रामरक्षा २३ - त्यागमूर्ति लक्ष्मण - लक्ष्मणरेखा,त्याग एवं रामप्रेम का अन्योन्य संबंध | Aniruddha Bapu

रामरक्षा-कवच की ‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ पंक्ति के प्रवास में हमने सुमित्राजी के बारे में जाना, यहाँ लक्ष्मणजी के ‘सौमित्र’ इसी नाम का प्रयोग क्यों किया है, उसके बारे में भी जाना। दिनांक २८ अप्रैल २००५ को किये रामरक्षा पर आधारित इस प्रवचन में, सद्गुरु अनिरुद्ध बापू ‘मुखं सौमित्रिवत्सल:’ इस पंक्ति के ‘सौमित्रिवत्सल’ इस पहलू पर बात कर रहे हैं।
‘सौमित्र पर यानी लक्ष्मणजी पर जिनका वात्सल्यपूर्ण यानी दिलोजान से और निरपेक्ष प्रेम है ऐसे’ यह सरलार्थ पहले बताकर, ‘लक्ष्मणजी ये श्रीराम को इतने प्रिय क्यों हैं’ यह समझने के लिए हमें पहले श्रीराम और लक्ष्मणजी के बीच के रिश्ते को ठीक से जान लेना होगा, ऐसा प्रतिपादन सद्गुरु बापू करते हैं।
‘लक्ष्मण’ की बात करें, तो हमें याद आती है वह ‘लक्ष्मणरेखा’। सद्गुरु अनिरुद्ध हमें तीन अहम मुद्दे समझाकर बताते हैं - (१) कैसे हम ग़लती से ‘सुख’ को ही ‘आनंद’ मान लेते हैं, (२) हमारे जीवन में लक्ष्मणरेखा कौनसी है और (३) हमारे जीवन की सीताजी को रावण कैसे भगा ले जाता है। साथ ही, त्याग की सर्वोच्च परिसीमा रहनेवाले, ‘त्याग’मूर्ति ऐसे लक्ष्मणजी श्रीराम को सबसे प्रिय क्यों हैं, इस बात को ठीक से समझ लेकर, उसके अर्थ को हमें हमारे जीवन से कैसे जोड़ना है, जिससे कि हम भी श्रीराम को प्रिय होंगे, यह भी वे स्पष्ट करते हैं।
उसी प्रकार, लक्ष्मणजी को सबसे प्रिय हैं श्रीराम के चरण, इमलिए हमें भी वे सर्वाधिक प्रिय होने चाहिए, यह बताते समय ही, सद्गुरु अनिरुद्धजी हमें यहाँ सचेत करते हैं कि अन्य किसी को नमस्कार करना और किसी से नमस्कार करवा लेना इस बात को लेकर हमें क्या एहतियाद बरतने चाहिए।