रामरक्षा प्रवचन-१६ | रक्षा कवच का रहस्य - शिरो मे राघव: पातु | Aniruddha Bapu | Ram Raksha Pravachan

रामरक्षा प्रवचन-१६ | रक्षा कवच का रहस्य - शिरो मे राघव: पातु | Aniruddha Bapu | Ram Raksha Pravachan

 

 

दिनांक ०३ मार्च २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित प्रवचन में,  ‘रक्षा कवच’ पर विवेचन शुरू करने से पहले सद्गुरु अनिरुद्ध बापूजी, इस रक्षा कवच से संबंधित एक बहुत बड़ा रहस्य उजागर करते हैं कि यह रक्षा कवच बोलते समय हमारी मनोभूमिका कैसी होनी चाहिए, जिससे हमें सर्वाधिक फ़ायदा होगा। साथ ही, इस रक्षा कवच की विभिन्न पंक्तियों में भगवान श्रीराम के लिए - कभी ‘राघव’, कभी ‘दशरथात्मज’, कभी ‘कौसल्येय’, कभी ‘सौमित्रीवत्सल’ ऐसे अलग-अलग विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वह किसलिए, इसका भी जवाब सद्गुरु बापूजी यहाँ देते हैं और वह-वह विशेषण ही उस-उस स्थाम पर कैसे उचित है, यह भी वे उदाहरणों के साथ स्पष्ट करते हैं।

 

रक्षा कवच की पहली ही पंक्ति है - ‘शिरो मे राघव: पातु’, अर्थात् ‘ये राघव मेरे सिर की रक्षा करें’. लेकिन यहाँ ‘सिर’ मतलब केवल ‘शारीरिक सिर’ नहीं, बल्कि अन्य भी कई बातें इस पंक्ति के ‘सिर’ इस शब्द में अंतर्भूत हैं, यह बताते समय ही, यहाँ श्रीराम के लिए ‘राघव’ इस शब्द का ही प्रयोग क्यों किया गया है, इसे भी सद्गुरु अनिरुद्धजी उजागर करते हैं। असंतुलन, भय, लघुत्व इनकी परिसीमा यानी रावण; वहीं, संतुलन देनेवाले, भय को नष्ट करनेवाले, गुरुत्व की ओर ले जानेवाले, वे राघव हैं। इस कारण यह संतुलन, गुरुत्व, ये ‘राघव’ होनेवाले श्रीराम ही कैसे दे सकते हैं, इसका भी विश्लेषण वे करते हैं। 

 

नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी’ (प्रभु श्रीराम कभी भी अपने दास की उपेक्षा नहीं करते, उन्हें अपने दास पर गर्व होता है) यह समर्थ रामदास स्वामीजी ने दृढ़तापूर्वक कहा है, इसकी याद दिलाते समय ही, ‘लेकिन उसके लिए हमें प्रभु श्रीराम का दास बनना होगा’ इसका भी एहसास सद्गुरु बापूजी करा देते हैं। यह ‘दास’ बनने का पहला चरण यानी ‘छोटेपन को स्वीकारना’ (विनम्रता को स्वीकारना) यह कहते समय ही, ‘छोटापन’ यानी ‘लघुत्व’ नहीं, यह भक्तश्रेष्ठ हनुमानजी के उदाहरणों के आधार पर स्पष्ट करते हैं और अन्त में, भगवान से - ‘विनम्रता दीजिए भगवान’ यही माँगने के लिए कहते हैं।