गजवदन

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सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू का दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित अग्रलेख (३१-०८-२००६)

श्रीगणपति की जन्मकथा से प्रकट होनेवाले दूसरे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को आज हमें देखना है। शिव का अर्थ है, अपवित्रता का नाश करने वाली परमात्मा की अभिव्यक्ति (अपवित्रता का नाश करने वाला परमात्मा का प्रकटन)। एक आम और अशिक्षित भारतीय भी जब किसी अपवित्र और घिन उत्पन्न करनेवाली स्थिति अथवा घटना को प्रत्यक्ष देखता है या उसके बारे में सुनता है, उसके बाद सहज ही वह ‘शिव, शिव, यह क्या है!' ऐसा कहता है। कोई भी प्रचलित आध्यात्मिक प्रशिक्षण न होने के बावजूद भी हर एक भारतीय को परंपरा से यह अपने आप ही ज्ञात हुआ होता है कि जो कुछ अपवित्र और बुरा है, उसका समूल उच्चाटन ‘शिव' के द्वारा किया जाता है। भारत के सभी प्रांतों के लोगों में यह एक धारणा अत्यधिक दृढ़ है कि स्त्री पर अत्याचार करने वाला व्यक्ति यदि शिव को अभिषेक अथवा शिव की उपासना करता है, तो उस व्यक्ति को तत्काल उसके पाप की कठोर सज़ा मिलती है। इतना ही नहीं, बल्कि ऐसे व्यक्ति के लिए ऊपरोक्त वर्णित उपासना करने वाले उसके आप्त को भी कठोर दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है। दूसरी धारणा यह है कि सोलह साल से कम उम्र के बालक को पीड़ा देने वाले व्यक्ति को शिव कभी भी शांति, संतोष और स्वास्थ्य का लाभ नहीं होने देते। इन सभी परंपरागत, प्रचलित धारणाओं से प्रकट होता है, परमात्मा का परमशिव स्वरूप, सदैव पवित्रता की रक्षा करने के लिए सावधान रहता है और पापों का नाश करने के लिए सहजसिद्ध रहता है। 

पवित्रता की रक्षा करने वाले ऐसे ये शिवजी भला बालगणेश का, एक निरपराध बालक का मस्तक कैसे काट सकते हैं। संभव ही नहीं है। यह घटना ही घटित होती है, अतिमानस स्तर पर। ‘कर्पूरगौर' यानी कपूर (कँफर) जैसे गोरे रंग के शिवजी के लिए, ऐसे शुद्धतम (सबसे शुद्ध) स्वरूप को माया के जाल में कई साधनाओं और उपासनाओं से निर्माण हुए मंत्रों और श्लोकों में स्थित मानवी अपवित्र भावनाओं को सहना मुश्किल हो गया। द्रव्यशक्ति माता पार्वती के सामर्थ्य से ही सिद्ध होनेवाली विभिन्न उपासनाएँ अथवा यज्ञ आदि कर्मकांड ही जब ‘शिवजी' का विरोध करने लगे यानी अपवित्र कार्य के लिए परमात्मा की उपासना का इस्तेमाल करने के प्रयोग होने लगे, तब स्वाभाविक है कि ये परमशिव परमात्मा क्रोधित हो उठे और उन्होंने इस तरह के मंत्रों और यज्ञ-विधानों में इस्तेमाल किये जानेवाले ‘मायाबीजों' को काट डाला और उसके स्थान पर हर एक परमात्मा-उपासना के मंत्र के आरंभ में ‘ओम्‌‍' (ॐ) अर्थात्‌‍ प्रणव का उच्चारण करना अनिवार्य (कम्पल्सरी) कर दिया। ॐकार ही वह गजमुख है, जिसे बालगणेश के शरीर पर लगाया गया। 

वेदों में भी पहली बार विनायक गणों का उल्लेख कष्ट पहुँचाने वाले और विघ्नों को उत्पन्न करने वाले इस प्रकार से ही प्राप्त होता है; वहीं ‘ब्रह्मणस्पति' इस गणपति के मूल रूप का उल्लेख पवित्रतम स्वरूप में ही प्राप्त होता है। ये दो बातें मूलत: विरुद्ध न होकर, ब्रह्मणस्पति (गणपति) के शासन से रहित होनेवाले विनायक गण यानी ॐ कार से विरहित अशुद्ध मंत्र-तंत्र इस महत्त्वपूर्ण सूत्र का यहाँ प्रतिपादन किया गया दिखायी देता है। 

घर के गणेशोत्सव की गणेशमूर्ति को पुष्पहार अर्पण करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू

‘ॐ' इस प्रणव चिह्न के ऐतिहासिक विकास को देखने से भी यह बात आसानी से समझ में आ सकती है। ईसापूर्व समय में प्राप्त हुए लिखित अथवा आलेखित वाङ्मय में प्रणव को अर्थात्‌‍ ओमकार को हम जिस प्रकार से लिखते हैं (ॐ), उस प्रकार से नहीं, बल्कि  ()  इस प्रकार से अंकित किया गया पाया जाता है।

 संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वरजी ने भी

ॐ नमोजी आद्या। वेदप्रतिपाद्या। जय जय स्वसंवेद्या। आत्मरूपा॥

इन सरल और सुस्पष्ट शब्दों में यह प्रतिपादित किया है कि गणेशजी ने इस विश्व में हुई प्रथम अभिव्यक्ति ॐकार इस ध्वनि को ही स्वयं के रूप के तौर पर धारण किया है और इसी कारण वे स्वसंवेद्य (स्वयं ही स्वयं को जानने वाले) हैं।

श्रीगणपति अथर्वशीर्ष यह तो श्रीमहागणपति की जन्मकथा के स्पष्टीकरण का परमोत्कर्ष है। ‘थर्व' का अर्थ है, चंचलता और असमंजसता और अथर्वस्तोत्र यह इस चंचलता एवं मानसिक असमंजसता को दूर करने वाला स्तोत्र है और ऐसा यह अथर्वशीर्ष यानी सभी मंत्रों का शीर्ष अर्थात्‌‍ मस्तक रहने वाला वह महागणपति है।

इसी कारण माता पार्वती इस गणपति से अत्यधिक प्रेम करती हैं और उस विषय में कई कथाएँ भी प्रचलित हैं। जो कुछ अनुचित है, उसे कभी भी बल की आपूर्ति न करना और जो कुछ उचित है, उसे ही बल की आपूर्ति करना, यह ॐकार का सबसे मुख्य गुणधर्म है और इसी कारण इस गजवदन (गज यानी हाथी जैसा मुख जिसका है, वह), मंगलमूर्ति महागणपति को प्रणाम किये बिना कोई भी मानवी कार्य शुभ हो ही नहीं सकता।