रामरक्षा प्रवचन-१७ | भालं दशरथात्मज: - मन पर क़ाबू रखने का आसान मार्ग |

मोटे-मोटे जटिल आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ने के बाद हमें लगता है कि अध्यात्म यह समझने के लिए बहुत ही कठिन है; लेकिन दिनांक १० मार्च २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित प्रवचन में, सद्गुरु अनिरुद्ध बापूजी सर्वप्रथम हमें आश्वस्त करते हैं कि अध्यात्म यह दरअसल समझने के लिए बहुत ही आसान है। लेकिन उसीके साथ वे यह भी कहने से चूकते नहीं कि यह आसान प्रतीत होनेवाला अध्यात्म आचरण में लाने के लिए मनोनिग्रह की आवश्यकता होती है।
उसके बाद, ‘भालं दशरथात्मज:’ इस पंक्ति पर विवेचन शुरू करते हुए सर्वप्रथम सद्गुरु बापू हमें, ‘दशरथ के पुत्र रहनेवाले श्रीराम मेरे भालप्रदेश की रक्षा करें’ यह सरलार्थ बताते समय ही, ‘दशरथ’ यानी कौन, यह समझाकर बताते हैं। साथ ही, ‘आत्मज’ शव्द्र के अन्य अर्थों की ओर भी वे हमारा ध्यान खींचते हैं। अहम बात यानी, भालप्रदेश की रक्षा करनेवाले श्रीराम के लिए यहाँ ‘दशरथात्मज’ इसी विशेषण का इस्तेमाल क्यों किया गया है, यह विस्तार से स्पष्ट करते हैं।
हमारा मन ही इंद्रियाँ का प्रवर्तक है। यानी इंद्रियाँ की लगाम मन के हाथ में होती है, लेकिन मन स्वयं ही कई बार बेलगाम होता है। इसी कारण इंद्रियाँ भी बेलगाम घोड़ों की तरह बर्ताव करती हैं। मन को नियंत्रण में कैसे रखा जायें, इसका रहस्य ही मानो इस ‘भालं दशरथात्मज:’ पंक्ति में है, यह बताकर सद्गुरु बापूजी उस रहस्य को उजागर करते हैं।
साथ ही, वे इस बात का भी एहसास कराते हैं कि जिस प्रकार प्रभु श्रीराम का राज्य पर अधिकार होने के बाबजूद भी उन्हें वनवास भेजा गया, उसी प्रकार हममें ही रहनेवाला परमात्मा का अंश जो जीवात्मा, उसे भी हम कैसे वनवास भेजते हैं और कष्ट पहुँचाते हैं; और यह कैसे टालना चाहिए।
हम ‘रामराज्य’ तो चाहते हैं, लेकिन ‘श्रीराम’ को नहीं चाहते। लेकिन अन्त में सद्गुरु अनिरुद्ध इस सत्य को स्पष्ट रूप से बताते हैं कि ‘जहाँ प्रभु श्रीराम, वहीं रामराज्य’!