समय के साथ चलो
सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने ३१ मार्च २०१६ के पितृवचनम् में ‘समय के साथ चलो’ इस बारे में बताया।
कईं लोगों को देखता हूँ, तो बस पढ़ते ही रहते हैं, कभी भी देखो खेलते रहते हैं मोबाईल पर, नहीं तो पढ़ते रहते हैं। इससे कुछ नहीं मिलता, ध्यान में रखिए। ये हमारे जो समय भगवान ने दिया हुआ है वो सिर्फ गिना-चुना है। कोई नहीं आज अगर सोचता है, कोई भी कि मैं दो सौ साल जिऊँगा तो ग़लत सोच रहा है, इट्स इम्पॉसिबल। जो आया है उसे जाना है, लेकिन जाने के पहले जो समय मिला है, उस समय का बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल करना है और जीवन अपना सुखी करना है, तो जीवन में हमें एक बात ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है कि हमें काल के पीछे नहीं रहना है।
जब भी हम समय के पीछे रहते हैं कि दुनिया जी रही है २०१६ में, दो हज़ार सोलह में और हम लोग जी रहे हैं १९९० में, उन्नीस सौ नब्बे में तो क्या होगा? हम समय के सोलह साल पीछे आये और काल कभी भी जो पीछे जाता है उसके, जो उसके पीछे जाता है, जो रहता है, उसे क्षमा नहीं करता। काल के पास कभी क्षमा नहीं है। क्योंकि काल कुछ भगवान नहीं है, काल भगवान के आधीन है, भगवान अकाल हैं, ओके।
सो, काल एक यंत्रणा है सिर्फ इट्स वन मेकॅनिझम, इट्स वन सॉफ्टवेअर क्रिएटेड बाय परमात्मा, परमात्मा ने ये सॉफ्टवेअर बनाया हुआ है, वो चालू रहता है अपना अपना। भगवान उसमें हस्तक्षेप नहीं करता, जितना हो सके। लेकिन, इसी लिए उस सॉफ्टवेअर के नियम जैसे हम लोगों को फॉलो करने ही पड़ते हैं, राईट। जो भी यंत्र है हमारे घर में, उसके जो नियम हैं, तो उसे पालने ही पड़ता है और घर में, जो बाथरुम में जो गिझर है उससे हम लोग बोलेंगे कि इससे थंड़ा पानी मिलेगा तो दॅट इज राँग। ऐसे एक-एक मशिन के नियम बने हैं, वैसे सॉफ्टवेअर के नियम होते हैं।
वैसे ही काल के, समय के अपने कुछ नियम है, उसके नियम के अनुसार ही उसकी यंत्रणा चलती रहती है। उस में एक बहुत आवश्यक नियम है, जो भी इन्सान, ये सिर्फ इन्सान के लिए ही है, प्राणियों के लिए नहीं। लेकिन जनावर, जानवरों को और पंछियों को बुद्धि जो नहीं है भेद-अभेद करने की और जानने की, जो इन्सान के पास है।
जो भी इन्सान समय के पीछे रहता है, उसे काल कभी क्षमा नहीं करता।
‘यह कनेक्टिव्हिटी की दुनिया है’ इस बारे में हमारे सद्गुरु श्री अनिरुद्ध ने पितृवचनम् में बताया, जो आप इस व्हिडिओ में देख सकते हैं।
|| हरि: ॐ || ||श्रीराम || || अंबज्ञ ||
॥ नाथसंविध् ॥