आक्रमक जापान - भाग ३
‘सेंकाकू’ टापूसमूहों के चक्कर में हम नहीं पड़ेंगे, ऐसा आरंभिक समय में अमेरिका की ओर से कहा जा रहा था। परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान के संरक्षण की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए हम वचनबद्ध हैं, इस प्रकार के उद्गार अमेरिका प्रकट करने लगी। यह चीन के लिए इशारा था। ऍबे की रणनीति यहाँ पर चल गई। परन्तु चीन के साथ मुकाबला करते समय केवल अमेरिका पर निर्भर रहने में कोई समझदारी नहीं है इसीलिए ऍबे ने चीन के आक्रमकता के अधिकार में रहनेवाले दक्षिण कोरिया, तैवान जैसे देशों के साथ सभी स्तरों पर अपने संबंध दृढ़ कर लिए।
इन देशों के साथ भी जापान की कुछ समस्यायें हैं। मात्र ऍबे ने अगुआई करके इन देशों के साथ संबंध बढ़ाते हुए चीन के विरुद्ध अपने पहलू को और भी अधिक बलवान बनाना शुरु कर दिया। व्हिएतनाम, इंडोनेशिया, फिलिपाईन्स इन आग्नेय एशियाई देशों को भी चीनने ‘साऊथ चायना सी’ क्षेत्र को अपना जताकर ठेस पहुँचाई थी। इन देशों के साथ द्विपक्षीय उसी प्रकार आसियन संघटना के स्तर पर पहुँचकर ऍबे ने संबंध को विकसित किया।
ऍबे के इन डाव-पेचों को चीन अस्वस्थ रुप में देख रहा था। ऍबे की चीन विरोधी कोशिशों को कभी भी यश नहीं मिलेगा। इस प्रकार की हाय-मारी चीन के प्रसार माध्यम द्वारा निरंतर व्यक्त की जा रही थी। परन्तु ऍबे की कोशिशें केवल यहीं तक नहीं रहीं बल्कि उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के साथ जापान का सामरिक संबंध विकसित करके चीन के सामने उपस्थित की गई चुनौती में और भी अधिक चिन्गारी डाल दी। वास्तव में देखा जाए तो ऍबे की सत्ता के पहले से ही अमेरिका ने जापान एवं ऑस्ट्रेलिया को चीन के विरोध में तैयार ही रखा था।
चीन के बढ़ते सामर्थ्य के कारण एशिया प्रशांत क्षेत्र में असंतुलन निर्माण हो चुका है। यहाँ पर इस सत्ता में संतुलन साध्य करने के लिए अमेरिका के साथ जापान एवं ऑस्ट्रेलिया का सामरिक सहकार्य आवश्यक होने का अहसास अमेरिका ने इन दोनों ही देशों को करवाया। परन्तु ऍबे के सत्ता में आने के पश्चात् जापान ने इस मामले में विशेष तौर पर अगुआई की। कुच महीने पूर्व ही जापान एवं ऑस्ट्रेलिया के बीच संपन्न होनेवाले सामरिक सहकार्य करार यह इस अगुआई का ही एक हिस्सा है।
२००६ में ऍबे जापान के प्रधानमंत्री पद पर आसिन हुए थे। उस समय उन्होंने भारत का महत्त्व जान लिया था। इसीलिए एशिया प्रशांत क्षेत्र का उल्लेख उन्होंने ‘इंडो पॅसेफिक’ नाम से किया था। इस तरह से पॅसेफिक क्षेत्र में भारत को अपने में शामिल कर लेनेवाले ऍबे ये प्रथम आंतरराष्ट्रीय नेता साबित हुए। इसके पश्चात् आनेवाले समय में भारत एशिया प्रशांत क्षेत्र में होनेवाले अपने प्रभाव को और भी अधिक बढ़ाये, ऐसी माँग अमेरिकाने की, इतना ही नहीं बल्कि इसके लिए विशेष तौर पर आग्रह भी किया। परन्तु अमेरिका के इस आग्रह के पिछे अनेकों कारण छिपे दिखाई देते हैं।
एशिया प्रशांत क्षेत्र में यदि अपना वर्चस्व स्थापित करना है, तो इसके लिए भारत को अपने नौदल की क्षमता बढ़ानी पड़ेगी। साथ ही अमेरिका के समान युद्धनौकाएँ, विनाशिकाएँ, पणडुब्बियाँ, रड़ार यंत्रणाएँ आदि तैयार करनेवाले देशों से इन सभी यंत्रणाओं की खरीदारी भी करनी पड़ेगी। नौदल के खरीदारी का व्यापार आर्थिक दृष्टि से काफ़ी अधिक खर्चिला होता है। इससे अमेरिका के अर्थव्यवस्था का समूचा दृश्य ही बदल सकता है। अर्थात अमेरिका की इस माँग के पिछे केवल आर्थिक हितसंबंध ही हैं, ऐसा बिलकुल नहीं। चीन पर पाबंदी लगाने की व्यूहरचना भी इसके पिछे है ही। परन्तु इसके पिछे होनेवाले आर्थिक व्यवहारों का लेखा-जोखा भी नहीं भुलाया जा सकता है।
मात्र जापान के शिंजो ऍबे की ओर से की जानेवाली यह ‘इंडो पॅसिफिक’ का प्रस्तुतीकरण इस आर्थिक हितसंबंधों के साथ जुड़ा हुआ नहीं हैं बल्कि इसके पिछे सामरिक सहकार्य की प्रेरणा है। चीन के बढ़ते हुए सामर्थ्य के कारण निर्माण होनेवाले प्रश्नों का हल यदि निकालना है तो भारत को प्रशांत क्षेत्र में आवागमन बढ़ाना ही चाहिए, ऐसा ऍबे चाहते हैं। भारत उनके इस विचार से सहमत दिखाई दे रहा है।
आज तक दूसरे किसी भी देश को सुरक्षा सामग्री की विक्री नहीं करनी है, ऐसी नीति अपनाने वाले जापान ने भारत को ‘यूएस-२’ नामक सागरी विमान उपलब्ध करवाने की तैयारी की है। काफ़ी बड़े पैमाने पर सागरी सरहदों के धनी भारत के सुरक्षा हेतु ये विमान अत्यन्त आवश्यक माने जाते हैं। फिलहाल यह व्यवहार हुआ नहीं है, परन्तु इससे जापान एवं भारत का सुरक्षा संबंधित सहकार्य किसी भी स्तर तक जा सकता है, इस बात का संकेत मिलने लगा है।
पिछले वर्ष के भारत के स्वाधीनता दिवस के अवसर पर ऍबे भारत के विशेष अतिथी थे। वहीं पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जापान दौर में दोनों देशों के बीच होनेवाली चर्चा एवं समझौते के कारण भी जापान के साथ भारत का सहकार्य व्यापक एवं दृढ़ होने के आसार नजर आ रहे हैं। दोनों देशों का व्यापार यदि उस नजरिये से देखा जाए तो उतना बड़ा नहीं है। भारत ने १९९९ में किए अणुपरिक्षण के पश्चात् जापान ने भारत पर आर्थिक निर्बंध लाद दिये थे। इसी का परिणाम दोनों देशों के व्यापारी संबंधों पर दिखायी देता है।
क्रमश:..