दुर्गा मंत्र यह Algorithm संबंधी बापू ने दिया हुआ प्रवचन - भाग १

  रामवरदायिनी श्रीमहिषासुरमर्दिन्यै नम:। इस महिषासुरमर्दिनी ने ही, इस चण्डिका ने ही, इस दुर्गा ने ही सब कुछ उत्पन्न किया। प्रथम उत्पन्न होनेवाली या सर्वप्रथम अभिव्यक्त होनेवाली वह एक ही है। फिर वह उन तीन पुत्रों को जन्म देती है और फिर सबकुछ शुरू होता है । हमने बहुत बार देखा, हमें यह भी समझ में आया की यह एकमात्र ऐसी है, जिसका प्राथमिक नाम, पहला नाम ही उसका नाम ही नहीं है । जिस प्रचंड बडे शत्रु का उसने नाश किया, उस महिषासुर से ही उसने अपना नाम धारण कर लिया- ‘महिषासुरमर्दिनी’ । तरल अवस्था में जो गायत्री है, सूक्ष्म स्वरूप में वही महिषासुरमर्दिनी है और वही स्थूल सृष्टी में, इस पृथ्वी पर अनसूया के नाम से विचरित हुई और विचरण करती रहती है । ये तीनों एक ही हैं, तीनों का रूप भी विलक्षण एवं अलग-अलग है । हमें बहुत बार यह प्रश्न सताता है कि प्रसन्नोत्सोव में विराजमान महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के स्वरूप हमने देखे हैं । ये तीनों रूप कितने अलग-अलग हैं ! उनके चरित्र भी अलग-अलग हैं । फिर भीं यह तीनों एक ही है यह कैसे मान लें? मान भी लें तब भी बात दिल में नहीं उतरती । जो माँ बच्चों को प्यार से खाना खिलाती है, उनकों स्नान कराती है, वह रूप है अनसूया का रूप । उसी बच्चे की हत्या करने कोई दौड़ा चला आये, तो उस वक्त हाथ में जो मिल जाये वही सही, जैसे कि बेलन, सिलबट्टा, जो कुछ भी हाथ में आ जाये, वह उठाकर वह माँ उस इन्सान का मुकाबला करेगी, वह है उसका महाकाली रूप । यह सब हमारी समझ में तो आता है, लेकिन गले नहीं उतरता । ये रूप अलग हैं, यह तो दिखायी देता है और हम जैसे सब, जो भी दिखता है उसे सच मान लेते हैं । हम लोग हमेशा कहते हैं की कानों से ज्यादा आँखों पर विश्वास होना चाहिए । कान और आँखों में अंतर होता है । इसीलिए आँखों से जो दिखाई पड़ता है उसे हम सच कहते हैं । लेकिन पिछले प्रवचनों में एक बार हमने देखा की सायन्स के युग में आँखों से देखी हर एक चीज सच ही होती है ऐसा नहीं है । हमने देखा कि जो व्यक्ति नहीं है या जो व्यक्ति मर गया है, गुज़र गया है, वह व्यक्ति भी हमारे सामने नाच कर सकता है, गा सकता है और आपकी समझ में भी नहीं आयेगा कि वह व्यक्ति जिंदा नहीं है या यह व्यक्ति यहाँ पर है ही नहीं । यानी आँखों से देखने पर भी हम कितना भरोसा कर सकते हैं, ऐसी हमारी परिस्थिति है ।      

वैसे ही एक बार लोगों के मन में प्रश्न था कि दत्तगुरु और दत्तात्रेय में क्या फ़र्क है? सबको कन्फ्युझन था । फिर हमने बडी शांति से देखा और शांति से ही हमें उसका जवाब भी मिला कि एक लड़की है जिसके पिताजी गुजर जाने के बाद फिर से अपनी बेटी के पेट से उसके अपत्य के स्वरूप में जन्म लेते हैं, तो वह क्या रिश्ता हो सकता है,? दादाजी ही पोता बनकर आये तो वह क्या रिश्ता हो सकता है? दत्तगुरु और चण्डिका, चण्डिका और दत्तात्रेय यह रिश्ता बिलकुल वैसा ही है । वैसे ही समझ लीजिए कि यह जो महिषासुरमर्दिनी है, महाकाली है, महासरस्वती है, इन तीनों के रूप भले ही अलग-अलग हों, मगर तब भी वह एक ही कैसे है?

       इसके लिए किसी गहरी खोज, तर्क या चिंतन करने की आवश्यकता नहीं है । यह समझना बिलकुल आसान है । आज हम सब स्कूल में पढ़ चुके हैं । सायन्स भी सीखा है । पदार्थ की तीन स्थितियों के बारे में हम जानते हैं । जैसे कि जल की यानी पानी की ही भाप बनती है और उसकी ही बरफ़ बनती है । इन तीनों के केमिस्ट्री क्या है? एक ही है- H2O । तीनों का केमिकल अनॅलिसीस करने के बाद हमें क्या मिलनेवाला है? H2O । फिर उसका मूलरूप क्या है? पानी यह मूलरूप या बरफ़ यह मूलरूप या भाप यह मूलरूप? पानी यह मूलरूप कदापि नहीं, क्योंकि पृथ्वी के आरंभ में ही पानी कैसे निर्माण हुआ? तो भाप से ही । लेकिन वैसा भी नहीं है । भाप पहले ठंडी होकर उसकी बरफ बन गयी और उसी बरफ़ से पानी बन गया । तो पहले क्या? पहले H2O ही । लेकिन ध्यान दीजिए कि इस दुनिया में बरफ़ जो काम करती है वह काम क्या भाप कर सकती है? भाप जो काम करती है वह काम क्या बरफ़ कर सकती है? नहीं । और जो काम पानी करता है, वह काम क्या भाप करेगी? किसी व्यक्ति को यदि प्यास लगी हो और आपने उससे कहा कि कुकर से मैं पाईप जोडता हूँ और तुम्हारे मुँह में डाल देता हूँ, तो क्या होगा? पानी पीकर जीने की बजाय वह मर जायेगा । बरफ़, भाप और पानी केमिकल कोंपोजिशन की दृष्टि से एक ही यानी  H2O होने के बावजूद भी, हर एक की प्रक्रिया भिन्न है, अलग है । पानी को उष्मा मिली, पानी की भाप बन गयी, भाप ठंडी हो गयी, उसका पानी बन गया और पानी अधिक प्रमाण में ठंडा हो जाने पर उसकी बरफ बन गयी । लेकिन हम लोग जब गंगोत्री जाते हैं, वहाँ पर क्या देखते हैं? हिमालय में बरफ़ है । उस बरफ़ से ही गरमियों के मौसम में गंगा बहने लगती है । वहाँ पर पानी है और साथ ही पानी की भाप होते हुए भी दिखायी देती है । तीनों चीजें एक ही समय अस्तित्व में हैं । तीनों का कार्य अलग है । तीनों बातें एक ही समय में अस्तित्व में होती है । तीनों का कार्य अलग है । तीनों चीजें निसर्ग में अपने आप निर्माण होती रहती हैं । लेकिन तीनों है एक ही । उसी तरह महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती के कार्य अलग-अलग होने के बावजूद भी वे तीनों एक ही हैं । फिर हमें तीनों की उपासना अलग-अलग करनी चाहिए या एक की ही? आप पुछेंगे की, बापू आप हमेशा कहते हैं कि दत्तगुरु और अत्रि एक ही हैं । अत्रि वही अनसूया, अनसूया वही अत्रि । यह सब कैसे? इसका जवाब तरह है- पानी की बरफ, बरफ का पानी, पानी की भाप यह सब निसर्ग में हो रहा है ना अपने आप? और यह सब हम मनुष्य होकर भी कर सकते हैं। इसी तरह हम तीनों का एकत्व हमारे जीवन में भी जान सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं । हनुमानजी, दत्तात्रेय, आदिमाता और दत्तगुरु, ये सभी अभिन्न हैं । संपूर्ण चण्डिकाकुल एक साथ ही होता है । इसीलिए चण्डिकाकुल के एक सदस्य को आवाहन करने पर सभी एक साथ आते ही हैं ।

       मान लीजिए कि आप यदि किरातरुद्र की उपासना कर रहे हैं, लेकिन उस समय गणपति की आवश्यकता है, तो गणपति का रूप ही आपकी मदत करने आनेवाला है । आप को इस बात का पता हो या न हो । उसके लिए हमें अलग-अलग कनेक्शन जोडने की ज़रूरत नहीं हैं । महाकाली से अलग कनेक्शन, महालक्ष्मी से अलग कनेक्शन, महासरस्वती से अलग कनेक्शन, रक्तदन्तिकासे अलग कनेक्शन, मंत्रमालिनी से अलग कनेक्शन इस तरह जोडने की ज़रूरत नहीं है। वैसे ही हनुमानजी से अलग कनेक्शन, देवी से अलग कनेक्शन, दत्त भगवान से अलग कनेक्शन जोडने की जरूरत नहीं है। हम सभी के स्तोत्र प्रेम से गायेंगे । जो हमारा सबसे पसंदीदा रूप है, उस रूप का हम आवाहन करेंगे । There is nothing wrong in that, in fact it is beautiful, बहुत ही सौंदर्य है इस में । लेकिन हमें वह एक ही बात की जानकारी होनी चाहिए । चण्डिकाकुल में जो हम देखते हैं, आदिमाता चण्डिका, दत्तात्रेय, हनुमानजी, किरातरुद्र, शिवगंगागौरी और वह परमात्मा या महाविष्णु या प्रजापतिब्रह्मा, इन में से यदि एक को भी हमने नहीं अपनाया, तो बाकी के छ: का पूजन करके कुछ भी उपयोग नहीं होगा । एक का पूजन जरूर किजिए । कोई आक्षेप नहीं, लेकिन बाकी के सभी हमें मंजूर होने चाहिए । तभी आपकी एक से की गयी प्रार्थना सब के पास जाकर पहुँचती है । वह जिम्मेदारी आपकी नहीं होती । इतना आसान है यह गणित, यह ध्यान में रखना चाहिए । हम यदि ऐसा तय कर लें कि हम सिर्फ चण्डिका को मानेंगे और उस देवीसिंह की ओर ध्यान नहीं देंगे, या फिर हम हनुमानजी कों नही मानेंगे, हम सिर्फ किरातरुद्र को ही मानेंगे, तो ऐसा नहीं चलेगा । विश्वास पूरे ‘कुल’ पर होना चाहिए । फिर एक से की गयी प्रार्थना भी, एक का बोला हुआ मंत्र भी सब से कनेक्ट करता है । लेकिन चण्डिकाकुल के एक सदस्य को आपने हटाया और बाकी के सब की उपासना की, तो फिर वह किसी के भी पास पहुँचने का सवाल ही नहीं है। As simple as that! इसीलिए हमें डरकर जीने की कोई जरूरत नहीं है कि हमारी उपासना भगवान तक पहुँच रही भी है या नहीं? पहुँचेगी ही । लेकिन मेरी श्रद्धा चण्डिकाकुल पर होनी चाहिए । वह जो आदिमाता है, वह हेड ऑफ द फॅमिली है । वह परिवार-प्रमुख है । उसके परिवार का हर एक व्यक्ति यह मेरा आप्त है, रिश्तेदार है । इस विश्वास से हमें आगे बढना होता है, फिर सभी कनेक्शन ‘वो’ जोडते हैं । हमें कनेक्शन जोडते बैठने की जरूरत नहीं है ।

       यह कितनी सुंदर बात है । बरफ, जल और भाप यह चीज हमारी समझ में आयी । H2O हमारी समझ में आ गया । यह भी समझ में आया की एक से कनेक्शन जुड जाने पर अपने आप ही सब के साथ कनेक्शन जुड जाता है, लेकिन विश्वास हर एक पर हो तो ही। लेकिन यहाँ पर विश्वास का अर्थ क्या है? तो इनका यह जो कुल है, कुल यानी? कुल यानी की सिर्फ परिवार नहीं । कुल यानी महज फॅमिली नहीं । कुल का अर्थ है- एक दूसरे से पूरी तरह, मजबूती से बँधा परिवार । एक परिवार, जो एक दूसरे से बहुत ही मजबूती से बँधा है । जिनका हर एक शब्द एक दूसरे से अनुकूल है, एक दूसरे के लिए पूरक है । ऐसा आपको दूसरे घर में दिखायी नहीं देगा । परिवार में से हर एक व्यक्ति अलग दिशा में जाने की कोशिश करता है । चण्डिकाकुल के हर एक सदस्य की कार्यपद्धति अलग है, महालक्ष्मी की अलग, महासरस्वती की अलग, श्रीदेवीमाता की अलग, अनसूया की अलग, गायत्री की अलग, हनुमानजी की अलग, दत्तात्रेयजी की अलग, गणपति की अलग, स्कंद की अलग, विष्णु, शिव और ब्रह्मा की अलग | इन सबकी कार्यपद्धति अलग अलग किसके लिए है? हमारे लिए ही अलग है | क्योंकि हम मानव जन्म मिलने के बाद कर्मस्वातंत्र्य की बदौलत जो गलतियॉं करते हैं, वे ऐसी होती हैं कि उन गलतियों की कल्पना तो ब्रह्मदेव भी नहीं कर सकता | फिर उनमें से हर एक के लिए अलग रास्ता बनाना ही पडता है| और इसीलिए इन सबकी कार्यपद्धति अलग-अलग होती है, यह ध्यान में रखना होगा| लेकिन इनकी कार्यपद्धति अलग अलग होने के कारण ही मुझे अलग-अलग कनेक्शन लेना चाहिए या मुझे जरुरत है गणपति के कार्यपद्धति की और मैं उपासना कर रहा हूँ शिवगंगागौरी की, तो फिर क्या होगा, इन बातों की चिंता करने की जरुरत नहीं है | मेरा यदि यह मानना है की यह संकुल एक ही है, यह एक ही है, यह एक कॉलनी है.... लेकिन यह सिर्फ कॉलनी नहीं है, यह एक दूसरे से दृढ संबंध रखनेवाली या एक दूसरे से अविभक्त रहनेवाली, अलग होकर भी एकत्रित रहनेवाली ऐसी यह विचित्र, विलक्षण और अद्भुत फॅमिली है  यह एक अद्भुत कुल है| यह भरोसा करने के बाद हमारे द्वारा की गयी प्रत्येक उपासना सभी को पहुँचती है| मेरे लिए जो रास्ता खुलना चाहिए, वह रास्ता खुल  जाता है|

       हमें जीवन में क्या प्राप्त करना होता है? हमें सुख की प्राप्ति करनी होती है| दुख हम नहीं चाहते।  लेकिन दुख आता है किस मार्ग से? प्रारब्ध से, नसीब से, कर्म से, कलियुग में बुरे लोगों की वजह से, जो कुछ भी हो, लेकिन दुख यानी क्या? हमें तकलीफ़ होती है, वह दुख है| अपने किसी प्रिय व्यक्ति का बिछडना, विरह होता है, वह क्या है? वह भी दुख है| पैसों का नुकसान होना, यह भी दुख ही है| और भी जो कुछ भी प्रतिकूल होगा वह दुख है| बीमारी, रोग इ. फलाना-फलाना जो कुछ भी हो वह दुख है| अनेक प्रकार के दुख हैं| लेंकिन ये जो सब दुख हैं, उन्हें मात देने के लिए हम विभिन्न प्रयास करते रहते हैं| अडचनें, संकट, दुख जो कुछ हैं, उन्हें मात देने के लिए हर एक मनुष्य प्रयत्न करता रहता है, प्रयास करता रहता है और इस प्रयास करने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं? पुरुषार्थ! हमारे जवीन में मुसीबतों को मात देने के लिए, हममें जो कमियॉं हैं उन्हें दूर करने के लिए, जो फालतू बढ़ा हुआ है, जो तकलीफदेह है उसे कम करने के लिए, यानी सब कुछ उचित करने के लिए, सब कुछ सुंदर करने के लिए, दुख को हटाकर सुख प्राप्त करने के लिए, अपने जीवन का विकास करने के लिए मनुष्य जो कुछ प्रयत्न करता है, प्रयास करता है, उसे ही पुरुषार्थ कहते हैं| यह पुरुषार्थ की सरल आसान व्याख्या और इस पुरुषार्थ के लिए मनुष्य के पास ताकद होनी आवश्यक है| शरीर में, मन में, बुद्धि में और प्राणों में भी| प्राण ही अगर क्षीण हो गये तो मनुष्य क्या करेगा? शरीर हाथी जैसा तंदुरुस्त, ताकतवर होगा, लेकिन मन कमजोर होगा तो क्या उपयोग? मन स्ट्रॉंग है, लेकिन शरीर विकलांग हुआ तो हम क्या कर सकते हैं? कुछ भी नही| सारांश, सायमल्टेनियसली हमारे प्राण, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा शरीर, यह सब कैसा होना चाहिए? अॅक्टिव्ह होना चाहिए और सक्षम होना चाहिए| तो ही हम पुरुषार्थ कर सकते हैं| आज जो अल्गोरिदम हमे देखना है आदिमाता का, उसका मूल नामही बहुत सुंदर है| जिसे कहते हैं, ‘दुर्गा मंत्र’!

 सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ॥ 

       इस श्लोक में कहीं पर भी दुर्गा यह शब्द नहीं है । फिर भी मन्त्र क्या है - दुर्गामन्त्र । आ गया आपके ध्यान में । इसमें महिषासुरमर्दिनी यह नाम भी नहीं है । हम देखेंगे, यह अलगोरिदम है, हमारे जीवन के पुरुषार्थ का गणित, हमारा पुरुषार्थ हम क्यों हार जातें हैं, पुरुषार्थ करने में हम क्यों कम पड़ जाते हैं, यह स्पष्ट करनेवाला गणित आज हमें देखना है, सॉल्व करना है, स्वीकार करना है । ऋषि क्या कहते हैं - ‘सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके’ । सारे मंगलों का मंगल करनेवाली यानी जो कुछ सर्वमंगल है, सुखकारक है, शुभ है, हितकारक है, दुखनाशक है और पवित्र है वह सब क्या है, तो मंगल है । मंगल शब्द का अर्थ देखिए इस तरह है । ये सभी सात शब्द मिलकर मंगल यह शब्द बनता है । आया ध्यान में ! इन सात शब्दों से, सात अर्थों से मिलकर मंगल यह शव्द बना है । शुभ, सुन्दर, मधुर, सुखकारक, हितकारक, दुखनाशक और पवित्र, यह ध्यान में रखना । मधुर का मतलब मीठा नहीं । मधुर इस शब्द का एक अर्थ मीठा यह ज़रूर है । लेकिन मधुर यानी क्या? जिन्होंने ग्रन्थ पढ़े हैं, उन्हें याद आ जायेगा कि हमने तीन व्यक्तिमत्त्वों का वर्णन किया है । उनमें से एक है ‘मधुर व्यक्तिमत्व’ । सब कुछ उचित होना यानी मधुर । हम जिसे हार्मनी कहते हैं ना, उस अँग्रेज़ी हार्मनी शब्द का अर्थ है मधुर । हार्मनी यानी माधुर्य । हम में इस हार्मनी का होना आवश्यक होता है, सब कुछ उचित, सुखकारक, ऍट इज़ होना आवश्यक होता है, और वही है हार्मनी । और उसे ही वैशिक ऋषियों ने ‘माधुर्य’ कहा है, मधुरता कहा है । तो शुभ, सुन्दर, माधुर्य, सुखकारक, हितकारक, दुखनाशक और पवित्र यह सब जिसके मूल में, जिस में है, वह मंगल है । और ऐसे मंगल को भी अधिक उच्च स्तर पर ले जानेवाली कला, उस मंगल का भी मंगल रहनेवाली है ‘सर्वमंगलमांगल्ये’ । और केवल मांगल्य रहनेवाली नहीं, बल्कि सर्वमांगलमांगल्ये यानी प्रत्येक प्रकार का मांगल्य केवल वही दे सकती है । सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शिवे यानी पूर्ण शुद्ध रहनेवाली, पूर्ण शुद्ध थी, पूर्ण शु्द्ध है और पूर्ण शुद्ध रहेगी ऐसी वह शिवा । सर्वार्थसाधिके यानी सारे पुरुषार्थ सिद्ध करानेवाली । सिद्ध करनेवाली का अर्थ है सारे पुरुषार्थ की सिद्धि करानेवाली यानी आपमें प्रत्येक पुरुषार्थ समर्थ रूप से करने की ताकत निमार्ण करनेवाली । पुरुषार्थ करने के लिए आवश्यक रहनेवाली ताकत आपको प्रदान करनेवाली । फिर चाहे वह मन का सामर्थ्य हो, शरीर का सामर्थ्य हो, बुद्धि का सामर्थ्य हो या प्राणों का सामर्थ्य हो या फिर नसीब का सामर्थ्य हो । नसीब इस शब्द को ही कुछ अर्थ नहीं है । मग़र फिर भी हम इसे मान लेते हैं । हम हमेशा ही गुडलक, बॅडलक, कहते रहते हैं । राइट !  तो हमारे प्रारब्ध से लेकर हर एक बात तक जो कुछ भी हम में कम है, वह बल, वह सामर्थ्य सिद्ध करानेवाली । वह सिर्फ़ प्रदान नहीं करती, प्रदान करती है और सिद्ध भी करती है । अब आप कहेंगे कि बापु, इन दोनों के बीच क्या फ़र्क है? हमे प्रदान किया तब भी हो गयी ना बात ! मग़र तब हम उसका मनचाहा इस्तेमाल करेंगे । यस, दॅट इज़ द प्रॉब्लेम । जब हम परमेश्वर से सिर्फ माँगते हैं, मुझे ताकत दिजिए, लेकिन उस ताकत का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए यह तय कौन करेगा? ‘मैं’ करूँगा । इसमें यह जो ‘मैं’ है ना, जो ईश्वर के पास माँगते समय भगवान से यही माँगता है, ‘भगवान, मुझे घर चाहिए ।’ भगवान मुझे घर दें, ईश्वर मुझे घर दीजिए और उस घर में आप रहने आइए, वह घर आपका हो, यह हम कभी नहीं कहते । अब वे मूर्तिस्थित ईश्वर रहने आते नहीं । हाँ या ना? वह अपने नाम पर कर लेगा, आप का जो कुछ बंगला, फ्लॅट, वगैरा जो है ।

       हम क्या माँगते हैं? मुझे परीक्षा में पास किजिए । ठीक ! अच्छी बात है, माँगनी ही चाहिए । माँगना ही हो तो हक़ से माँगना चाहिए, अपने घर में ही माँगना चाहिए, अपने पवित्र स्थान में ही माँगना चाहिए । लेकिन हम क्या करते हैं? ‘मुझे पास कीजिए ।’ हम यह नहीं कहते कि ईश्वर ! मुझे पढ़ने की बुद्धि दीजिए, मुझसे अध्ययन करवाइए और फिर मुझे पास किजिए । ऐसा हम नहीं कहते । बस, भगवान मुझे पास कीजिए ।

       ‘भगवान, मुझे प्रमोशन मिलने दीजिए ।’ अच्छी बात है प्रमोशन मिलना खुशी की बात है । लेकिन प्रमोशन मिलने के बाद क्या माँगना चाहिए? प्रमोशन मिलने के बाद मैं काम कैसे करूँ यह भगवान आप  तय कीजिए । आप मुझसे करवाइए । नहीं तो प्रमोशन मिलनसे पहले जो इस तरह झुककर खड़ा था, वह अगले दिन प्रमोशन मिलने के बाद तनकर चलता है और ऐसे ऐंठता है कि बाकी के सब को कब नीचा दिखाता हूँ ऐसा उसे हो जाता है । क्या यह सही है? क्या यह भगवान को पसंद होगा? नहीं पसंद होगा, नहीं अच्छा लगेगा। राइट ! यह बात भगवान के इस ‘शिवे सर्वार्थसाधिके’ में नहीं बैठेगी । ‘सर्वमंगलमांगल्ये’ में नहीं बैठेगी। तुम्हारा मंगल करें और दूसरों का अमंगल करें यह क्या उसकी वृत्ति होती है? तुम श्रद्धावान हो, तब तुम्हारा कोई अमंगल करना चाहता हो तो उसका बंदोबस्त कैसे करना है यह वह जानती है । हमारे शत्रु का नाश कीजिए यह अवश्य कहना । कहना ही चाहिए । क्यों नहीं कहना चाहिए ! लेकिन यह कहते समय यह भी बताइए कि मुझसे यदि कुछ ग़लत हो रहा हो तो उसे सुधारना । यह हम नहीं कहते ।

              हम तो भगवान की गलतियाँ निकालने में भी नहीं हिचकिचाते । सोचकर तो देखिए, अपने जीवन में कितनी बार भगवान को गलत कहने की कोशिश की । है ना ! और घर में हम जो कुछ कहते हैं वह भगवान को भला कहाँ सुनायी देनेवाला हैं? यहाँ तक कि कतार में जब खड़े होते हैं, तब भी हम उसी ईश्वर को जो चाहे वह कह सकते हैं, मन ही मन में । मान लीजिए कि हम कहीं पर गणपतिजी का दर्शन करने कतार में खड़े हैं, ‘क्या रे गणपतिबाप्पा ! इतने लोग खड़े हैं, इनके बाद मेरा नंबर आयेगा । मेरा कोई काम नहीं करते । बराबर है, वह जो पहलेवाला है ना, वह कह रहा है कि उसका काम कर दिया । बराबर है, वह पैसेवाला है । उसने तुम्हें सोने का मुकुट चढ़ाया होगा, इसलिए तुमने उसका काम किया होगा ।’ लेकिन यहाँ ओअर हम इस बात पर ग़ौर नहीं करते कि हम भगवान पर आरोप कर रहे हैं । हम इसे ध्यान में नहीं लेते । बराबर ! जब तक भगवान हमारे मन के अनुकूल करता रहता है, वह भगवान अच्छा । लेकिन जहाँ उसने हमारी गलती दिखा दी, वह  बुरा बन जाता है और इसी मार्ग का, इसी मार्ग पर का बहुत बड़ा भय हममें से हर एक को ग्रस्त करता रहता है । पुरुषार्थ प्राप्त करने की जो ताकत है, पुरुषार्थ मिलने का जो मार्ग है, जो पद्धति है, जो यन्त्रणा है, उसे ही हमसे काटा जाता है । यह कौन काटता है? हम उपनिषद्‍ पढ़ते हैं, हम मातृवात्सल्यविन्दानम्‌ पढ़ते हैं, तो हम यह जानते हैं कि महिषासुर और वृत्रासुर ये दो नाम उपनिषद्‌ में बार बार आते हैं । मातृवात्सल्यविन्दानम्‌  में, मातरैश्वर्यवेद में महिषासुर के बारे में पता चलता है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई यह समझ में आ जाता है । लेकिन हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि महिषासुर यह शब्द कैसे बना है । महिष + असुर यानि महिषासुर । बराबर है फिर महिष शब्द का अर्थ क्या है? म इति मंगलम्‌, पूर्ण मंगल यानी मंगलम्‌ । ‘म’ यह बीज पूर्ण मांगल्य का बीज है । ‘ह’ कार जब र्‍हस्व इ से मिलता है, किसी भी अच्छी बात को जलाता है तब वह हिंसा है यानी जो कुछ भी मंगल है अर्थात सर्वमंगल है उस सर्वमंगल की हिंसा करनेवाला, जो सर्वमंगल है उसकी हिंसा करके ‘ष’ इति षण्ढत्व, षण्ढत्व प्रदान करनेवाला - वह महिषासुर । षण्ढत्व यानी क्या? तो फेल्युअर । जो काम मनुष्य के लिए आवश्यक है वह उसे न करने आना यानी षण्ढत्व । मनुष्य के अध्ययन, कर्तृत्व, व्यवसाय से लेकर मनुष्य जे कामजीवन के षण्ढत्व तक का प्रत्येक प्रकार का षंढत्व ही यह ‘षण्ढत्व’ है । इसका अर्थ क्या है? इस महिष शब्द का अर्थ क्या है? महिष यानी क्या? जो सर्वमंगल है उसकी हिंसा करके मानव को जो षंढत्व प्रदान करता है वह है महिष । और यह महिषत्व जो निर्माण करता है वह राक्षस है महिषासुर । तो महिष शब्द का अर्थ क्या है? सर्वमंगलों का जो मंगल है, मनुष्य जाति में जो कुछ भी अच्छा है, उसके लिए जो भी सुखकारक है, उसकी हिंसा करके उस मनुष्य को षंढत्व देनेवाला है महिषासुर । सारांश में, महिष शब्द का अर्थ है - जो कुछ भी अशुभ है और अनिष्ट है । अनिष्ट यानी हमारे लिए अहितकारक, बुरा, तकलीफ देनेवाला यानी अँग्रेज़ी में जिसे हम Evil कहते हैं, Devil नहीं, Evil; तो महिष शब्द का अर्थ है Evil, और महिषासुर शब्द का अर्थ है Devil ! Evil लानेवाला वह Devil है । आ गयी बात समझ में? तो  यह महिषत्व देनेवाला वह महिषासुर । महिषासुर यानी क्या? तो सर्वमंगल की हिंसा करके षण्ढत्व देनेवाला । यानी क्या? पुरुषार्थ नष्ट ! षण्ढत्व शब्द का अर्थ क्या है? पुरुषार्थनष्ट । यानी धर्म पुरुषार्थ नहीं, अर्थ पुरुषार्थ नहीं, काम पुरुषार्थ नहीं, मोक्ष तो दूर ही रहा, भक्ति पुरुषार्थ नहीं, मर्यादा पुरुषार्थ नहीं । षंढत्व यानी पुरुषार्थ न होना, पुरुषार्थ की ताकत न होना । पुरुषार्थ करने की ताकत न होना, पुरुषार्थ की ताकत न होना । पुरुषार्थ करने की ताकत न होना ही षण्ढत्व है । यह महिषासुर यह करता है । हम किसकी भक्ति करते हैं? मंगल शब्द का अर्थ क्या है? जो जो शुभ है, सुन्दर है, मधुर है, सुखकारक है, हितकारक है, दुखनाशक है और पवित्र है, यानी जो भी पवित्र मार्गपर से चलना चाहते हैं उनका नाश करना यही इसका काम है । जो जो दुखनाशन करना चाहते हैं उनके जीवन में दुख लाना यह उसका काम है । जो जो हितकारक है, जो हित करना चाहते हैं, जो हित पर चलना चाहते हैं उनका अहित करना यह उसका काम है । जो सुख चाहते हैं, उनसे सुख दूर कैसे भागेंगे यह देखना उसका काम है । जिन्हें सुन्दरता चाहिए उन्हें बदसूरती देना, मैं सिर्फ शरीर की सुन्दरता की बात नहीं कर रहा हूँ यह ध्यान में रखना । सुन्दरता यह सुन्दरता होती है, भावनाओं की सुन्दरता होती है और जो शुभ है उसमें से अशुभ उत्पन्न करनेवाला, जो शुभ का ही अशुभ करनेवाला । समझ में आ रहा है, यानी महिष का अर्थ है - पूरी तरह जो अशुभ है, अनिष्ट है यानी Evil है । जो अशुभ एवं अनिष्ट करता है । Evil निर्माण करता है हमारे जीवन में, वह Devil है । आ गयी बात समझ में । तो Devil यानी महिषासुर इसकी जानकारी हमें होनी चाहिए । 

       आज हमने खबर पढ़ी ना कि महिषासुर का मंदिर बना रहे हैं । अनेकों ने नेट पर से देखा । मुझे अच्छा लगा । सच कहता हूँ, अरे, नेट का उपयोग कीजिए । क्या चल रहा है दुनिया में यह खुली आँखों से देखिए । उनके पास मूर्ति भी बनकर तैयार है । इतनी बड़ी मूर्ति ! और इस भारत में रावण के पाँच मंदिर हैं । सोचिए ! भारत में भी और वहाँ पर मेला लगता है । कुछ लोग वहाँ मन्नत मानने जाते हैं । राम नहीं प्रसन्न हुए तो रावण को भजेंगे । हम जो माँगे उसे जो देगा वही देव, हम जो चाहें वह देगा वहीं देव । और इसी वजह से इस हिन्दुस्तान का हमेशा नुकसान होता आया है । यदि रावण का मेला हिन्दुस्तान में लग सकता है, तो महिषासुर के मंदिर का आवाहन करने में देर नहीं लगेगी यहाँ पर । ध्यान में रखना । इसलिए जिन्हें जितने मंदिर बनाने हैं  महिषासुर के, रावण के, उन्हें बनाने दीजिए, सब जगह चाहे क्यों न बनाये, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता । समझ गए ! और मेरे बच्चों को फर्क पड़ने नहीं दूँगा।

       तो ध्यान में रखना बच्चों ! महिष यानी क्या यह ठीक से समझना आवश्यक है । फिर आप कहेंगे, क्यों करते हैं महिषासुर का पूजन ये लोग? सिंपल सी बात है । अशुभ मार्ग से खुद को जो चाहिए वह सुख हासिल करने के लिए, खुद को जो सुन्दरता नहीं मिली उसे बदसूरत बनाने के लिए, जो सन्तुलन है, जो हार्मनी है, जो मधुरता है, वह मुझे मिल जाये तो अच्छा है, दूसरों को नहीं मिलना चाहिए इसलिए जो हित है वह मेरा हो, दूसरों का हित न हो इसलिए, दुखनाशक जो है वह मेरा हो, दूसरों को दुख मिले इसलिए और पवित्रता का भंग हो इसलिए । आयी बात समझ में । इसलिए महिषासुर का पूजन किया जाता है । खुद का भला करने की इच्छा से नहीं, बल्कि दूसरों का बुरा करके मुझे अच्छा मिलने के लिए । फिर उसे किसकी पूजा करनी होगी? महिषासुर को पूजना होगा, निश्चित रूप से यहाँ पर तुम्हें कदापि चण्डिकाकुल साथ नहीं देगा ।

       ऐसे लोग महिषासुर की साधना करते हैं, यह ध्यान में रखना । समझ गये । ऐसे लोगों को कौन चाहिए होता है? उन्हें महिषासुर की उपासना करनी होती है । महिष शब्द की व्याख्या है अशुभ और अनिष्ट और Evil, और महिषासुर यानी Devil !

      तो आज हम जो अलगोरिदम देख रहे हैं, ‘दुर्गा मन्त्र’; ‘सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोस्तुते ॥ ‘शरण्ये त्र्यंबके गौरि’ हमने माँ का तृतीय नेत्र पिछली बार देखा । त्र्यंबका ! यह जो तृतीय नेत्र है, वह क्या करता है यह भी हमने देखा । संतुलन । सन्तुलन करता है । यानी हार्मनी ! हार्मनी यानी क्या? तुम्हारे पुरुषार्थ में जो कुछ कम पड़नेवाली शक्ति है, वह सारा सन्तुलन कौन करता है? वह तृतीय नेत्र कराता है । वह जब खुल जाता है तब ठेंठ तीनों कालों में जाकर, भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल इन तीनों कालों में समान रूप से जाकर तीनों कालों को सायमल्टेनियसली देखकर, तीनों कालों में सायमल्टेनियसली जीना मानव के लिए संभव ही नहीं है । हम सिर्फ वर्तमान काल में जीते हैं । हम कल्पना से भूतकाल में जाते हैं, कल्पना से भविष्यकाल में झाँकने का प्रयास करते हैं, सपने देखते हैं, लेकिन हम अपने अस्तित्व से कहाँ होते हैं? सिर्फ वर्तमान काल में होते हैं । वहीं, जो आदिमाता है, वह कैसी है, तीनों कालों में एक ही समय वास्तव्य करती है, भूतकाल में भी, वर्तमान काल में भी और भविष्यकाल में भी । इन तीनों कालों में यह जो उसका तीसरा नेत्र है, जो तीनों कालों को देखता है, इतना ही नहीं बल्कि इन तीनों कालों में जलत्व है, जलतत्व है यानी जीवनतत्व है उसकी सुरक्षा करता है । जीवितता की, सुन्दरता की, मधुरता की ! जीवितता की यानी रसपूर्णता की सुरक्षा करती है, तीनों कालों में करती हैं । रसपूर्ण रखती है जीवन को । यदि हम पानी नहीं पियेंगे तो क्या हमारा शरीर रसपूर्ण रहेगा? नहीं । सूख जायेंगे हम । पेड़ों को पानी न दिया जाये तो क्या पेड़ रसपूर्ण रहेंगे? नहीं । पानी देना आवश्यक है । हम यदि पानी न पिये तो हमारी परिस्थिती कैसी होती है, यह हम देखते हैं । तो यह जो त्र्यंबका है, उसका तीसरा नेत्र क्या करता है? तीनों कालों को एक ही समय देखकर, इन तीनों में जीवन के लिए जो कुछ भी हानिकारक है उसका एक ही समय नाश कर देता है । अब कहेंगे, बापू, फिर तो मानव की मौत ही न हुई होती ! तो यह मृत्यु, कालमृत्यु नहीं है । कालमृत्यु तो प्रत्येक मानव को है ही । जिसका जन्म हुआ उसे जाना तो पड़ेगा ही । लेकिन हमारे कार्य की मृत्यु, अपमृत्यु, ओ.के.? हमारा अपाहिजपन, पुरुषार्थ न करना, दुख देना, दुख आया यानी क्या, सुख की मृत्यु हो गयी, हमारे जीवन में पुरुषार्थ नहीं रहा यानी पुरुषार्थ की मृत्यु हो गयी, सफलता की मृत्यु हो गयी । तो इस तरह अनेक मृत्यु हैं और ये सभी मृत्यु क्या करते हैं? दुख देते हैं । वहीं आख़िरी मृत्यु, हमेशा के लिए मुक्त करती है इन सब में से । वहीं कुछ बुज़ुर्गों को हम देखते हैं । भगवान, अब मुक्त कीजिए ! यानी क्या? मुक्त कीजिए, सारी परेशानियों से मुक्त कीजिए । उस तरह मुक्त करना, नहीं । ध्यान में रखना । तो तुम जब जीवित हो तब तुम्हारे जीवन के बाद यानी परलोक में तुम्हें सुख मिलेगा ऐसी संकल्पना यहाँ पर आदिमाता प्रस्तुत नहीं कर रही है ।  तुम यहाँ पर अच्छा बर्ताव करो, तब जाकर परलोक में तुम्हें सुख मिलेगा ऐसी संकल्पना यहाँ पर आदिमाता प्रस्तुत नहीं कर रही है । यह वैदिक धर्म क्या कहता है? अल्गोरिदम यहाँ पर क्या कहता है? "प्रत्यक्ष यही प्रमाण’, तुम्हें इसी जीवन में, जीवितता का अर्थ क्या है, इसी जीवन में तुम्हारा नसीब बदलकर मैं दिखाती हूँ । तुम्हारे जीवन के शत्रुओं का मैं ही नाश कर सकती हूँ, तीनों कालों में एकसाथ देखकर । वर्तमान काल में काम करते समय भूतकाल और भविष्यकाल तीनों कालों में रहनेवाली अहितकर बातों का नाश होना आवश्यक है । है ना!

       जो त्र्यंबका है, जो एक ही समय तीनों कालों में नेत्र खोलकर, तीनों कालों में देखकर अहितकारी बातों का नाश करती है और इसीलिए एकमात्र वही महिषासुर का नाश कर सकती है । है ना ! और इसीलिए वह ‘त्र्यंबका’ है । इसीलिए वह ‘दुर्गा’ है । लेकिन दो महत्त्वपूर्ण अर्थों पर ध्यान देना आवश्यक है । जो बहुत ही दुर्गम है यानी प्राप्त करने के लिए कठिन है; वहीं दुसरी तरफ वह दुर्गा दुर्गतिनाशिनी है| दुर्गा कैसी है, दुर्गति का नाश करनेवाली| तुम्हारे जीवन में दुर्गति होने ही नहीं देती| आया समझ में? तो यहॉं पर बात ऐसी है कि कहीं पर भी दुर्गति हो रही हो, भूतकाल में, भविष्यकाल में या वर्तमानकाल में, जो इन सब का नाश करती है, वह दुर्गा है| और जिसे प्राप्त करना कठिन है| किसके लिए? श्रद्धाहीनों के लिए यानी असुरों के लिए|

       हम महासरस्वती की कथा पढ़ते हैं| शुंभ-निशुंभ उसके पीछे पड़ जाते हैं| उसे वश में करने के लिए बड़े बड़े आश्‍वासन देते हैं| वह उनके वश में नहीं होती और प्रसन्न भी नहीं होती| क्या हमने कभी देवीमाता की, आदिमाता की कोई कथा पढ़ी है, जिसमें उसने मानवों के साथ युद्ध किया है| कभी नहीं| वह युद्ध केवल असुरों के साथ करती है| और महिषासुर का नाश करने के लिए ही दुर्गा महिषासुरमर्दिनी बन गयी|

       महिषासुर का नाश करने के कारण ही वह महिषासुरमर्दिनी बन गयी| क्योंकि महिषासुर का का तीनों कालों में नाश करना सब से दुर्गम है| ‘दुर्गम काज जगत के जेते| सुगम अनुग्रह तुम्हरे ते ते॥वे हनुमानजी उसके प्रथम पुत्र हैं| ‘दुर्गम काज जगत के जेते’, जो सब से दुर्गम काज है मेरे लिए, मेरा पुरुषार्थ और भी बेहतर बनाने के लिए तीनों कालों में रिपेरिंग होना आवश्यक होता है|

       तो इस तरह तीनों कालों में संचार करती है इसलिए वह दुर्गा है| दुर्गम काज, तीनों कालों में संचार करके ग़लतियों को दुरुस्त करने का काम वह करती है इसलिए वह त्र्यंबका दुर्गा है| और महिष का नाश करती है इसलिए वह महिषासुरमर्दिनी है|

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते॥

       अब हमारे किसी रिश्तेदार का नाम सीता हो, तो क्या वह श्रीराम की पत्नी सीता हो जायेगी? किसी स्त्री का नाम पार्वती हो, तो क्या वह शंकरजी की अर्धांगिनी बन जायेगी? नहीं| तो यहॉं पर गौरी यह विशेषण है|

       उसका मूल वर्ण कौनसा है? साँवला है । वह अनसूया बनकर चंपा के फूल जैसे वर्ण की बन सकती है । वह महाकाली बनकर बहुत ही गहरा रंग धारण कर सकती है । महिषासुरमर्दिनी बनकर प्रखर सुवर्ण वर्ण या सिंदूरी वर्ण का स्वीकार कर सकती है । महासरस्वती बनकर वह गुलाब की पंखुड़ियों के रंग का स्वीकार कर सकती है । मगर वह है मूलत: श्यामा ।

श्यामे त्वमेव यदि किंचन मयि अनाथे । धत्से कृपां उचितं अम्ब परं तव एव॥

       शंकराचार्य क्या कहते हैं? श्यामे ! उसे गौरी नहीं कह रहे हैं, क्योंकि वह मूलत: श्याम वर्ण की है । और इस मन्त्र में उस क्या कहा गया - ‘गौरी’ । ‘शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोस्तुते ।’ यहाँ पर गौरी का अर्थ है गौर वर्ण की । फिर इसे गौरी क्यों कहा गया है इस मन्त्र में? क्योंकि गौरी इस शब्द का एक बहुत ही सुन्दर अर्थ है, जिस पर हमें गौर करना चाहिए । वह क्या है? शुद्ध गोरे रंग की यह अर्थ तो है ही, लेकिन इससे भी परे कुछ है । इस प्रकट  विश्व में जो कुछ है, फिर चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य, जैसे कि पवन अदृश्य है, लेकिन है, प्रकट है, हाँ या ना? दृश्य है, अदृश्य है ऐसे इस प्रकट विश्व में जो कुछ भी है, उन सभी वस्तुओं में, जो प्रकट हुआ है उन सब में सब कुछ जो जैसा होना चाहिए वैसा है तो वह गौर है । समझ गये? इस प्रकट विश्व में दृश्य हो या अदृश्य, जो जैसा होना चाहिए, जितना होना चाहिए वैसा का वैसा है तो वह गौर है, उचित है, apt है । हम कहते हैं ना अँग्रेज़ी में जिसे सर्वोत्तम apt, the aptest, हालाँकि वैसा शब्द तो नहीं है अँग्रेज़ी में, apt apter aptest, लेकिन जो aptest है, apt यानी उचित, वहीं aptest यानी गौर ।

       तुम्हें aptest  बनानेवाली कौन है? गौरी है । और यह शब्द त्र्यंबके के बाद आता है । ’त्र्यंबके गौरि’ यानी exactly क्या? तो यह जो महिषासुर है, वह तुम्हारे जीवन में जो-जो करना चाहता है, उसकी इच्छाओं के विरुद्ध तुम्हारे जीवन में कृति करनेवाली गौरी है । इसलिए हमें ध्यान में रखना चाहिए कि यह मन्त्र संपूर्णत: उस आदिमाता का सब से बड़ा अल्गोरिदम है । समझ गये? इसमें हम समझते हैं कि महिषासुर निश्चित रूप से क्या है? उस महिषासुर का वध करनेवाली यानी क्या? तुमने तुम्हारे भूतकाल (अतीत) में पाप कर रखा है, जिसके फल तुम आज भुगत रहे हो और आगे चलकर उसके फल भुगतने बाकी हैं । तो उस अतीत में जाकर तुम्हारा पाप नष्ट कर सकनेवाली ‘वह’ है और उसका पुत्र है यह ध्यान में रखना । आ गया समझ में । निश्चित रूप से ! Done !

       इसलिए, आसमान नीचे आ जाये या पृथ्वी के साथ हम ऊपर जाये, क्या ऐसा हो सकता है? नहीं ना ! क्योंकि कहीं पर भी गये तो भी पृथ्वी, पृथ्वी ही है । हम सीरियल में देखते हैं ना, देवता देख रहे होते हैं, ऊपर से नीचे, स्वर्ग से पृथ्वी पर नीचे देखते हैं । क्या मूर्खता है ! अब मान लीजिए कि यदि चाँद पर, आसमान पर देवलोक है, तो वहाँ से उन्हें देखते समय इस तरह ही देखना पड़ेगा ना? लेकिन यह बात हमारे ध्यान में नहीं आती । समझ गये? एक साधारण सी बात पर विचार  कीजिए । पृथ्वी गोल है । तो अब इस पृथ्वी के गोल पर ऊपरी हिस्से के एक छोर पर एक व्यक्ति खड़ा है । उसके विरुद्ध दिशा में नीचले हिस्से के छोर पर दूसरा व्यक्ति खडा है । तो क्या हमें कभी ऐसा लगता है कि हम पैर से चिपके हवा में लटक रहे हैं । नहीं लगता है ना ! यही है पृथ्वी का नाता, यह है आकाश-पृथ्वी के बीच का नाता और यह नाता, आकाश और पृथ्वी के बीच का नाता है हनुमानजी यानी हनुमन्त । यहाँ का मनुष्य खड़ा है और वहाँ का चमगादड़ की तरह उलटा लटका है, ऐसा नहीं होता । क्यों? तो आकाश और पृथ्वी के बीच के रिश्ते के कारण । यह आकाश और पृथ्वी के बीच का रिश्ता यानी हनुमंत यह ध्यान में रखना । आयी बात समझ में? निश्चित रूप से? और यह मन्त्र हनुमानजी के द्वारा उच्चारित मन्त्र है । इस दुर्गामन्त्र का प्रथम उच्चारण किसने किया? हनुमानजी ने । समझ गये । यह अलगोरिदम हमें किसने दिया है? साक्षात हनुमानजी ने । वे कौन हैं? आकाश का पृथ्वी के साथ रहनेवाला रिश्ता है । हमें जानकारी रहनी चाहिए कि जिस तरह आकाश-पृथ्वी के बीच का रिश्ता बदल नहीं सकता उसी तरह यह अलगोरिदम कभी भी चूक नहीं सकता, बदल नहीं सकता । महिषासुरमर्दिनी की भक्ति करके ही हम अपना जीवन सुखी करनेवाले हैं । हम महिषासुर के दरबार में कतार लगाने नहीं जायेंगे । किसी भी तरह के जादूटोने की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं है । बस अपना पुरुषार्थ करते रहना है । जो कुछ कम है वह उसके पास माँगते रहना है । उसमें बेशरमी कुछ भी नहीं है । वह भीख माँगना नहीं है । हम हमारी माँ के पास ज़िद कर रहे है । अपने बाप के पास हम माँग रहे हैं । हमारी दादी के पास ज़िद कर रहे हैं । यदि तुम मुझे Dad कहते हो, तो मेरी माँ तुम्हारी दादी ही है । और दादी पोतों से तो अधिक प्रेम करती है, यह ध्यान में रखना । एकनाथजी का एक अभंग बहुत सुन्दर है, मुझे बहुत अच्छा लगता है ।

क्या कभी राजा की पत्नी कहीं भीख माँगती है? वह तो मनचाही बात प्राप्त कर लेती है ।

       उसी तरह हम चण्डिका के पोते हैं, हम उसके ग्रँड चिल्ड्रन हैं । हमें किसी के सामने हाथ पसारने की ज़रूरत नहीं है । हमें खुद को दुर्बल मानने की ज़रूरत नहीं है । हमें क्या कहना चाहिए - All is Well ! यह concept मूलत: पूरी तरह वैदिक है । हम अँग्रेज़ी में कहते हैं I Love You Dad ! हमें निरंतर कहना चाहिए - All is Well ! निश्चित रूप से । हम सब कहेंगे - All is Well ! आप कहनेवाले हैं । सुर में कहना है । मधुर सुर में ! सब को आँखें खुली रखनी हैं । आँखों को बंद नहीं करना है ।

All is Well Dad ! All is Well !

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥

 

 "हरि ॐ"

 "श्रीराम"

 "अंबज्ञ"

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