मैने देखे हुए बापू - पुस्तक की प्रस्तावना
मैंने पहली बार बापू को देखा, वह १९८५ में| ‘दादा के नायर कॉलेज के सर’ यह बापू से उस समय हुआ मेरा प्रथम परिचय| पढ़ाई पूरी करके पुणे से लौटने के बाद मेरा बापू के साथ काम करना शुरू हो गया और उस सिलसिले में बापू की परळ की क्लिनिक में जाना भी शुरू हो गया| यह सब करते हुए बापू के व्यक्तित्व को करीब से
देखने का और उनकी कार्यपद्धति को अनुभव करने का अवसर मिला| यह अनुभव करते समय, देखते समय बापू के संपर्क में आये अनेक पुराने परिचितों से मुलाक़ातें हुईं| परळ की क्लिनिक में देर रात तक बिना ऊबे थके ठहरने वाले,
गॉंव गॉंव के पेशंट्स् से बातें करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ| इन बातों-मुलाक़ातों में से ही ‘दैनिक प्रत्यक्ष’ के ‘मैंने देखे हुए बापू’ इस विशेषांक की संकल्पना सामने आ गयी|
ये हैं बापू से जुड़ीं यादें| जिन्होंने भी बापू के शालेय जीवन से लेकर वैद्यकीय प्रॅक्टिस तक की अवधि में बापू को करीब से देखा, अनुभव किया और जाना ऐसे बापू के अध्यापक, सहपाठी, मित्र, पड़ोसी, पेशंट्स् और उनके परिजन, जिन्हें बापू के अनोखे विलक्षण, असामान्य व्यक्तित्व की झलक को अनुभव करने मिला, उसका साक्षी होने का अवसर मिला, उनकी ये यादें हैं| बापू के बारे में रहने वालीं इन यादों का संग्रह है, ‘मैंने देखे हुए बापू’ यह पुस्तक|
परन्तु कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इन यादों को संग्रहित करने की आवश्यकता ही क्या है? कारण एक ही है, इन सब यादों में से प्रकर्ष से महसूस होता रहता है, एक समान सूत्र| अपने मित्र, आप्त और साथ ही पीडित एवं उपेक्षित इनके जीवन के दुख, कष्ट और अंधकार को दूर करने के लिए, उनका विकास करने के लिए बापू के द्वारा किये गये प्रयास, अथक कोशिशें, बापू के छात्र होने से लेकर आज तक, और महसूस होता रहता है, वह इन सबका बापू के प्रति रहने वाला बरसों का प्रेम और बापू के प्रति इन सबको रहने वाली आत्मीयता, लगन और अथाह प्रेम, एक अनोखा एवं विलक्षण निरपेक्ष प्रेम|
और इन यादों में महसूस होता रहता है, वह बापू का अनेकविध क्षेत्रों से रहने वाला संबंध, उनका उन क्षेत्रों में रहने वाला प्रभुत्व, नैपुण्य और अपरंपार ज्ञान, जो उन क्षेत्रों के एक्स्पर्ट्स् (विशेषज्ञों) को भी अचंभित कर देता है| उदाहरण ही देना हो तो मलखम और जिमनॅस्टिक के सर्वोच्च महदाचार्य उदय देशपांडेजी बापू?की उस क्षेत्र की कार्यपद्धति के बारे में कहते हैं - ‘यह देखकर उस समय मेरे मन में प्रश्न उठता था कि इतना अध्ययन, इतना ज्ञान एक व्यक्ति के पास कैसे हो सकता है? क्योंकि इतने वर्षों से इस क्षेत्र में होने के बावजूद भी मेरे लिए डॉक्टर (डॉ. अनिरुद्ध जोशीजी) के द्वारा बतायी गयी कईं बातें नयीं रहती थीं|’ फिर वे कहते हैं, ‘बापू के सान्निध्य में बहुत सारी जानकारी और ज्ञान सहजता से मिल रहा था| अब भी उनसे बहुत कुछ सीखने की मेरी इच्छा है|’
इस याद में और इन जैसी अनेक यादों में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले ७ (सात) वर्ष के बापू ‘हिमालय की पुकार’ यह देशभक्तिपर निबंध लिखते हुए दिखायी देते हैं; वहीं, पॉंचवीं कक्षा में पढ़ने वाले ९ वर्ष के बापू में, ‘मेरे पिता डॉक्टर हैं, वे साल भर की फीज़ एकसाथ भर सकते हैं| मुझे फी-माफ़ी मत दीजिए| यह सहूलियत आप इसे दीजिए| इसके पैरों में चप्पल तक नहीं है|फी-माफ़ी की ज़रूरत इसे है’ यह क्लास टीचर से कहने वाला कर्तव्यदक्ष सहृदयी छात्र एवं मित्र दिखायी देता है| साथ ही ‘संन्यासाश्रम का अनुभव प्राप्त करके पुन: गृहस्थी में आ जाने में क्या हर्ज़ है’ इस बहुत ही गंभीर विषय पर ‘मेरी राय ऐसी है’ यह दृढ़तापूर्वक कहने वाले दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले बापू दिखायी देते हैं|
कॉलेज के जीवन में मित्रों की जी-जान से सहायता करने वाले बापू और साथ ही दोस्तों के समूह में हँसी-मज़ाक करने वाले, हास्यविनोद करने वाले, मग़र फिर भी ‘डिसेन्सी’ न छोड़ने वाले, उथलापन-उच्छृंखलता न होने देने वाले बापू दिखायी देते हैं और इसके साथ ही अपने व्यस्त दिनक्रम में से समय निकालकर मेडिकल के छात्रों की स्पेशल क्लास लेने वाले, डिग्री सिखाने वाले कडक अध्यापक दिखायी देते हैं| परळ-लालबाग-शिवडी जैसे मिलों वाले इलाकों में रहने वाले मेहनत-मज़दूरी करके अपना पेट पालने वाले श्रमजीवी वर्ग को और उनके गॉंव के आप्तेष्टों को अत्यल्प एवं कभी कभी बिलकुल भी फीज़ न लेते हुए ट्रीटमेंट देने वाले एम.डी. डॉक्टर भी हमें दिखायी देते हैं|
साथ ही कुछ ही समय पहले बापू के सान्निध्य में आये मान्यवरों को बापू का भा गया व्यासंग, बापू की सरलता और सादगी तथा उनके द्वारा अनुभव किया गया बापू का अलौकिकत्व यह इन यादों में से हमारे सामने आ जाता है| बापू से जुड़ी यादों में से एक बात हमारे सामने आ जाती है, वह है, बापू ने कभी भी किसी की भी उपेक्षा नहीं की, कभी भी किसी को भी छोटा नहीं माना, हर एक को उन्होंने सँभाल लिया, हर एक की न्यूनभावना कम करके हर एक को हमेशा दिलासा दिया| ब्लड डोनेशन कँप के समय 'I am not totally useless, at least I can donate blood' यह बताकर विश्वास जागृत किया और इसी कारण बापू के स्कूल के छात्रों के साथ साथ पॅरेंट्स् का भी बापू पर विश्वास था| इसी कारण बापू के स्कूल के अध्यापक श्री. जी. डी. पाटील सर कहते हैं, ‘यह विश्वास बापू ने छात्र रहते समय ही अर्जित किया था|’
ये यादें हमें बापू के व्यक्तित्व के अनेक पहलू दिखाती हैं| एक छात्र, एक पड़ोसी, एक मित्र, एक अध्यापक, एक डॉक्टर और मुख्य रूप से एक मानव के रूप में बापू का विलक्षण, व्यापक एवं अद्भुत व्यक्तित्व हमारे सामने आ जाता है| बापू उस समय में भी वैसे ही थे, जैसे आज हैं|
आज आसपास का जगत्, परिस्थिति बहुत तेज़ी से बदल रही है| इस परिवतनों से तालमेल बनाते हुए चलने में हर एक को कठिनाई पेश आ रही है| इन परिवर्तनों से तालमेल बनाकर कैसे चलना चाहिए, यह सेमिनार्स और अग्रलेखों के माध्यम से बापू हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं| परन्तु यह सब करते समय, प्रस्तुत करते समय, इन परिवर्तनों के घटित होते समय एक बात ‘नित्य’, ‘शाश्वत’ है और वह है बापू, बापू का प्रेम और बापू के मूल्य|