद्युक्त हो जाती है। पवित्रता और सत्य से विमुख हो जाने के कारण ही जीव को असीम दुख भुगतने पड़ते हैं, यह जानकर वह करुणामयी माता अब उसके मातृत्व का अनुशासनप्रिय अवतार धारण करती है। एक सामान्य मानवी माँ भी गलती करने वाली, दर असल बार बार गलत बर्ताव करने वाली अपनी संतान को, उस संतान ही के कल्याण के लिए, “मेरे पास मत आना, मैं तुम्हारी नहीं हूँ, तुम मुझे बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते” ऐसा केवल मुख से बोलते हुए और प्यार को मन में ही रखते हुए उचित समय पर ताड़न भी करती है, तो फिर सब कुछ जानने वाली यह विश्वमाता अपनी संतानों के अधःपतन को टालने के लिए कोई भी कदम उठाने से क्या ज़रा सी भी पीछे हटेगी?

भौतिक विज्ञान के बल के कारण भगवान को भूल चुका और इसी कारण उन्मत्त होकर भगवान का न्याय मुझे लागू नहीं है, इस घमंड से सभी भौतिक विद्याओं और कलाओं का इस्तेमाल तथा विनियोग जब मनुष्य आसुरी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए करने लगता है, तब यह विज्ञान की जननी मानव के इस भौतिक बल को स्वयं की कलाई पर स्थित बाह्यलेप के मल के समान मानकर स्वयं से दूर कर देती है और वह भी उसे सुंदर और पुष्ट रूप देकर ही। इतना ही नहीं बल्कि; स्वयं की शुद्धि अर्थात स्नान का कारण बताकर मनुष्य के द्वारा ही उमा की वत्सलता का इस्तेमाल कर निर्माण किये गये भौतिक बल को स्वयं के अंतर्गृह के द्वार से बाहर निकालती है और वहीं पर खड़ा कर देती है और जिस पल उसका दरवाजा बंद हो जाता है, उसी पल ज़रा सा भी अहंकार अथवा अत्यल्प भी अपवित्रता को न सह सकने वाले वे परमशिव वहाँ आ जाते हैं। स्वाभाविक है कि मानवी अहंकार और परमात्मा की अकारण करुणा का संघर्ष आरंभ होता है और अर्थात् द्रव्यशक्ति के सामर्थ्य के कारण यानी भौतिक बल के कारण स्वयं को बलशाली मानने वाले उस तामसी अहंकार का मस्तक तोड दिया जाता है। लेकिन चाहे कितनी भी कठोर क्यों न बन जाये, फिर भी माँ का दिल व्यथित हो ही जाता है और वह स्वयं उसी के द्वारा बंद किये गये द्वार खोलकर दौड़ते हुए बाहर आ जाती है और अपने पति से संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाती है; क्योंकि वह जगन्माता ‘विज्ञान' का समूल नाश नहीं चाहती, बल्कि केवल विज्ञान के तामसिक मस्तक का ही नाश केवल अपेक्षित होता है। वह चाहती है कि उसका विज्ञानरूप लाड़ला बच्चा हमेशा जीवित ही रहे। देवों के गुरु बृहस्पति यानी पवित्रता के साथ आवश्यक होनेवाली सावधानी। यह वैश्विक सावधानी शिवशंकर को आज्ञा देती है, उस बालक को पुन: जीवित करने की और फिर उस सावधानी का स्वीकार की हुई वह पवित्रता यानी परमशिव उस बालक को गजमुख जोड देते हैं; क्योंकि माता पार्वती द्वारा ही उस बालक को जन्म के साथ ही ‘अंकुश' शस्त्र के रूप में दिया हुआ होता है। यह गजमस्तक यानी सभी भौतिक विद्याओं और बलों से ऊपर होनेवाला विज्ञान का ही मंगलमूर्ति स्वरूप है और ऐसा यह गजानन फिर एक बार शिव-पार्वती की गोद में विराजमान हो जाता है।
मानव के सभी सामर्थ्यों को और क्रियाओं को इसी लिए ये महागणपति ही शुभत्व, पवित्रता और मंगलमयता प्राप्त कराते हैं।