रामरक्षा-२५ | भक्ति एवं बुद्धि का संबंध; मुख एवं जीभ का भक्तिमार्ग में महत्त्व

रामरक्षा-कवच की ‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ पंक्ति के विभिन्न पहलुओं को हमारे सामने उजागर करते हुए सद्गुरु अनिरुद्ध बापू हमें आगे-आगे ले जा रहे हैं। दिनांक १२ मई २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित इस प्रवचन में, सद्गुरु बापू ‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ इस पंक्ति के ‘मुख’ शब्द के एक और पहलू पर बात कर रहे हैं।
मुख का एक अहम भाग है ‘जीभ’। वह जितनी महत्त्वपूर्ण है, उतनी ही उसकी ज़िम्मेदारी भी कैसे बड़ी है, यह समझाकर बताते हुए सद्गुरु अनिरुद्ध यहाँ भक्तिमार्ग में तथा सर्वसामान्य व्यवहारिक जीवन में भी प्रचलित ग़लत धारणाओं पर प्रहार करते हैं और उसीके साथ यह दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित करते हैं कि ‘भक्तिमार्ग यह बुद्धिमान इन्सान का ही काम है, वह मूर्ख इन्सान का काम नहीं है’; क्योंकि बुद्धि न होनेवाले प्राणिमात्र भक्ति कर नहीं सकते, लेकिन मन से प्रेम कर सकते हैं, अर्थात् भक्ति करने के लिए बुद्धि आवश्यक है।
लक्ष्मणजी यानी साक्षात सहस्र मुखों वाले शेष। यहाँ हमें बात करने के संदर्भ में लक्ष्मणजी का अनुकरण कैसे करना चाहिए और किन मामलों में, वह सद्गुरु अनिरुद्ध समझाकर बताते हैं और उसी के साथ वे हमें यह भी आश्वस्त करते हैं कि जो जीभ का इस्तेमाल अच्छी तरह से करना सीखता है, उसी का जीवन सुंदर बनता है।
मनुष्य समाजप्रिय प्राणि है, लेकिन ‘समाज’ और ‘झुँड़’ इनमें फ़र्क़ है। कई बार इन्सान लोगों के बीच रहते हुए भी अकेला पड़ जाता है। वहीं, संतमंडली कई बार भगवान के अनुसंधान में पहाड़ियों में घूमते रहते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होता। यह फ़र्क़ क्यों है, यह भी सद्गुरु अनिरुद्ध बापू स्पष्ट करते हैं और उसीके साथ, उस अनुषंग से सामूहिक उपासना का महत्त्व भी मन पर अंकित करते हैं।
‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ के अन्य कुछ पहलुओं का अध्ययन अगले भाग में भी ऐसे ही जारी रहनेवाला है....
