डस्ट बोल - भाग १
कुछ महीने पूर्व इंटरनेट पर एक छायाचित्र (तस्वीर) उभरकर दिखायी दे रही थी। उस समय उस पर्दे पर चल रहा दृश्य कुछ इस प्रकार था कि एक छोटे से प्रवासी जहाज के पिछली ओर इंजिन के पास में होनेवाले छोटे से स्थान पर दो व्यक्ति अपना संतुलन बनाये संभलकर बैठे थे। उनका संतुलन यदि जरा सा भी ढ़ल जाता तो, पानी में गिरकर अथवा उस इंजिन के ज़कड़ में आकर उनकी मृत्यु निश्चित थी। अपनी जान पर खेलकर कहाँ जा रहे थे ये लोग?
इस छायाचित्र (तस्वीर) के नीचे दो पंक्तियों में दी गयी जानकारी पढी़ और हाथ से चाय का प्याला नीचे रख दिया। पास ही रखी हुई डायरी हाथ में उठा ली और डायरी के अंतिम पृष्ठ पर होने वाले विश्व के नक्शे को ध्यानपूर्वक देखा! भूमध्य सागर एवं अटलांटीक महासागर की सीमारेखा पर यूरोप एवं दक्षिण अफ्रीका खंड नक्शे में जहाँ पर जुड़ने के समान दिखाई देते हैं वहीं से इन दो व्यक्तियों के साहसी प्रवास का आरंभ हुआ था, अफ्रीका से यूरोप की ओर। सैकड़ों वर्ष पूर्व के अलिफलैला इस साहसी सफरों की कथासंग्रहों में सिंदबाद के साहसी यात्रा की काल्पनिक कहानियाँ बचपन में सुनी होगी। परन्तु इन व्यक्तियों का यह साहस ना ही काल्पनिक था और ना ही अकाल्पनिक।
नक्शे में यदि अफ्रीका और यूरोप ये दोनों ही खंड स्पेन एवं मोरोक्को के करीब एक दूसरे से जुड़े हुए दिखाई देते हैं फिर भी प्रत्यक्ष में इन दोनों के बीच एक (चिंचोला) गावहुम समुद्री पट्टा है। जिसे जिब्राल्टर सामुद्रधुनी के नाम से जाना जाता है। क्योंकि उसके अनुसार यदि देखा जाए तो यहाँ का अंतर काफ़ी कम है। परन्तु मोरोक्को के साथ ही अल्जेरिया से भी भूमध्य सागर का हिस्सा माना जाने वाला जिब्राल्टर सामुद्रधुनी को पार कर स्पेन में जा सकता है। उसी प्रकार लिबिया, ट्युनिशिया से भी भूमध्य सागर को पार कर इटली के किनारे पर पहुँच सकते हैं।
अफ्रीका को अपना उपनिवेश (कॉलनीज) बनानेवाले यूरोपीय उपनिवेशों ने पंद्रहवी सदी से ही इसी मार्ग का अनुक्रमण करते हुए अफ्रीका में प्रवेश किया था। पोर्तुगाल एवं स्पेन के उपनिवेशक ही इस में आगे थे। इसके पश्चात् फ्रेंच आये। उस समय यूरोपीय देशों को सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत का एवं बिलकुल पूर्व की ओर बसे हुए देशों के प्रति काफ़ी आकर्षण था। इन देशों के साथ व्यापार करने के लिए उन्हें नये जलमार्ग की खोज़ आरंभ कर दी। इसी जलमार्ग के दौरान १४४८ में यूरोपीय उपनिवेश अफ्रीका में आ धमके। प्रथम पोर्तुगाल एवं इसके पश्चात् स्पेन खलाशी अफ्रीका के विविध हिस्सों में प्रवेश कर गए।
उस छायाचित्र (तस्वीर) के दोनों व्यक्ति अपनी जान पर खेलकर यूरोप में जाने के लिए एडी़ चोटी का जोर लगा रहे थे। इस का उत्तर इस उपनिवेशवाद में ही है। इसीलिए अफ्रीका के इन उपनिवेशों का इतिहास भी संक्षेप में जान लेना उचित होगा। परन्तु इससे पहले इन दो व्यक्तियों के समान यूरोप के समृद्ध देशों में जाने हेतु इसी प्रकार का जानलेवा प्रवास करते समय मौत के मुख में जानेवालों की संख्या जानना एवं इस आप्रवासियों के कारण यूरोपीय देशों में उद्भवित होनेवाले प्रश्नों को जान लेना आवश्यक है। क्योंकि इसके बगैर इन प्रश्नों की गंभीरता समझ में नहीं आयेगी।
१९९८ से लेकर आज तक २२०० अफ्रीकन नागरिक ‘भूमध्य’ सागर पार करते समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठत हैं। सच पुछा जाए तो यह संख्या और भी कहीं अधिक होने की भी संभावना है, क्योंकि इनमें कई आपघातों का ब्यौरा प्रकट ही नहीं होने की पूरी संभावना है।
२०१४ में सितंबर तक कुल मिलाकर ३००० से अधिक अफ्रीकन नागरिकों ने इस स्थानांतरण के दौरान अपनी जान गंवा दी है। यही संख्या २०१३ में १५०० थी। अर्थात् इसमें दुगुणी गति से वृद्धि हुई है। अफ्रीका से यूरोप में होनेवाले स्थानांतरण के दौरान मृत्यु के मुख में जाने वालों की संख्या हर साल बढ़ती ही चली जा रही है। इससे हमें इन बातों का पता चलता है।
अभी-अभी पंद्रह सितंबर के दिन माल्टा के करीब इसी प्रकार के आप्रवासियों को लेकर जानेवाली एक छोटी जहाज डूब गई। इस अपघात में लगभग ५०० लोगों को जलसमाधि मिलने का दावा किया जा रहा है। इसी दिन और भी एक अपघात की घटना घटी। लिबिया से २५० आप्रवासियों को लेकर जानेवाली जहाज के उलटा हो जाने से इस जहाज में होनेवाले लगभग सवा दो सौ अफ्रीकन नागरिक अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। जहाज में सिर्फ़ २६ लोग तैरते-तैरते किनारे तक पहुँचे ऐसा कहा जाता है। यानि एक ही दिन ७०० आप्रवासी यूरोप में जाने की कोशिश में अपने प्राणों से हाथ धौ बैठे।
विशेष तौर पर इतने लोगों की जान एक ही समय पर जाने के बावज़ूद भी इतनी संगीन खबर किसी को भी पता नहीं चलने पायी। जागतिक माध्यमों ने उसे विशेष महत्त्व नहीं दिया। हमारे यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध है। ‘रोज मरे उसके लिए कौन रोए’ ऐसा ही कुछ इन आप्रवासियों के संबंध में भी हुआ है।
भूमध्य सागर पार करके गैरमार्ग से यूरोप में जाने की कोशिश में पचास आप्रवासितों के साथ एक की तो प्रवास के दरमियान मौत होती ही है। हर साल लगभग चार लाख से अधिक अफ्रीकन नागरिक स्थानांतरण करते हैं इन में बहुतांश स्थानांतरण यूरोप में होता है। भूमध्य सागर पार करके ही बहुतांश अफ्रीकन आप्रवासि यूरोप में पहुँचते रहते हैं।
ये सभी आकड़ेवारी को देखने पर मन सुन्न पड़ जाता है। विशेष बात तो यह है कि इस जानलेवा प्रवास को कोई रोक भी नहीं सकता है। यही बात इसकी विलक्षणता एवं विक्षिप्तता को अधोरेखित करती है।
अफ्रीका से यूरोप में होनेवाला यह स्थानांतरण आज की स्थिति में यूरोप एवं अफ्रीका की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या बन गयी है। यूरोपीय देशों के लिए यह तो आतंकवाद की अपेक्षा अधिक गंभीर समस्या बन गयी है। यहाँ का सामाजिक वातावरण ही इस स्थानांतरण के कारण पिछले कुछ वर्षों में विकृत हो गया है।
तीन वर्ष पूर्व कभी न होनेवाली घटना के कारण वे ब्रिटन के दंगों में भून गए थे। तीस वर्षों में लंडन में होनेवाली ये पहले दंगेफसाद थे। इस दंगल का ज़िम्मेदार भी इन आप्रवासियों को ही ठहराया गया था। २०१० में इटली में होनेवाले दंगों के लिए भी इन आप्रवासियों को ही ज़िम्मेदार ठहराया गया। यूरोप का संपन्न एवं स्थिर देश माने जाने वाले स्वीडन जैसे समृद्ध देश के स्टॉकहोम में २०१३ में दंगे हुए थे। पूरे सप्ताह स्टॉकहोम अग्नितांडव में सुलग रहा था। इस बात का थपका भी कुछ लोगों ने इन आप्रवासियों को ही दिया। यूरोप में बढ़ती हुई यह गुनाहगारी, विषमता इन सभी के लिए अफ्रीका से आने वाले आप्रवासियों को ही यूरोपीय देश ज़िम्मेदार ठहराते हैं।
यूरोपीय देशों का यह दावा बिलकुल झूठ भी नहीं है। पहले ही यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था पिछले कुछ वर्षों में काफी बड़े पैमाने में गिर गई है। यहाँ के देशों का आर्थिक विकास भी काफी मंद हो चुका है। इसीलिए नये रोजगार उपलब्ध करने के लिए काफ़ी अड़चनें उत्पन्न हो रहीं हैं। देश के नौजवानों को रोजगार का अवसर उपलब्ध न होने के कारण बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही चली जा रहा है। २००८ के मंदी के पश्चात् तो इस प्रश्न ने और भी अधिक भीषण रूप धारण कर लिया है। अनेक देशों को रोजगारी में कपात करनी पड़ी। खर्च कम करने के लिए सरकार द्वारा नागरिकों को दी जाने वाली मुफ्त एवं कम दरोंवाली सेवाओं पर चाप चढ़ा दिया गया। यह कहकर कि इस पर आनेवाली आप्रवासियों का भार भी सहन करना पड़ रहा है। मूलत: आने वाले आप्रवासी यूरोप में काफ़ी बड़े-बड़े स्वप्न लेकर ही प्रवेश करते हैं। उनका स्वप्न होता है, एक सुंदर जीवन जीने का। जीवन संघर्ष में मज़बूती पकड़ने के लिए स्थानांतरण यह तो प्राचीन काल से ही चलता चला आ रहा है। अन्न की खोज में, दो मानवी समूहों में के बीच उत्पन्न कलहों के पश्चात् अपनी स्वतंत्र बस्ती बसाने के लिए, कभी नैसर्गिक आपत्ति के कारण तो कभी रोजगार प्राप्ति हेतु स्थानांतरण तो होता ही रहा है।
आधुनिक युग में रोजगार हेतु होनेवाला स्थानांतरण काफ़ी प्रचंड मात्रा में है। जहाँ कही भी काम मिल जाये, जीवन में अधिक संघर्ष नहीं होगा, अपने सपनों को पूरा किया जा सके, ऐसे स्थान पर जा पहुँचने के लिए चलने वाले ये स्थानांतरण हमें दुनिया के हर कोने में दिखायी देता है।
एक सामान्य उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो हमारे देश के नौजवानों को आज भी अमेरिका, यूरोप के बड़े-बड़े राष्ट्रों में, ऑस्ट्रेलिया में स्थायिक होने की धुन लगी रहती है। इस संपन्न राष्ट्र में स्थायिक होकर, वहाँ पर अपने सभी स्वप्न साकार हो सकेंगे, यही भावना अनेकों के मन में बलिष्ठ रहती है। इसीलिए अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् अथवा उच्च शिक्षा हासिल करने हेतु इन राष्ट्रों में अनेक लोग आते-जाते दिखायी देते हैं फिर वही पर नौकरी करके कुछ ही वर्षों में वहीं की नागरिकता भी प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार को ‘ब्रेन ड्रेन’ कहा जाता है। इससे होता यह है कि हमारे अपने देश की बुद्धि संपदा दूसरे देशों के काम आती है।
अर्थात इसके अच्छे और बुरे दोनों पहलू हैं। परन्तु आज भारत, चीन तथा अन्य देशों से भी नौकरी धंधे के निमित्त होने वाले स्थानांतरण का प्रश्न भी विकसित देशों के नौजवानों की दृष्टि से गंभीर माना जाता है। ये आप्रवासी नौजवान अपने हिस्से की नौकरी प्राप्त कर रहे हैं, ऐसा आरोप वहाँ के नौजवान करते रहते हैं। यह मुद्दा उनके लिए इतना अधिक तीव्र रुप धारण कर चुका है कि उनके बढ़ते हुए इस असंतोष के कारण अमेरिका के साथ-साथ अनेक देशों को और भी सक्त आप्रवासी कानून बनाने पड़ रहे हैं (इमिग्रेशन कानून)।
यदि ऐसा है फिर भी इस प्रकार का स्थानांतरण इन देशों के ही माथे पर आन पड़ा है, इस बात को वे भली-भाँति जानते हैं। क्योंकि भारत, चीन एवं अन्य देशों से आनेवाले प्रतिभाशाली नौजवानों के कारण वहाँ की विविध कंपनियों में तथा विविध क्षेत्रों में आवश्यक लगने वाली कुशल बुद्धि संपदा की ज़रूरत पूरी की जाती है। इस प्रकार के स्थानांतरण के कारण इन देशों की प्रगति को काफ़ी सहायता मिलती है, इस बात में कोई शक नहीं। इसी कारण इमिग्रेशन कानून बनाये गए हैं फिर भी इस बुद्धि संपदा की आयात हमेशा के लिए रोकी नहीं जा सके इसके लिए थोड़ी बहुत लचिली नीति अपनाई जाती है।
मात्र अफ्रीका से होनेवाला स्थानांतरण इस प्रकार का नहीं है। अफ्रीका से होनेवाला यह स्थानांतरण किसी भी नियम के अनुसार नहीं होता है। इन में से बहुतांश नागरिकों को शिक्षा की जरा सी भी रुचि नहीं होती। इसीकारण इस स्थानांतरण को बुद्धिसंपदा के आयात के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। केवल अभी वे जिस स्थिती में जी रहे हैं उससे अच्छी जिंदगी प्राप्त हो सके, साथ ही पेट भरने के लिए दो वक्त के अन्न का इंतजाम हो सके, इतना पैसा वे कमा सके इसी अपेक्षा के अनुसार उनका यह स्थानांतरण हो रहा है। अफ्रीका से कौन-कौन से देशों में यह स्थानांतरण हो रहा है और इन देशों की स्थिती का अंदाजा लगा लेने पर भी इस संदर्भ में घटित होनेवाली कई बातें उज़ागर हो जायेंगी।
सितंबर २०१४ में इन स्थानांतरणों को ले जानेवाला जहाज डूब गया, उसमें होनेवाले ५०० आप्रवासी सीरिया, पॅलेस्टाईन, इजिप्त, सुदान आदि देशों के नागरिक थे, इसी दिन होनेवाले और भी एक अपघात में मरनेवाले २२५ आप्रवासियों में से अधिकतर आप्रवासी लिबियन थे। अफ्रीका से यूरोप में जानेवाले आप्रवासियों में अल्जेरिया, मोरोक्को, ट्युनिशिया, घाना, नायजेरिया, नायजेर एवं सेनेगल आदि देशों के नागरिकों का काफ़ी बडे़ पैमाने पर समावेश होता है। इसके अलावा इरिट्रिया, चाड, माली, गांबिया, सोमालिया, रवांडा, बुरुंडी, मॉरिशानिआ, कॅमरुन, अंगोला, सिएरा लिऑन इन देशों के नागरिक भी हर साल काफ़ी बड़े पैमाने पर यूरोप में स्थानांतरण करते हैं।
इनमें से सीरिया एवं पॅलेस्टाईन छोड़कर कर अन्य सभी देश अफ्रीकन ही हैं। सीरिया, पॅलेस्टाईन ये पश्चिमी एशियाई देशों से होनेवाले स्थानांतरण आजकल कुछ समय पहले ही बढ़ गये हैं। सीरिया में अस्साद राजकारण एवं विरोधी पक्षों में पिछले तीन वर्षों से चल रहे जोरदार संघर्ष के कारण अनेक सीरियन नागरिकों अपना भविष्य अंधकारमय दिखायी दे रहा है। ‘आयएस’, खोरासन जैसे आतंकवादी संघटनाओं का जन्म हो गया है। इन संघटनाओं ने सीरिया एवं इराक में रक्तपात मचाते हुए अनेक प्रदेशों को अपने नियंत्रण में कर लिया है। इस संपूर्ण संघर्ष में अब तक लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं। किसी समय में सीरिया की आर्थिक उच्चांकवाले शहरों की राजधानी दमास्कस अलेप्पो थी आज वहाँ बाजारों में सूनापन आ गया है। बाँम्बस्फोट, रॉकेट हमलों में उद्ध्वस्त हो जानेवाले इन शहरों में संपन्नता का केवल भग्नावशेष स्थान-स्थान पर दिखायी दे रहा है। इस प्रकार की हताश स्थिती में उज्ज्वल भविष्य के लिए अनेक नागरिक जहाँ मार्ग मिल जाए वहीं से सीरिया से बाहर निकलकर स्थिर शांत देशों में जाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे हैं। इसके लिए कायदे-कानून के खिलाफ़ भी वे अनेक लोग अपने-अपने परिवार को लेकर स्थानांतरण कर रहे हैं।
यही स्थिती पॅलेस्टाईन के संबंध में भी हैं। पिछले कुछ समय में ही इस्त्रालय एवं पॅलेस्टाईन के बीच संघर्ष अधिक तीव्र हो जाने के कारण विशेषत: गाझा युद्ध के पश्चात् यह स्थानांतरण और भी अधिक बढ़ गया है।
परन्तु अफ्रीकन देशों से होनेवाला यह स्थानांतरण कितने सालों से चल रहा है। अफ्रीकन नागरिकों का लौढे़ का लौढ़ा यूरोप के स्थिरसंपन्न देशों में बढ़ता चला आ रहा है। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार है कि अफ्रीकन देशों में अस्थिरता, संघर्ष आदि काफ़ी पुराना हो चुका है। और इन आप्रवासियों की बढ़ती हुई संख्या से यहाँ की परिस्थिती काफ़ी अधिक खराब हो चुकी है यह बात भी अधोरेखित करती है।
पिछले दशक में सुदान से सबसे अधिक स्थानांतरण हुआ। यह देश चार दशकों से अन्तर्गत संघर्ष के कारण पीर चुका है। १९९० के दशक के मध्य में यह संघर्ष अधिक तीव्र हो गया था। यहाँ के वांशिक संघर्ष के कारण आखिर इन देशों का २०११ में दो टुकड़ों में विभाजन हो गया। इस तरह दक्षिण सुदान एवं सुदान इस प्रकार के दो स्वतंत्र देश अस्तित्त्व में आए सुदान में आतंकवाद जोर पकड़ लिया वहीं दक्षिण सुदान के दारिद्रय ने सामान्य जनता की कमर ही तोड़ दी। दारिद्रय, निरक्षरता, वांशिक संघर्ष के पश्चात् स्वतंत्र हो जाने पर भी यहाँ की जनता का दुर्भाग्य नहीं बदला उनकी दुर्दशा होती ही रही। भीषण दुर्भिक्ष ने यहाँ की जनता को भूखाकंगाल बनाकर रखा दिया। पिछले दो वर्षों में अन्नटंचाई ने इतना भीषण रुप धारण कर लिया कि अन्न-अन्न करते हुए सैकड़ों लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है।
(क्रमश:)