श्रीमहागणपति-दैवतविज्ञान
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सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू का दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित अग्रलेख (१५-१२-२००६)
‘पर्वत धारण करने वाली पृथ्वी का तरल स्वरूप हैं पार्वतीमाता अर्थात् चैतन्य को प्रकट होने के लिए आधारभूत होने वाली द्रव्यशक्ति (द्रव्य यानी भौतिक पदार्थ)। इस द्रव्यशक्ति की सहायता के बिना चैतन्य के आविष्कार प्रकट नहीं हो सकते और चैतन्य के बिना द्रव्यशक्ति का अस्तित्व ही नहीं होता; इसका अर्थ है कि द्रव्यशक्ति यह उस मूल चैतन्य से ही निर्माण होनेवाली और स्थूल स्वरूप की ओर प्रवास करने वाली शक्ति है और इसी कारण इस शक्ति का तरल स्वरूप जगन्माता पार्वती है, वही पूर्ण स्थूल स्वरूप पृथ्वी है। ऐसी इन माता पार्वती के पुत्र हैं गणपति, इसी कारण ये (गणपति) तरल स्वरूप में समूचे विश्व के घनप्राण हैं, सूक्ष्म स्वरूप में नाद हैं और स्थूल स्वरूप में परमात्मा महागणपति हैं।

समूचा विश्व ही प्रकट हुआ, प्रणव के नाद से ही। प्रणव का नाद गूँजने लगा और निर्गुण निराकार ब्रह्म से सगुण साकार विश्वरूप की उत्पत्ति होने लगी। इस ॐ कार का अथात् मूल ध्वनि का आज विश्व में निर्माण हो रही हर एक ध्वनि के साथ होने वाला रिश्ता ही श्रीमहागणपति है। मनुष्य ने उसे प्राप्त हुई बुद्धिमानी एवं विशेष ध्वनियुक्त संपर्कशक्ति यानी भाषा इनकी सहायता से ही समूची चौरासी लक्ष योनियों में से अपना श्रेष्ठत्व विकसित किया है। मनुष्य के हर एक विकास के आरंभ-स्थान में यह संपर्ककुशलता यानी भाषाविज्ञान है और इस भाषाविज्ञान के सभी स्रोत इन महागणपति के ही गुणों से प्रकट, सिद्ध एवं साध्य हो सकते हैं। मनुष्य के विकसनशील प्रवास में उसकी बुद्धि एवं मन को उसके स्वयं के इस भाषाविद्या और ध्वनिशास्त्र के अपार महत्त्व का एहसास होने लगा और उसी से ऋषियों का अर्थपरिपूर्ण चिंतन आरंभ हुआ। नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञासंपन्न इन ऋषियों ने उनकी निरीक्षणशक्ति की सहायता से किये हुए चिंतन से उन्हें ध्वनि के स्थूल, सूक्ष्म और तरल अस्तित्व का एहसास होने लगा और अंतत: वे ॐकार तक जा पहुँचे। ॐकार का ‘दर्शन' होते ही ऋषियों को परमेश्वर के सत्-चित्-आनंद स्वरूप का परिचय प्राप्त हुआ और फिर अध्यात्मशास्त्र विकसित होने लगा। इसी आध्यात्मिक प्रवास में मूल चैतन्य का और द्रव्यशक्ति का मनुष्य के लिए होने वाला अपरिहार्य रिश्ता उजागर हुआ। मनुष्य को प्राप्त शरीर, मन और बुद्धि इन तीनों जीवनस्तंभों का, द्रव्यशक्ति के उचित इस्तेमाल के बिना उचित विकास नहीं हो सकेगा इसका ऋषियों को विश्वास हुआ और उसी के साथ मूल चैतन्य के अधिष्ठान के बिना द्रव्यशक्ति का उचित उपयोग करना संभव नहीं होगा, इसका भी विश्वास हुआ और इसी लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति में भौतिक जीवनविषयक शास्त्र और अध्यात्मविषयक शास्त्र एक-दूसरे से कभी भी अलग नहीं रहें। इन प्रतिभावान ऋषियों ने पूरी तरह जान लिया था कि जब तक भौतिक विद्याओं को अध्यात्म का अधिष्ठान नहीं होगा, तब तक उनका विधायक एवं रचनात्मक उपयोग करवाना सम्भव नहीं होगा। अध्यात्म का अधिष्ठान न होने वाले भौतिक शास्त्रों की प्रगति से कई विध्वंसक, विनाशकारी तथा अपवित्र शक्ति और कार्य उत्पन्न हो सकते हैं। साथ ही ऋषियों ने यह भी पूरी तरह जान लिया था कि केवल आध्यात्मिक चिंतन, मनन और अध्ययन करने से यदि भौतिक विद्या कमजोर एवं अविकसित रहती है, तो देह धारण करने वाले मनुष्य के शरीर, मन और बुद्धि का उचित विकास असम्भव है। इन दोनों तत्त्वों का सन्तुलन ही मनुष्यों के जीवन का विकास और सुखों का सूत्र है, यह निर्णय निश्चित हुआ और इस सूत्र को ही ‘गणेशविद्या' नाम से संबोधित किया गया और इस ‘सन्तुलन' को ही शिव-पार्वती का पुत्र अर्थात् गणपति यह नामाभिधान प्राप्त हुआ।

सगुण साकार विश्व के अंतर्गत हर एक गुण का सन्तुलन रखने वाली शक्ति अर्थात् महागणपति और इसी लिए वे गुणेश भी हैं और विभिन्न गुणसमूहों के अधिपति होने के कारण वे गणेश भी हैं।
अध्यात्मशास्त्र और भौतिकशास्त्र यानी ज्ञान और विज्ञान इनके बीच रहने वाला मूल सन्तुलन अर्थात् महागणपति, यह जानने के बाद इस महागणपति के विभिन्न सूक्ष्म आविष्कारों की खोज आरंभ हुई। इस खोज प्रक्रिया में ही प्राणमय देह में स्थित मूलाधार चक्र का प्रभुत्व इन गणपति के पास ही है, यह ध्यान में आ गया और भारतीय शास्त्र में मूलाधार चक्र के स्वामी के रूप में गणपति की स्थापना हुई। भाषाविज्ञान और संपर्कशास्त्र का अध्ययन करते हुए गणपति का एक और सूक्ष्म स्वरूप एहसास के प्रदेश में आने लगा और वह था वाक् अर्थात् वाणी और बुद्धि का संचालकत्व। इसी कारण श्रीगणपति ये सभी विद्याओं के आश्रयस्थान और बुद्धिदाता के रूप में समाजमानस में दृढ़ होते गये।
कई विघ्नों, मुसीबतों और संकटों का रोज़ के जीवन में हर पल सामना करने वाले मनुष्य के मन का ‘धैर्य' अर्थात् सबूरी भी इस ‘सन्तुलन' का ही सूक्ष्म स्वरूप है और यही स्वरूप मनुष्यों को संकट से मार्ग निकालना सिखाता है, यह एहसास ऋषियों को हुआ और श्रीमहागणपति का ‘विघ्नहर्ता' यह स्वरूप एहसास के प्रांत में आ गया। इसी लिए रामदास स्वामी ने गणपति का वर्णन एकदम सीदे-सादे एवं आसान शब्दों में सुखकर्ता (सुखों को देने वाले), दु:खहर्ता (दुखों को हरने वाले) और विघ्नों की बात तक न रहने देने वाले इस प्रकार से किया है।
श्रीमहागणपति के इस लीला-स्वभाव की पहचान हो जाने के बाद स्वाभाविक रूप से उसका उपयोग करवाने के लिए अनुसंधानरूप सेतु बाँधने की एषणा (इच्छा) ऋषियों की विजिगीषु प्रज्ञा में उत्पन्न हुई और उसी से इन महागणपति के मंत्र और अथर्वशीर्ष का निर्माण हुआ। ‘गं' यह ध्वनिशास्त्र में रहने वाला बीजाक्षर घन (स्थूल) और तरल इनके बीच सन्तुलन साधने वाला है, यह बात अनुभवों से जानकर ‘गं' इस गणेशबीज को मंत्ररूप से सिद्ध किया गया और ‘गं' से ही गणपति यह नाम आगे आया। इससे पहले इसी रूप को ‘ब्रह्मणस्पति' इस सर्वसमावेशक नाम से संबोधित किया जाता था। ‘ब्रह्मणस्पति' से ‘गणपति' यह देवता का प्रवास नहीं है; बल्कि यह मनुष्य के एहसास का प्रवास है और इसी कारण यह विवाद उत्पन्न ही नहीं हो सकता कि ये दोनों अलग हैं या एक ही हैं। नाम और नामांतर यह मनुष्य की प्रज्ञा के विकास की उस उस अवस्था का सहज परिपाक होता है, परन्तु वह नामी केवल एक ही होता है और रहता है।'
अग्रलेख का समापन करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू लिखते हैं -
‘मित्रों, ‘समतोल' और ‘संतुलन' इन गुणों के बिना मनुष्य का तो क्या, लेकिन समूचे विश्व का अस्तित्व भी नहीं रह सकता। मनुष्य जीवन में यह सन्तुलन बनाये रखना ही विघ्ननाश है। मनुष्य यह विघ्ननाश करने का सामर्थ्य विश्व की मूल ‘सन्तुलन' शक्ति से ही प्राप्त कर सकता है और इसी कारण गणपति सदा ही सभी शुभकार्यों के अग्रस्थान पर रहने वाले ही हैं।'
