आक्रमक जापान - भाग ४

ज भी इस आक्रमकता की छाया से दोनों देश पूर्णरूप से मुक्त नहीं हुए हैं। इसके पश्चात्‌ ऍबे ने प्रधानमंत्री मोदी के जापान दौर के अन्तर्गत लगभग ३५० करोड़ डॉलर्स का निवेश करने की घोषणा की। उसी प्रकार भारत को काफ़ी बड़े पैमाने पर यांत्रिक ज्ञान एवं यांत्रिक ज्ञान पर आधारित सेवा उपलब्ध करवाने के लिए भी जापान ने मान्य किया है।

भारत एवं जापान के बीच बढ़ते हुए इस सहकार्य को देख चीन के माध्यमों में खलबली मची हुई थी। वास्तविक तौर पर देखा जाए तो किसी भी देश के माध्यमों की प्रतिक्रियाओं को इतना अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता है। परन्तु चीन में ये माध्यम स्वतंत्र नहीं है। माध्यमों के जरिये ही चीन की सरकार अपनी जनता के साथ एवं संपूर्ण विश्व के साथ अप्रत्यक्ष रूप में संपर्क स्थापित करती रहती है, इस बात पर यदि हम गौर करते हैं तो चीनी प्रसारण क्षेत्रों का महत्त्व हम समझ पायेंगे। शिंजो ऍबे भी भारत का चीन के विरोध में उपयोग करने की कोशिश में लगे हैं। परंतु उनका यह स्वप्न कभी भी प्रत्यक्ष रूप में पूरा नहीं होनेवाला है। भारत जापान के चीन विरोधी मुहिम का हिस्सा कभी नहीं बनेगा, ऐसा चीनी कूटनीतितज्ञों का मानना है।

ऍबे के नेतृत्व में जापान में होनेवाली हलचल पर चीन ने उतनी ही तीखी प्रतिक्रिया देने का इरादा कर लिया है। इसीलिए ‘सेंकाकू’ टापूसमूहों के चारों ओर चीन ने अपनी कारवाई बढ़ा दी है। वही जापान के सरहदों में चीन के वीमानों की घुसखोरी भी शुरु हो गई है। चीन के जहाज ‘सेंकाकू’ के चारों ओर चक्कर लगाने लगे हैं। चीन के मछुवारे इस क्षेत्र में जाल आदि फैलाने लगे हैं। परन्तु ऍबे के नेतृत्व में आक्रमक बन चुका जापान चीन की ये सारी गुस्ताखियाँ सहन करने के मन:स्थिती में नहीं था।

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चीन के लडाकू विमान अपनी सरहद में घुसने पर सुरक्षायोग्य आवश्यक उपाययोजना करने का सर्वाधिकार ऍबे ने अपने लश्करी अधिकारियों को दे रखा था। इसीलिए चीन के विमानों का पिछा करते हुए जापान के लडाकू विमान आकाश की ओर उड्डानें भरने लगें। सेंकाकू के क्षेत्र में मच्छीमारी करनेवाले चीनी मछुआरों को जापान के तटरक्षकदलों ने बंदी बना लिया। कालांतर में उन्हें छोड़ देने का निर्णय लिया गया। इसीकारण चीन को सेंकाकू के क्षेत्र में घुसखोरी करने का अधिक अवसर प्राप्त नहीं हुआ।

चीन को जापान की ओर से यह प्रत्युत्तर मिलते समय, जापान की जनता इसके प्रति समाधान व्यक्त कर रही थी। चीन के जुल्मों के प्रति उसी भाषा में प्रत्युत्तर देनेवाले नेता जापान के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो चुके हैं, यह सच्चाई जापान की जनता के लिए और भी अधिक सुखदायी साबित हो रही थी। इसी के साथ कुछ लोगों के ओर से यह आलोचनाएँ भी हो रही थी कि शिंजो ऍबे युद्धखोर हैं। इनकी नीति के कारण ही जापान युद्ध की दिशा में प्रवास करते हुए आगे बढ़ रहा है, ऐसी इन आलोचकों की राय थी। आज कदाचित चीन क दिए जाने वाले प्रत्युत्तर पर कुछ लोग आनंद व्यक्त कर रहे होंगे। परन्तु उसका परिणाम सामने आने लगा है। और इसी में यदि युद्ध भड़क उठा तो इसका नतीजा भी भुगतना पड़ेगा, ऐसा इशारा ये विरोधी दे रहे हैं। चीन से भी ऍबे की नीति के प्रति इसी प्रकार की आलोचनाएँ निरंतर हो रही हैं।

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प्रधानमंत्री ऍबे इनके रूप में जापान में आक्रमक राष्ट्रवाद का उदय हुआ है। इसके लिए काफ़ी हद तक चीन ज़िम्मेदार है। इससे पहलेवाली सरकार ने चीन की गुस्ताखियों के प्रति काफ़ी नरम एवं उदारवादी नीति का स्वीकार किया था। जो जापान की जनता को कभी भी कबूल नहीं था। शायद इसी कारण इस सरकार ने जापान की लोकभावानाओं को ध्यान में रखकर अपनी चीन विषयक नीति में बदल कर दिया होता तो आज ऍबे का को इतना अधिक यश प्राप्त नहीं हुआ होता।

अब भी ऍबे के लिए जापान में उतनी अनुकूल परिस्थिती नहीं रह गई है। उनके द्वारा स्वीकारे गए आर्थिक नीति को अपयश मिल रहा है इस बात की तक्रार चल रही है। यही कारण है कि जापान की अर्थव्यवस्था मंदी से बाहर आने की बजाय और भी अधिक गर्त की ओर चले जाने के चित्र दिखायी दे रहे हैं। लेकिन ऍबे ने जनता का आधार कम होने के आरोपों का प्रत्युत्तर मध्यावधी चुनाव लेकर देना चाहते हैं।

जल्द ही जापान में चुनाव निष्पन्न होगा और उसक नतीजे की ओर जापान के ही समान चीन का भी ध्यान बना रहेगा। इस चुनाव में यदि ऍबे को सफलता नहीं मिलती है, तो चीन मानो संतोष की दीर्घ साँस लेगा। परन्तु ऍबे इस चुनाव में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, तब मात्र लोकशाही की परंपरा को न मानने वाली चीन की हुकूमशाही सत्ता को ऍबे के आक्रमक नीति के पिछे छिपे जापान की लोकभावना का विचार तो करना ही पडेगा। अन्यथा चीन एवं जापान के बीच का संघर्ष विनाश की ओर अग्रसर हुए बगैर नहीं रहेगा।

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