त्रिविक्रम जल पर आधारित सद्गुरु श्री अनिरुद्ध बापू का प्रवचन

गुरुवार, 6 मार्च 2014 को परमपूज्य बापू ने ‘ त्रिविक्रम जल ’ इस विषय पर प्रवचन किया। हिन्दी प्रवचन में भी बापू ने इस सन्दर्भ में संक्षेप में जानकारी दी। इस ‘त्रिविक्रम जल’ विषय पर आधारित मराठी प्रवचन का हिन्दी भाषान्तर यहाँ पर संक्षेप में दे रहा हूँ, जिससे कि सभी बहुभाषिक श्रद्धावानों के लिए इस विषय को समझने में आसानी होगी।

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‘हरि ॐ’। ‘श्रीगुरुक्षेत्रम् मंत्र’ यह हम सब लोगों का, हमारे जीवात्मा का मंत्र है । ॐ मानव-जीवात्मा-उद्धारक श्रीरामचंद्राय नमः।’ ॐ मानव-प्राणरक्षक श्रीहनुमंताय नमः। हर एक श्रद्धावान के लिए अपने जीवन को सोने की तरह सुंदर बना लेने का सुनहरा अवसर है, यह मंत्र ! हम ‘ॐ मंत्राय नमः’ में श्रीगुरुक्षेत्रम् मंत्र के बारे में जानकारी प्राप्त कर रहे हैं । उसमें ‘ॐ रामनामतनु श्रीअनिरुद्धाय नमः’ इस मंत्र में उच्चारित किए गए अनिरुद्ध यानी वे ‘त्रिविक्रम’ । उपनिषद् में जो त्रिविक्रम हैं, उन्हीं के नेतृत्व में उस संपूर्ण तीर्थयात्रा का आरंभ होता है । अठारह प्रभाव केंद्रों का आदर सत्कार करते हुए, वहाँ पर प्रणाम करके आदिमाता से मुलाकात कर (मिलकर) उनके शब्द (बोल) सुनकर उनके रूप को निहारकर उत्तम एवं मध्यम को ही नहीं, बल्कि विगत को भी, जिसने अनेक पाप किए हैं, गलतियाँ की हैं, उस विगत को भी ये त्रिविक्रम छोडते नहीं हैं। अर्थात उसे तीर्थयात्रा का कष्ट भी कम और पूरा का पूरा लाभ भी मिलता ही है । ऐसी हैं वे ‘आदिमाता’ और उनके ये ‘त्रिविक्रम’। एक ही समय में जो तीन कदम चलता है वह है ‘त्रिविक्रम’ । पिछली बार हमने देखा कि ये जो हैं, वे एक ही हैं । गणित में भी हमने देखा 1 x 1 = 1, 11 x 11 = 121, 111 x 111 = 12321, यह दाहिनी ओर का आकड़ा कितना भी बढते गया, फिर भी यहाँ बायीं ओर केवल एक ही है । यह केवल गुणाकार है, क्योंकि त्रिविक्रम कभी भी भागाकार नहीं करते, अ‍ॅडिशन नहीं करते, वे गुणाकार ही करते हैं । और इसीलिए उस आदिमाता की कृपा से वे एक ही (अकेले ही) सभी लोगों का भला करने वाले होते हैं । यह अद्भुतता है ‘1’ इस अंक की । वे अकेले ही विविध रूप तैयार करते हैं । कौन से व्हायब्रेशन्स, कौन से स्पंदन, कौन सी आकृति, कौन-सा रूप वे निर्माण नहीं कर सकते, ऐसा नहीं है...और वह भी केवल आँखों को दिखाई देनेवाले ही नहीं, बल्कि आँखों को न दिखाई देने वाले भी । उपनिषद् में हम कथा पढते हैं कि वह वृत्रासुर और उसकी माँ लोगों के लिए बुरे चित्र बनाते हुए घूमते रहते हैं, ओर उसमें बुरे रंग भरते रहते हैं । होता यह है कि आदिमाता की कृपा से, उनकी ढाल से, चामर में से वह रेशमी वस्त्र निकलकर अपना काम करता ही है । उस रेशमी वस्त्र को प्रदान करनेवाला, उस रेशमी वस्त्र की कथा कहनेवाला वह त्रिविक्रम यदि ‘एक’ ही है, तब भी एक के एकत्वपन से, एक ही गुणधर्म से वह विभिन्न रूपों में विविध रंगों से चित्र निर्माण करते रहता है । तुम्हारे प्रारब्ध की गलती के चित्र निर्माण हो चुके होते हैं, खराब चित्र तैयार हो चुके होते हैं । जो बुरे चित्र तैयार हो चुके होते हैं, जिनका रंग बिगड़ चुका होता है, जिनकी आकृति बिगड चुकी होती है, जिनका आकार बदल चुका होता है, वह सब कुछ बदलने के लिए; बिलकुल तुम्हारे प्रारब्ध में कुछ भी पुण्य नहीं हो, तब भी वह त्रिविक्रम सहायता करता है । उन चित्रों को सुधारने के लिए तुम्हें उत्साह देता है, प्रेरणा देता है । इतना ही नहीं, तो ज़रूरत पड़ने पर आदिमाता से कहकर उनमें रंग भी भरता है, उन चित्रों के आकार को भी सुधारता है । ये सब कुछ कर सकनेवाला यह त्रिविक्रम है । उसका ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है । अनेक नामों से उसे संबोधित किया जाता है । ‘त्रिविक्रम’ स्तोत्र तो ऋग्वेद में बहुत ही प्रसिद्ध है । अधिकतर यज्ञों में उस स्तोत्र को कहा जाता है । उसके बिना यज्ञ संपन्न नहीं होता । ऐसा है यह त्रिविक्रम ! हमने पिछली बार देखा कि जो ‘जल’ है, पृथ्वी उत्पन्न हुई उस समय का ही वह जल है । वह जल और आज होनेवाला जल एक ही है । नया जल कोई उत्पन्न नहीं कर सकता है । अर्थात उस समय जो जल था, उस समय के जानवारों (पशुओं) ने जो जल पीया, मनुष्यों ने पीया, आज लाखों मनुष्यों की पीढ़ियाँ जो जल पीते आये हैं, लाखों बार जो जल बारिश बनकर नीचे गीरा, नीचे से पुनः उपर गया, वहीं जल आज भी है। जगद्गुरु तुकाराम जैसे संत, रामदास स्वामी जैसे संत, नरहरी सोनार जैसे संत, ज्ञानेश्वरजी के भाई, मुक्ताबाई, जनाबाई, चोखामेला, सोयाराबाई, निर्मलाबाई, सावतामाली, नामदेव महाराज, एकनाथ महाराज, आदिशंकराचार्य, व्यास इन सबने जो पानी पिया, उनके शरीर पर से जो पानी गिरा, वही जल आज भी है । उसी गंगा में, उसी शरयू में, उसी जल में श्रीराम ने स्नान किया । उस अवतार में उनके बदन पर से बहनेवाले पानी में आगे श्रीकृष्ण ने स्नान किया । अब हम जान सकते हैं कि ये पानी एक ही है । करोड़ो वर्ष बीत जाने पर भी वह नहीं बदला । अर्थात इस पानी में प्रचंड बड़ी ऊर्जा, पवित्र ऊर्जा और पवित्र शक्ति होनी ही चाहिए । इसीलिए हम किसी भी भाषा में पानी को क्या कहते हैं ? ‘जीवन’ कहते हैं । हमारे जीवन को हर प्रकार से विकसित करने वाली बहुत बड़ी ऊर्जा इस पानी में होती है। हम पानी पीते हैं, पानी से नहाते हैं । परंतु इस पानी में होनेवाली पवित्र ऊर्जा का क्या हम स्वीकार करते हैं? इस बात का विचार हम कभी नहीं करते । तीर्थ पीते समय भी भगवान का नाम लो, अपने गुरु का नाम लो, आचमन की पद्धति में भी जब हम हाथ से आचमन लेते हैं, उससे हमारे तालु और गले की पेशियाँ भीग जाती हैं और उनका संबंध हमारे मस्तिष्क से हैं । वह स्निग्धता, वह आर्द्रता, वह रसीलापन हमारे मस्तिष्क को प्राप्त होता है । इसीलिए हर एक पूजा के आरंभ में ‘आचमन लो’ ऐसा कहा जाता है ।

तो यह जो त्रिविक्रम है, उस ‘एक’ की जो पॉवर है, वह उस एक पानी में है । पानी एक ही है, वह त्रिविक्रम भी एक ही है । परंतु वह हर एक के लिए अलग है । वह हर एक मनुष्य के लिए स्वतंत्र है । उसी तरह इस पानी से असंख्य अभिषेक हो चुके हैं । इसी पानी को मंत्रित भी किया गया होगा, उसी पानी से प्राणप्रतिष्ठा भी हुई होगी और इस तरह यह पानी अपने आप में बहुत बड़ी ताकत रखता है । ‘वही सारी ताकत कलियुग के इस चरण में श्रद्धावानों को मिले’ ऐसी मेरी माँ की इच्छा है, उस आदिमाता की इच्छा है । कोई भी इससे वंचित न रहने पाये यह उसकी इच्छा है । परंतु एक शर्त है कि इसे प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति ‘श्रद्धावान’ होना चाहिए ।

पहली बात यह है कि बोतल तुम घर लेकर जानेवाले हो, उसका उपयोग यदि तुम पीने के लिए करते हो, तो कोई नुकसान नहीं; परंतु यह पानी पीने के लिए नहीं है, स्नान करने के लिए है। तुम एक बालटी ले लो अथवा एक पीपा ले लो, उसमें इस बोतल में से केवल दो बूँद जल डालना है । इससे पूरा पानी चार्ज हो जायेगा और तब जो तुम्हारे आप्तजन हैं, उन सबकी स्नान करनेवाली बालटी के पानी में, बाथटब में दो बूँद पानी डाल देना है । उसी तरह जो हँड शॉवर अथवा शॉवर से स्नान करते हैं, उन्हें एक लोटा लेना है । स्टील का, प्लास्टिक का लोटा भी चलेगा, लेकिन धातु (मेटल) का हो तो उत्तम ! उसमें पानी लेकर इस अभिमंत्रित जल की दो बूँदे डाल देनी है । फिर उस पानी से अपना खुद का चेहरा एवं विशुद्ध चक्र का स्थान होनेवाला कंठकूप इस भाग को कम से कम यह पानी अवश्य लगाना है, क्येंकि वहाँ पर तुम्हारा जीवात्मा रहता है । और मान लो कि यदि किसी कारणवश हर किसी को थोड़ा थोड़ा ही पानी मिल रहा है, तो केवल माथे पर, आज्ञाचक्र पर लगा लिया तो भी ठीक है । इसके पश्चात् फिर जैसे चाहिए वैसे स्नान करो ।

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लेकिन इस बोतल का जो द्वार है, जो गुफा है, उस अभिमंत्रित गुफा का अभिमंत्रितपन केवल एक वर्ष तक ही कायम रहेगा। एक वर्ष के बाद तुम जब कभी गुरुक्षेत्रम् में आओगे, तब तुम्हें उस बोतल में 30 एम् एल् पानी भरकर लाना है । अब मैं बताऊँगा उस तरह तुम्हें बैठना है और ग्यारह बार मंत्र कहना है, जिससे कि वह बोतल पुनः चार्ज हो जायेगी । घर के किसी भी एक व्यक्ति को वह एक ही बोतल लानी है। तब भी आज के ही समान तुम्हारी बोतल सेल्फ चार्जींग हो जायेगी ।

मान लो हम बहुत दूर रहते हैं, हमें एक वर्ष बाद तुरंत गुरुक्षेत्रम् में आना न हो सका तो? तब याद रखना है कि एक वर्ष हो जाने के बाद भी समझ लो 6 महीने तक तुम्हें गुरुक्षेत्रम् में आने को न मिले, तब जब तक तुम नहीं आ सकते हो तब तक तुम उस बोतल का उपयोग उसी तरह करते रहो, और 6 महीने बाद गुरुक्षेत्रम् में आकर ग्यारह के स्थान पर बाईस बार मंत्र बोलो । यहाँ पर 6 महीने क्या, एक वर्ष क्या, अथवा एक दिन भी अधिक क्यों न हो, 22 बार मंत्र बोलना है । मान लो कि दो वर्ष की अपेक्षा एक दिन भी अधिक हो जाता है, तो 33 बार मंत्र बोलना है। इसी क्रम के अनुसार मंत्र बोलना है।

इस जल को कोई भी किसी को बेचने का प्रयत्न करता है, तो उस की पॉवर तुम्हारे लिए सदा के लिए चली जायेगी । जो भी मनुष्य इस पानी को बेचेगा, बोतल बेचेगा और दूसरे व्यक्ति से कहेगा, ‘‘अब तुम इस बोतल को ले लो और मैं नयी बोतल ले जाकर चार्ज कर लूँगा’’ ऐसा नहीं चलेगा । तुम यदि बहुत दूर गाँव में रहते हो और कोई कहता है कि मैं दस लोगों की बोतल ले जाता हूँ, 10 दिन वहीं रहकर अभिमंत्रित करके ले आऊँगा, तो केवल उसे आने जाने का खर्च यदि तुम चाहते हो तो शेअर कर सकते हो । परन्तु पानी मात्र नहीं खरीद सकते । उस पानी में किसी भी प्रकार का व्यवहार नहीं चलेगा। पैसे की जगह यदि कुछ और धोती, किमती साडी आदि लेकर देते हो तो वह भी नहीं चलेगा । क्योंकि त्रिविक्रम ने यह जल तुम्हें बेचा नहीं है। जिस क्षण इसमें बेचने का व्यवहार आयेगा, उसी क्षण उस जल की क्षमता का उपयोग वह मनुष्य जीवनभर नहीं कर पायेगा । उसी तरह जो उसे खरीदेगा उसे भी उस जल की क्षमता का उपयोग इस जन्म के लिए खत्म हो जायेगा । यह बात मेरी माँ भी कभी पसंद नहीं करेगी । इसीलिए यह यदि बेचा गया तो खरीदनेवाला और बेचनेवाला दोनों के लिए इस पवित्र जल का उपयोग इस जन्म के लिए समाप्त हो जायेगा।

इस पानी को पीने से तुम्हें कोई तकलीफ होगी? कुछ भी नहीं । परन्तु लाभ भी नहीं होगा। नीचे दिए गए श्‍लोक का अर्थ समझ लेने के बाद तुम यह जान जाओगे कि इस जल से स्नान करना ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। शरीर पर इस पानी को लेने से मज़बूत फायदा है। यदि तुम्हें मंत्र कहते समय संस्कृत नहीं आती इसीलिए उच्चारण में गलती होती है तो भी घबराना मत। मंत्र का उच्चारण करना है। अब मंत्र का अर्थ देखते हैं।

‘ॐ त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रम् । ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र: ॥

‘त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं’ - यहाँ पर ‘इन्द्र’ शब्द का तात्पर्य त्रिविक्रम से ही है । वह कैसे? तुम्हारे शरीर की सभी इन्द्रियों में से कुछ इन्द्रियों को तुम देख सकते हो और कुछ अंदर होनेवालीं इन्द्रियाँ नहीं दिखाई देतीं । ‘इन्द्र शक्ति’ यानी क्या? हम बीज जमीन में बोते हैं। उसका अंकुर कितना नाजूक होता है। बोलो! परन्तु वह अंकुर उस सख्त ज़मीन को तोड़कर बाहर आता है या नहीं? तुम उसे उलटकर देखो। अंकुर को पुन: ज़मीन में दबाकर देखो । वह अंकूर टूट जायेगा, परन्तु ज़मीन से अंदर नहीं जायेगा। जमीन को तोड़ने के लिए, उसमें घुसने के लिए, ज़मीन को छेदने के लिए नुकीलेपन की ज़रूरत होती है, ताकत की ज़रूरत होती है। परन्तु ज़मीन से बाहर आनेवाला अंकुर कितना नाजूक होता है! उस नाजूक अंकुर की ज़मीन तोड़ने की शक्ति अर्थात इन्द्रशक्ति । मनुष्य भी इसी अंकुर की तरह होता है। और उसके संकट यानी उसके आस-पास की दुनिया उस सख्त ज़मीन की तरह होती है। उस ज़मीन पर भक्ति की एक बूँद के गिरते ही उस जमीन से उस का अंकुर बाहर आ जाता है। यही है वह ‘इन्द्रशक्ति’, वह ‘त्रिविक्रमशक्ति’। एक ही समय पर तीन पग चलने की शक्ति। अंकुर को जनम भी दिया, बाहर भी निकाला, तब भी उस अंकुर को कुछ भी नहीं हुआ । ये तीनों ही कदम एक ही समय पर उठाता है वही ‘त्रिविक्रम’ । इसीलिए उनकी शक्ति ही इन्द्रशक्ति मानी गई है। हम इस पानी के साथ क्या लेकर जानेवाले हैं? ‘त्रिविक्रमजल’ अर्थात ‘इन्द्रशक्ति’ लेकर जानेवाले हैं। यह ‘इन्द्रशक्ति’ तुम्हारे मन की इन्द्रिय, तुम्हारे देह की इन्द्रिय, अर्थात तुम्हारा तीनों प्रकार का शरीर, तीनों ही प्रकार का देह, तुम्हारा प्रारब्ध भी, तुम्हारा भूतकाल भी, सभी को स्नान करा सकती है। यह पानी जब तुम्हारे शरीर पर पड़ेगा, तब उसका स्पर्श तुम्हारे प्रभामंडल (ऑरा) को होनेवाला है। हममें से हर किसी के चारों ओर, इर्दगिर्द यह प्रभामंडल होता है। मनुष्य की आँखों से वह दिखाई नहीं देता। यह जो प्रभामंडल है वह तुम्हारे मन पर भी कार्य करता है। बुद्धि पर भी कार्य करता है। प्राण पर भी कार्य करता है। इसीलिए उस जल को शरीर पर डालना है। पीकर उसका कोई उपयोग नहीं । पीने से केवल शरीर को थोड़ा उपयोग होगा, परन्तु प्राण का साधन होने के कारण उसका कोई विशेष उपयोग नहीं होगा। इसीलिए उसे बदन पर लेना है। अब इस मंत्र का आरंभ देखिए कितना सुंदर है।

‘त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं’ - त्रातारं अर्थात रक्षणकर्ता अर्थात? मान लो कोई बीमारी हुई है। उसे पहचान कर उसका इलाज करनेवाला डॉक्टर अर्थात ‘त्रातारं’- रक्षणकर्ता । संकट आने पर उस संकट से छुड़ानेवाला वह ‘त्रातारं इन्द्रं’ । अवितारं अर्थात संरक्षक । रक्षणकर्ता और संरक्षक हमें समान लगते हैं। नहीं । संरक्षक अर्थात? बीमार पड़ने से पहले ही तुम्हें व्हॅक्सीन देकर, वह बीमारी आने ही न पाये इस बात का ध्यान रखनेवाला । ‘संरक्षक इन्द्र’ अर्थात तुम पर संकट आने से पहले ही उसमें से बाहर निकलने के लिए रास्ता बना कर रखनेवाला। तुम्हें मदद मिल सके इस बात की व्यवस्था करके रखनेवाला।

‘हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रं’ - शूर अर्थात ‘लड़ने का समय आने पर जो बिना डगमगाये, ज़रा सा भी न हिचकिंचाते हुए आगे बढ़ता है वह है शूर’। इसका अर्थ क्या है? मनुष्य पर जब संकट आता है, तब उसे अनेक प्रकार का भय हो सकता है। तब उसकी जो इन्द्रशक्ति है, वह उसके मन में ऐसे विचार उत्पन्न करती है कि जिससे वह इस नहीं तो उस मार्ग से आगे जा सकता है। वह घबराकर बैठेगा नहीं, फँसकर बैठेगा नहीं, उसे लोगों के सामने झुकना नहीं पड़ेगा, किसी के सामने घुटने नहीं टेंकने पड़ेंगे। यह शक्ति देनेवाला वह ‘शूरं इन्द्रम्’ । इसके पश्‍चात् इस इन्द्र का दूसरा नाम आता है- ‘शक्र’।

‘ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र:’ -जिसकी शक्ति की तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती और उसे जितनी शक्ति आदिमाता देती है उतनी अन्य किसी को भी नहीं देती । इसीलिए उसके समान शक्ति अन्य किसी की हो ही नहीं सकती।

‘मघवा’ अर्थात सभी प्रकार के ऐश्‍वर्य धारण करनेवाला। और वह भी कैसे? अक्षय। हमने नौ प्रकार के ऐश्‍वर्य देखें हैं। ये 9 के 9 ऐश्‍वर्य अक्षय हैं। अर्थात वे कभी खत्म नहीं होते। जिसका ऐश्‍वर्य कभी खत्म नहीं होता वह कौन है? ‘मघवा’ । उसी तरह ‘पुरुहूतं इन्द्रं’- पुरुहूत का अर्थ यहाँ पर पुरोहित नहीं है। यहाँ पर पुरुहूत का अर्थ है- ‘जिसे इस व़क्त तक अधिक से अधिक लोगों ने अवाहित किया है।’ हम चौथे युग में अर्थात कलियुग में हैं । चारों ही युगों में मदद के लिए मॅक्झिमम आवाहन किसको किया गया? इस ‘त्रिविक्रम’ को । मॅक्झिमम लोग किसे पुकारते हैं? ‘त्रिविक्रम’ को । इसका अर्थ क्या है? मॅक्झिमम, हर बार दौड़कर कौन आता है? ‘त्रिविक्रम’ । पुरुहूत यानी स्वयं आगे बढ़कर दौड़कर आनेवाला। तुमने पुकारना आरंभ किया, उस पुकार के समाप्त होने तक ‘वह’ दौड़कर आ चुका होता है। अ‍ॅक्च्युअली आवाज़ देने से पहले ही आकर खड़ा होता है। उसे कहीं भी दौड़कर आने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

यहाँ पर हमने सभी नाम देख लिए। जिस क्रम से आये उसी क्रमानुसार देख लिये। अब मंत्र का संपूर्ण अर्थ देखेंगे ।

‘ॐ त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रम् । ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र: ॥

ऐसा यह सभी प्रकार के गुणधर्मों को धारण करनेवाला त्रिविक्रम हमारा सदैव कल्याण करने के लिए तत्पर रहता है। उसे हम अत्यन्त प्रेमपूर्वक आवाहन करते हैं कि ‘तुम हमारे त्रिविध देहों में प्रवेश करो।’ त्रिविध देह में एक ही समय पर प्रवेश किया तभी यह संभव है। त्रिविध देह अर्थात यह स्थूल देह, अंदर होनेवाला प्राणमय देह और उसके भी अंदर होनेवाला मनोमय देह। इन तीनों ही देहों में एक ही समय पर जो कदम रख सकता है, वही इन तीनों देहों को ठीक से रख सकता है। वह काम किसका है? केवल ‘त्रिविक्रम’ का । एक ही समय पर तीन कदम केवल वही उठा सकता है।

‘त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं।’ जो रक्षणकर्ता है वही संरक्षक है, जो ट्रीटमेंट करनेवाला है, वही बीमारी न आने पाये इसके लिए प्रिव्हेन्शन करनेवाला है, व्हॅक्सीन भी देनेवाला है। वह इतना शूर है कि उसके केवल अस्तित्व मात्र से हम शूर बनकर लड़ने लगते हैं। हमारे पास भय नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती। धीरे-धीरे करके वह भय निकल जाता है। ऐसे ‘उस’ को मैं आवाहन करता हूँ । ‘ह्वयामि’ यानी क्या? ‘मैं मन:पूर्वक, प्रेम से, आर्तता से आवाहन कर रहा हूँ’ ‘आओ मुझमें आ जाओ, मेरे त्रिविध देहों में तुम्हारी शक्ति प्रदान करो’। अर्थात हम उससे क्या कहते हैं? ‘तुम्हारे सभी स्पंदन जो हैं, वे मेरे त्रिविध देहों में एक ही समय पर आने दो।’

‘ह्वयामि शक्रं’ - ये आवाहन करने के पश्‍चात् मुझे विश्‍वास हो चुका है कि वह इन्द्र कैसा है? ये त्रिविक्रम कैसा है? इसकी शक्ति की तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती। इतनी शक्ति रखनेवाला यह मेरे लिए दौड़कर आनेवाला है। मेरे त्रिविध देह में आनेवाला है। मेरे त्रिविध कालों में आनेवाला है। भूतकाल में आयेगा, वर्तमानकाल में भी आयेगा, भविष्यकाल में भी आयेगा। भूतकाल में कैसे आयेगा? तुम्हें संकट से बाहर निकालना है तो उसे भूतकाल में भी घुसना पड़ता है। क्योंकि तुम्हारा आज का संकट किसी न किसी भूतकाल की घटना से ही आया होता है, यानी वहाँ पर भी उसे सुधार करना पड़ता है और उसका आगे चलकर भविष्यकाल में जो परिणाम होनेवाला होता है, उसमें सुधार करना पड़ता है। अर्थात तुम्हें संकट की घड़ी से पूर्ण रूप से बाहर कौन निकाल सकता है? तो वह केवल ‘त्रिविक्रम’ ही ! वही एक ही समय में भूतकाल में भी खड़ा है, वर्तमानकाल में भी खड़ा है और भविष्यकाल में भी खड़ा है। तीनों स्थान पर जाकर वह लड़ता है, तब कहीं जाकर लोगों को बुरे प्रारब्ध से मुक्ति मिलती है। और वह कौन दिलाता है, तो केवल एक ही। कौन है वह? ‘त्रिविक्रम’ !

ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र:। ऐसा है यह ऐश्‍वर्यवान इन्द्र । ‘हे इन्द्र, त्रिविक्रम, इन्द्रशक्ति धारण करनेवाले त्रिविक्रम, मैं बड़ी आर्तता से तुम्हारा आवाहन कर रहा हूँ और तुम आकर ये सब करने ही वाले हो ऐसा मेरा विश्‍वास है’। याद रखना हम केवल ‘आओ’ इतना ही नहीं कह रहे हैं, ‘मुझे विश्‍वास है’ यह कह रहे हैं। क्या कहना है? ‘तुम हो यह विश्‍वास है, तुम क्या कुछ नहीं कर सकते हो, तुम सब कुछ कर सकते हो मुझे पुरा विश्‍वास है, मेरे आवाहन करने पर तुम आओगे ही यह विश्‍वास है, तुम मेरा कल्याण करोगे ही यह विश्‍वास है’। हमें इतना विश्‍वास उस पर क्यों रखना है? क्योंकि तुम उस पर जितना विश्‍वास रखते हो अथवा तुम्हें उस पर विश्‍वास ना भी हो, तब भी वह तुम पर सदैव विश्‍वास रखता है इसलिए। बारंबार गलती करने पर हम अपने बालबच्चों को, मित्रों को, भाई-बंधुओं को, माता-पिता को भी कहते हैं, ‘‘ये क्या? एक ही बात दस बार कहने के बावजूद भी तुमने वही गलती की। अब क्या अपेक्षा (एक्सपेक्टेशन) रख सकते हैं तुमसे?’’ लेकिन ‘वह’ ऐसा नहीं कहता। जन्म जन्म से, लाखों जन्मों से मनुष्य वही ग़लतियाँ करता रहता है। परन्तु ‘वह’ उसे पुन: जन्म देता है, अर्थात? कहने का तात्पर्य यह है कि ‘वह’ उस पर विश्‍वास रखता है कि आज नहीं तो कल यह सुधरेगा ही। यह विश्‍वास केवल उसका अकेले का है, याद रहे। उसका दिल तड़पता रहता है हमारे लिए। हर एक मनुष्य के लिए यह तड़प, हर एक जीवात्मा के लिए उसकी यह तड़प है कि यह सुधरेगा, आज नहीं तो कल वह सुधरेगा ज़रूर, यही वह कहता है। ‘उसके’ साथ कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए । क्योंकि यदि तुम उसके सामने झूठ बोलते हो तो वह तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकता है। क्योंकि उसी क्षण वह आदिमाता वहाँ आ जाती है और मदद का रास्ता रोक देती है। और तब एक ही समय पर तीनों कदम रखनेवाला दूसरा कोई भी नहीं है। इसीलिए इस बात का ध्यान हमें हर समय रखना चाहिए । क्योंकि ‘वह’ कितना विश्‍वास हम पर रखता है, यह उसकी माँ भी जानती है इसीलिए !

ऐसे इस मंत्र से सिद्ध होनेवाला जल जो है, वह क्या करने वाला है? इस मंत्र में जो दिया गया है, वह सब कुछ करनेवाला है। इस मंत्र में जिन-जिन नामों का अर्थ हमने देखा, वे सभी क्रिया हमारे लिए यह जल करनेवाला है। तीसरी बात यह है कि हम सुनते हैं, ‘अब हम पचास के हो गए, अब क्या साठ के हो गए’। उसी प्रकार उम्र के 30 वे वर्ष भी हम सुनते हैं, ‘अब इस उम्र में क्या खेलना? तीस साल का घोड़ा हो गया।’ अर्थात जीवन उत्साह के साथ जीने के लिए प्राणों का जो संतुलन आवश्यक होता है, उस प्राणशक्ति को भी तरोताजा रखने का काम यह जल करनेवाला है। इसीलिए हमारे मन, प्राण, इंद्रिय, इन सबके लिए रोगप्रतिबंधक शक्ति प्रदान करनेवाला यह जल है, यह त्रिविक्रम है, त्रिविक्रम का मंत्र है।

इस अभिमंत्रित जल को डालते समय क्या कहना है? यह मंत्र बोलना है। यह अति उत्कृष्ट है ही, सवाल ही नहीं उठता । एक बार बोलो, दो बार, तीन बार बोलो या तीस बार बोलो, कोई प्रॉब्लेम नहीं। जल उडेलते समय ही नही बल्कि स्नान करते समय भी बोल सकते हो। यह मंत्र बोलना नहीं आता है तो ‘ॐ ग्लौं सद्गुरुनाथाय नम:’ बोलो, अपने सद्गुरु का नाम लेकर उसके साथ नम: जोड दो। तब उसका परिणाम और भी अधिक होगा, अच्छा होगा। तुम मंत्र कितनी भी बार बोल सकते हो । हम दिन में दो बार स्नान करेंगे तो चलेगा क्या? ज़रूर चलेगा। निश्‍चिंत होकर करो। एक और बात सुनो, तुमसे कभी कोई गलती हो जाती है अथवा पाप हो जाता है, तब तुम अपने आप को दोषी ठहराते रहते हो, अब उसे बंद कर दो।

त्रिविक्रम जल मेरे पास है, उस शिवगंगागौरी की, माँ रेणुका की हलदी हमारे पास है। अब हमें किसी से डरने की कोई ज़रूरत नहीं।

आनेवाले मंगलवार से श्रीगुरुक्षेत्रम् में मेरे द्वारा सिद्ध की गयी पानी की बोतल वहाँ पर होगी। वह बोतल वहाँ पर सदैव रहेगी । जिन नये लोगों को अपनी बोतल को सिद्ध करवाना होगा, उन्हें गुरुक्षेत्रम् मंत्र बोलना है। उसके बाद ग्यारह बार इस मंत्र को बोलना है। अंत में पुन: एक बार गुरुक्षेत्रम् मंत्र बोलना है, तब उनकी बोतल सिद्ध हो जायेगी । पहली बार चार्ज करने के लिए इस आनेवाले मंगलवार से कोई भी गुरुक्षेत्रम् में आकर चार्ज कर सकता है।

यह ‘त्रिविक्रम जल’ अब तुम्हारी धरोहर बन चुका है। तुम यदि ठीक से इसकी जतन करोगे, तब पीढ़ी दर पीढ़ी तुम्हारे बच्चों को, नाती-पोतों को, सभी को तुम यह त्रिविक्रम जल दे सकते हो । मेरा व्रत जो अभी चल रहा है, उसकी यह ‘प्रथम निष्पत्ति’ है। बड़े ही प्रेमभावपूर्वक यह सब करना है।