सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग १०     

सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्ध के भावविश्व से - पार्वतीमाता के नवदुर्गा स्वरूपों का परिचय – भाग १०     

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मराठी 

संदर्भ - सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू के दैनिक ‘प्रत्यक्ष’ में प्रकाशित 'तुलसीपत्र' इस अग्रलेखमाला के अग्रलेख क्रमांक १३९८ और १३९९। 

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू तुलसीपत्र – १३९८ इस अग्रलेख में लिखते हैं,  

श्रीशांभवी मुद्रा का संपूर्ण वर्णन और उसके प्रति बरतने वाली सावधानी यह अच्छे से जान लेने के बाद सभी शिवगण, ऋषिकुमार, ऋषि और यहाँ तक कि महर्षि भी आपस में चर्चा करके ज्येष्ठ ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा से विनति करने लगे, “हे सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवादिनी! हमारे मन में श्रीशांभवी मुद्रा के बारे में, आठवीं नवदुर्गा महागौरी के बारे में और उसने हमें दिये हुए अष्टदल श्वेतपुष्पों के बारे में अधिक जानने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो रही है और यह इच्छा भी हमारे हाथ में सदा के लिए चिपक गये इस श्वेतपुष्प की सुगन्ध के कारण अधिक ही बढ़ती जा रही है। हमपर कृपा करो।”

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने महागौरी और आदिमाता से अनुज्ञा लेकर बोलना शुरू किया, “हाँ, तुम्हारी जिज्ञासा उस श्वेतपुष्प के कारण ही बढ़ती जा रही है।

श्रद्धावानों की और सज्जनों की आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, कलाविषयक, व्यापारविषयक, कारीगरीविषयक, देशसुरक्षा-धर्मसुरक्षाविषयक, गृहस्थीविषयक इस प्रकार से सभी क्षेत्रों की जिज्ञासा उचित मार्ग से और उचित क्रम से बढ़ाते रहने का कार्य यह आठवीं नवदुर्गा महागौरी करती रहती है।

क्योंकि इस ‘महागौरी' रूप ने ही, उसके ही देह पर प्रत्यक्ष परमशिव के द्वारा किये गये सातवीं गंगा के लेप में से ही गणपति को जन्म दिया है और यह गणपति विश्व का घनप्राण होकर बुद्धिदाता, प्रकाशदाता एवं विघ्नहर्ता है।

फिर इसकी माता रहने वाली यह महागौरी अपने भक्तों को अर्थात्‌‍ श्रद्धावानों को गणपति से सारे वरदान मिल जायें ऐसी व्यवस्था करेगी ही ना! और इसी कारण यह श्रद्धावानों के मन में अच्छी और उपयोगी जिज्ञासाएँ निर्माण भी करती है और उन्हें पूरा भी कराती है।

प्रिय आप्तजनों! इस एक ही पार्वती का अष्टमी का रूप ‘महागौरी' यह इस प्रकार से कार्य कर रहा होने के कारण ही नवरात्रियों में अष्टमी तिथि का महत्त्व सर्वत्र विख्यात है।

अधिकतर स्थानों एवं प्रदेशों में नवरात्रि की अष्टमी के दिन होम, हवन, यजन, यज्ञ किये जाते हैं, वह केवल इसी लिए - क्योंकि पार्वती के जीवनप्रवास की यह ‘महागौरी' स्थिति अर्थात्‌‍ पड़ाव अर्थात्‌‍ रूप यह पहले के सात रूपों के साथ भी एकरूप है और अगले नौंवे रूप के साथ भी एकरूप है

और इसी कारण अष्टमी को किया गया हवन नौ की नौ नवदुर्गाओं को समान रूप से प्राप्त होता है,

साथ ही यह महागौरी प्रकट हुई वह भी आश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन ही।

अष्टमी के दिन किया गया हवन, पूजन, आनंदोत्सव, भक्तिनृत्य (गरबा आदि) और रात्रि जागरण, आदिमाता के चरित्र का पठन (मातृवात्सल्यविन्दानम्‌‍), आदिमाता के कार्य और गुणों  के कीर्तन का श्रवण एवं पठन (मातृवात्सल्य-उपनिषद्) यह सब कुछ स्वयं आदिमाता और सभी की सभी नौ नवदुर्गाओं को अत्यधिक प्रिय होता है -

- वास्तव में, आश्विन शुक्ल अष्टमी यह दिन सभी श्रद्धावानों के लिए बड़ा वरदान है-

- नवरात्रि में किये जानेवाले इस पूजन के कारण सभी की सभी नौ दुर्गाएँ श्रद्धावानों के लिए सहायकारी बन जाती हैं और यह महागौरी एवं स्कन्दमाता अपने पुत्रों के साथ सच्चे श्रद्धावान के घर में ही अपने आशीर्वादयुक्त स्पंदन वर्ष भर प्रक्षेपित करती रहती हैं

और इसी लिए श्रद्धावान, जैसा उसके लिए संभव हो सके उस प्रकार से और जितना संभव हो उतने प्रमाण में आश्विन नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि इन दो अत्यधिक पवित्र उत्सवों को अपनी अपनी क्षमता के अनुसार प्रेम एवं श्रद्धा के साथ आनंदोत्सव करते हुए मनायें।

हे श्रद्धावानों! जो जो श्रद्धावान मातृवात्सल्यविन्दानम्‌‍ और मातृवात्सल्य-उपनिषद्‌‍ का श्रद्धा से नियमित पठन करता है और प्रत्येक नवरात्रि में एक एक ग्रंथ का पारायण करता है, उसे यह महागौरी आठ वर्ष बाद यह श्वेतपुष्प प्रदान करती है

और एक बार यह श्वेतपुष्प जब श्रद्धावान के हाथ में चिपक जाता है, तो वह सदा के लिए ही चिपक जाता है।

क्योंकि वास्तव में वह श्वेतपुष्प उस श्रद्धावान के लिंगदेह से ही चिपक जाता है

और इस कारण उसके किसी भी जन्म में वह श्वेतपुष्प उससे अलग नहीं होता।

अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यह पुष्प अष्टदलों का ही क्यों है?

इसका उत्तर आदिमाता के शाकंभरी-शताक्षी अवतार के द्वारा ही दिया गया है - मनुष्य को चाहे गृहस्थी करनी हो अथवा अध्यात्म करना हो अथवा दोनों भी करना हो

श्रीश्वासम् उत्सव में आदिमाता शताक्षी के दर्शन करते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू

परन्तु उस हर एक कार्य के लिए उसे भौतिक, प्राणिक और मानसिक स्तर पर के आहार, जल एवं वायु की आवश्यकता होती ही है

और मनुष्य के त्रिविध देहों के लिए आवश्यक होनेवाले आहार, जल और वायु इनकी आपूर्ति आदिमाता की अष्टधा प्रकृति से ही होती रहती है

और यह श्वेत अष्टदलपुष्प उस अष्टधा प्रकृति का ही वरदान है और वह भी श्वेत वर्ण  वाला अर्थात्‌‍ पूर्ण रूप से शुद्ध एवं पवित्र।    

 बापू आगे तुलसीपत्र - १३९९ इस अग्रलेख में लिखते हैं,  

इस तरह नवरात्रि की अष्टमी तिथि के माहात्म्य के बारे में और महागौरी के द्वारा दिये गये श्वेत अष्टदलपुष्प के बारे में श्रद्धावानों को समझाने के बाद ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने सभी उपस्थित ब्रह्मर्षियों और ब्रह्मवादिनियों से, आदिमाता से अनुज्ञा लेकर वहाँ पर के उपस्थितों के छोटे छोटे गुटों को ‘श्रीशांभवी मुद्रा' प्रत्यक्ष करके दिखाने की विनती की।

प्रत्येक ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनी अपने अपने गुटों को लेकर अलग अलग जगह पर जाकर बैठ गये।

किसे किसके पास जाना है, यह सद्गुरु त्रिविक्रम ने ही बताया और कहाँ बैठना है, यह भी बताया।

हर एक शिवगण और ऋषिसमुदाय, उनके लिए निर्धारित की गयी जगह पर जाकर जैसे ही बैठ गया, वैसे ही वे सभी अचंभे के महासागर में उछलते हुए तैरने लगे।

कारण भी वैसा ही था - प्रत्येक ब्रह्मर्षि या ब्रह्मवादिनी के गुट के पास से एक एक गंगानदी बह रही थी।

प्रत्येक ब्रह्मर्षि या ब्रह्मवादिनी के आसन के पीछे एक खिला हुआ बिल्ववृक्ष (बेल का पेड़) था

और मुख्य बात यह थी कि हर एक गुट अन्य गुटों का दृश्य भी देख सक रहा था।

कितनी गंगाएँ! कितने बिल्ववृक्ष! और कहाँ कहाँ देखें!

वहीं, ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के पास कोई भी गुट नहीं गया था। उसे उसी का मार्गदर्शक का कार्य करना था।

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा बड़े ही विनम्रताभाव के साथ आदिमाता श्रीविद्या के चरणों में जाकर खड़ी हो गयी, “हे सभी श्रद्धावान आप्तगणों! अब आपने सब कुछ देख लिया है, साथ ही उसका आश्चर्य भी अभिव्यक्त किया है। अत एव इस पल से अपने अपने गुट के सद्गुरु की ओर ही ध्यान केन्द्रित करके रहिए।

आपके गुरु आपको आज श्रीशांभवी मुद्रा प्रदान नहीं करेंगे, बल्कि केवल तुम्हारे सामने प्रात्यक्षिक करके दिखाने वाले हैं।”

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा के कथन के अनुसार वहाँ पर का प्रत्येक उपस्थित केवल अपने अपने गुरु की तरफ देखने लगा।

प्रत्येक ब्रह्मर्षि या ब्रह्मवादिनी अर्थात्‌‍ ‘ब्रह्मगुरु' अब पद्मासन में स्थिर हो चुके थे।

उन्होंने सबसे पहले दोनों हाथ जोड़कर दत्तगुरु और आदिमाता से प्रार्थना की और फिर वे अपनी आँखें मूँदकर बैठे रहे।

वे अन्य कोई गतिविधि नहीं कर रहे थे - यहाँ तक कि पलकों की और नासापुटों की भी गतिविधि

और इस कारण से पलकों की आड़ में क्या चल रहा है, यह सामने बैठे किसी को भी दिखायी नहीं दे सकता था।

परन्तु कैलाश पर और वह भी आदिमाता और त्रिविक्रम की उपस्थिति में ऐसा कैसे घटित हो सकता है?

नहीं! यहाँ इस प्रकार की स्थिति में कोई भी श्रद्धावान किसी भी बात से वंचित रह ही नहीं सकता। भगवान त्रिविक्रम ने प्रत्येक समूह के पास से बहने वाली उस उस गंगा के जल का सिंचन प्रत्येक ब्रह्मगुरु की पलकों पर करने के लिए लोपामुद्रा से कहा।

इसके साथ ही हर एक को ब्रह्मगुरु की पलकें दिखायी दे रही होने के बावजूद भी, उन पलकों के पीछे की उनकी आँखों की गतिविधि सुव्यवस्थित रूप से दिखायी देने लगी।

उस प्रत्येक ब्रह्मगुरु की दोनों आँखें उनकी दोनों भौंहों से समान दूरी पर रहने वाली मध्यबिन्दु पर केन्द्रित हुई थीं

और उनकी आँखों से अत्यन्त पवित्र एवं शुद्ध भाव सौम्य एवं मृदु विद्युत्‌‍-शक्ति के रूप में उनके आज्ञाचक्र की ओर प्रवाहित हो रहा था

और उसी के साथ उनका आज्ञाचक्र एक विलक्षण सुंदर तेज से ओतप्रोत भरकर बह रहा था

और उस आज्ञाचक्र में से भी एक अत्यधिक विलक्षण प्रवाह उन ब्रह्मगुरुओं की आँखों में प्रवेश कर रहा था।

सद्गुरु श्रीअनिरुद्धांद्वारे प्रतिपादित श्रीशब्दध्यानयोग उपासनेतील आज्ञाचक्र प्रतिमा 

परन्तु यह विलक्षण प्रवाह जल अथवा विद्युत्‌‍-शक्ति का नहीं था, बल्कि अत्यधिक सुंदर, सौम्य एवं शांत इस प्रकार के, पहले कभी भी न देखे हुए अद्भुत प्रकाश का था

और यह अद्भुत प्रकाश-प्रवाह उन ब्रह्मगुरुओं की आँखों में प्रविष्ट होकर फिर उनके त्रिविध देहों की ७२,००० नाड़ियों में प्रवाहित हो रहा था

और इस प्रकाश के कारण उन ब्रह्मगुरुओं के शरीर की हर एक स्थूल कोशिका अत्यधिक युवा, ओजयुक्त एवं शुद्ध हो रही थी और उनके मानसिक द्रव्य का हर एक कण भी।

उतने में ‘ॐ श्रीदत्तगुरवे नम:' यह मंत्र भगवान त्रिविक्रम की आवाज़ में हर एक को  सुनायी दिया और उसी के साथ, पलकों के पीछे से दिखायी देनेवाला सब कुछ अदृश्य हो गया।

लेकिन सभी ब्रह्मगुरुओं ने अपनी आँखें तुरन्त ही खोलना आरंभ नहीं किया - मानो त्रिविध देह में प्राप्त किये हुए उस दिव्य प्रकाश को वे अच्छी तरह संचयित करके रख रहे थे।

भगवान त्रिविक्रम का ‘श्री दत्तगुरवे नम:' यह जाप चल ही रहा था और फिर ब्रह्मर्षि अगस्त्य ने पहले अपनी पलकें खोल दीं। उनके पीछे पीछे अन्य सभी ब्रह्मगुरुओं ने भी एक के बाद एक करके अपनी अपनी पलकें खोल दीं।

वे सभी ब्रह्मर्षि और ब्रह्मवादिनियाँ अब अधिक तेजस्वी, अधिक युवा, अधिक शक्तिमान और बलवान दिखायी दे रहे थे।

ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा ने चेहरे पर की मुस्कान के साथ सभी को बताया कि श्रीशांभवीमुद्रा की साधना से हर एक साधक का स्थूल देह, प्राणमय देह और मनोमय देह इसी तरह हमेशा नित्यनूतन और तरोताज़ा रहता है।

परन्तु आज्ञाचक्र से जो प्रकाश निकला हुआ है, वह कहाँ से आया है यह केवल श्रीशांभवीविद्या की सतरहवीं और अठारहवीं कक्षा पर ही जाना जा सकता है।

सद्गुरु त्रिविक्रम से श्रीशांभवीमुद्रा को प्राप्त करना, यही हर एक श्रद्धावान की जन्मशृंखला का सर्वोच्च ध्येय होना चाहिए। क्योंकि श्रीशांभवीमुद्रा प्राप्त होने के बाद दुख, डर, क्लेश ये बातें पीडा ही नहीं देतीं और चाहे कितने भी संकट क्यों न आ जायें, मग़र फिर भी श्रद्धावान उससे पार हो ही जाता है।

हे उपस्थित श्रद्धावानों! यह आँठवी नवदुर्गा महागौरी अपने अन्य आठ रूपों की तरह ही अत्यधिक कृपालु है।

प्रियजनों! इन नौं नवदुर्गाओं में कौन अधिक कृपालु है अथवा कौन अधिक प्रभावी है,  इस प्रकार का विचार भूल से भी मत करना।

क्योंकि हर एक का मार्ग भले ही भिन्न क्यों न हो, मग़र फिर भी हर एक का प्रेम, कृपा और अनुग्रह एकसमान ही होता है।

क्योंकि अंतत: ये नौं अलग अलग नहीं है, बल्कि एक पार्वती ही है।